आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट

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आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
दिनांक- 27 अप्रैल, 2017

“ओए तुझे मालूम है, गुप्ता की लड़की बनर्जी के लड़के के साथ भाग गई!…”
“हैंऽऽऽ? अच्छाऽऽऽ?… अजी मुझे तो पहले से ही पता था जो लड़की रोज़ नए शेड की लिप्सटिक लगाएगी, हर तीसरे दिन पार्लर जाएगी उसे तो किसी न किसी के साथ भागना ही है।”
“हमारी बेबी तो घर से सीधा कॉलेज और कॉलेज से सीधा घर… बस न किसी से मिलना न कोई चक्कर”
“वैसे एक बात बताऊँ भैन जी… देखो बुरा मत मानना… अपनेपन में कह रही हूँ घर की बात है… आपने ना बेबी को इसमार्ट फोन दिलवा के ठीक नईं किया… दूसरे वो स्कूटी का मामला भी मुझे ठीक नहीं लगता… देखो -देखो मैंने बस एक बात कही है आप फील मत करना…”
“नईं-नईं मुझे क्या फ़ील करना… फ़ील तो तुझको होगा जब छोटी बहन अपना रंग दिखाएगी। मेरी बेबी की बात छोड़ तू अपना घर संभाल। तेरा पति रोज़ शाम को तेरी बहन को लेकर कहाँ जाता है?”
“अा हा हा हा बहुत बढ़िया… ट्यूशन ले जाते हैं रानी को और क्या…”
“जब वो रानी… तेरे घर की रानी बनेगी ना तब तुझे पता चलेगा।’
“मुँह संभाल के बात करो भैन जी… बहुत हो गया”
“तो तुझे क्या परेशानी हो रही थी बेबी की स्कूटी से”
“अरे मैं तो अपनेपन में कह रही थी”
“मैं भी तो अपनेपन में ही कह रही थी”
… थोड़ी देर मौन…
फिर दोबारा गॉसिप चालू…

बात असल में ये है कि लोग जब भी ख़ाली समय में बात करते हैं तो कभी भी किसी भी विषय से कूद कर व्यक्तिगत विषयों पर आ जाते हैं। पति-पत्नी में तो यह रोज़ाना की स्थिति है। जैसे-

“सुन रही हो… तुम्हें पता है राजीव ने अपनी बीवी छोड़ दी।”
“पता है-पता है तुम सब मर्द एक जैसे होते हो।”
“क्या मतलब ? क्या मैं भी ऐसा हूँ।”
“और क्या मेरे पति हो तो क्या… हो तो तुम मर्द ही।”
“ठीक है तो मैं भी तुम्हें छोड़ देता हूँ।”
“और इससे ज़्यादा तुम कर भी क्या सकते हो!… आज जल्दी पैग लगा लेना। मेरे सर में दर्द है, मुझे जल्दी सोना है।”
“सर दबा दूँ?”
“बस-बस रहने दो”

यदि हम बात करते समय या गप-शप करते समय ज़रा सा इस बात का ध्यान रखें कि कहीं हम सामने वाले के बारे में बात तो नहीं कर रहे… इस सावधानी से बहुत से झगड़े बच सकते हैं, तनाव कम हो सकते हैं लेकिन यह बहुत कठिन अभ्यास है। जैसे की सामने वाला हमारे ऊपर कोई आरोप लगाता है या हमारी ग़लती को सुधारने की कोशिश करता है, हम तुरंत बचाव मुद्रा में आ जाते हैं और सामने वाले की ग़लतियाँ गिनाने लगते हैं।

हमें बातें करनी चाहिए लेकिन एक-दूसरे के ऊपर किसी कटाक्ष का सहारा लेकर नहीं बल्कि एक दूसरे के प्रति संवेदना और करुणा का भाव रखते हुए।

आरोप-प्रत्यारोपण की बात-चीत का नतीजा ये होता है कि सब आपस में बात करने की बजाय अपने-अपने में ही मस्त हो जाते हैं। ये जो वॉट्स एप और फ़ेसबुक की बीमारी है इसकी वजह कुछ हद तक यह भी है कि हम संयत होकर आपस में बात नहीं कर पाते।

कुछ और बातें भी हैं जो हमें बात करने से रोकती हैं उनमें से सबसे बड़ा कारण है कि हमारे पास कुछ भी ऐसा बात करने को नहीं है जो विशेष रुचिकर हो। जिसकी वजह है अब लोगों का उपन्यास और कहानियाँ न पढ़ना। कविताएँ तो बिल्कुल भी नहीं पढ़ी जा रही हैं। हिन्दी साहित्य तो सिर्फ़ कोर्स की किताबों की शोभा रह गया है।

जब हम अच्छा साहित्य पढ़ेंगे नहीं तो बात करने के विषय क्या होंगे? बच्चे लिखना कैसे सीखेंगे? दुनिया भर से पुस्तकालय धीरे-धीरे ख़त्म हो रहे हैं। विश्व भर से पुस्तकालयों के आंकड़े निराशाजनक हैं। कई बड़े पुस्तकालय ऐसे हैं जिनमें 50 प्रतिशत से अधिक पुस्तकें तो कभी किसी ने खोलकर भी नहीं देखीं। अमेरिका के नए राष्ट्रपति की नई बजट नीति में तो पुस्तकालय और संग्रहालय बजट ही शून्य कर दिया है। इस पर भी जनता चुप है।

दिनांक- 26 अप्रैल, 2017

मैंने काफ़ी समय पहले लिखा था-
“उपस्थिति में अनुपस्थिति को जी लेना ही रिश्ते की गर्माहट बनाए रखता है… जीवन भर”
कुछ सुधी पाठकों ने इसका अर्थ जानना चाहा है, जिसमें हमारी भाभी जी DrRenuka Tyagi भी शामिल हैं वे स्वयं भी कई भाषाओं की विद्वान हैं और आई.ए.ऍस भी हैं।

तो इसका अर्थ कुछ इस तरह है कि-
हम जब किसी के साथ लम्बे समय तक रहते हैं तो अक्सर उसका साथ ‘टेकन ग्राँटेड’ हो जाता है। छोटे-मोटे झगड़े होने लगते हैं। ये झगड़े, बोल-चाल बंद तक पहुँच जाते हैं। कभी-कभी लोग क़रीबी रिश्ता होने के बाबजूद अलग रहने का निर्णय ले लेते हैं। बाद में बहुधा पछताना पड़ता है।

यह सब रुक सकता है यदि हम एक सीधा सरल उपाय करें तो-
जिससे हम नाराज़ हैं उसके बारे में हम ये सोचें कि यदि यह व्यक्ति हमेशा के लिए हमसे दूर हो जाए तो…?
क्या हम उसकी सदा की अनुपस्थिति में आराम से सुख पूर्वक जीवन बिता सकते हैं…? ऐसा सोचते ही हमारा ग़ुस्सा कम हो जाता है और अक्सर बिल्कुल ख़त्म ही हो जाता है। एक करुणा का भाव जन्म ले लेता है।
इसीलिए मैंने लिखा कि किसी कि उपस्थिति में अनुपस्थिति को जी लेना ही रिश्ते की गर्माहट बनाए रखता है।

दिनांक- 25 अप्रैल, 2017

मेरी एक कहानी पढ़िये...

‘छोटी बहू’

“छोटीऽऽऽ! बड़ा भैया अा गया ज़रा खाना खिलवा देना।” सास ने बहू से कहा और फिर बड़बड़ाने लगी ”न जाने क्या करता है… व्यापार तो लाला जी भी करते थे पर ऐसे रात को देर से तो कभी नहीं आए… हाँ शादी-ब्याह की बात और होती है…”

अपने जेठ को खाना परोसने में छोटी बहू को बहुत संकोच होता था। जेठ की नीयत ठीक नहीं थी। जिठानी तो मायके गई हुई थी… आने का नाम ही नहीं ले रही…।

इस रात फिर बदनीयत से जेठ ने छोटी बहू का हाथ छू दिया और द्विअर्थी बातें करने लगा। कई दिन से यह सब चल रहा था। छोटी तड़प कर रह जाती और अपने कमरे में सोने चली जाती। अपने पति से इसका ज़िक्र करने में उसे डर लगता था कि न जाने क्या स्थति बने। … घर में सब शामिल रहते हैं। बच्चों के शोरग़ुल से घर भरा-भरा लगता है… कहीं मेरे कुछ कहने से सब कुछ बिखर न जाए… करूँ तो करूँ… यही सब सोचते-सोचते नींद आ जाती।

देवी जागरण का बड़ा ज़ोर चल रहा था। सास तो देवी जागरण की दीवानी थी। हर साल विशाल देवी जागरण होता और पूरी कॉलोनी के लोग हिस्सा लेते थे। रिश्तेदारों को भी बुलाया जाता था। जयपुर वाली मामी को हर साल देवी आती थी। मामी का बड़ा ज़ोरदार प्रदर्शन देवी आने का होता था। अजीब-अजीब हरक़ते मामी करती, कभी नाचने लगती तो कभी कूदने लगती, कभी किसी को धक्का दे देती। ये सारी ट्रेनिंग उसने छोटी की सास से ली थी। सास भी एक ज़माने में देवी आने की एक्सपर्ट थी। आज भी सास का मन करता था लेकिन शरीर से लाचार थी तो उसकी गद्दी जयपुर वाली मामी ने संभाल ली थी।

पांडाल सज चुका था। देवी के भजन पूरी श्रद्धा-भक्ति से गाए जा रहे थे। सबको मामी का इंतज़ार था कि कब देवी आएगी-कब देवी आएगी। छोटी बहू की निगाह लगातार मामी पर जमी हुई थी। भजन और संगीत का समा बंध चुका था। भक्तों में भक्ति की लहर दौड़ रही थी। कुछ अतिउत्साही भक्तों की आँखें शराब के कारण झिलमिला रही थीं। जेठ ने भी कार की डिक्की से निकाल कर दो-तीन पेग खींच लिए।

जागरण अपने पूरे ज़ोर पर था कि अचानक छोटी बहू ने मामी को साड़ी का पल्लू कमर में खोंसते देखा और वो समझ गई कि अब मामी देवी आने का नाटक शुरू करने ही वाली है लेकिन ये क्या इससे पहले कि मामी शुरू होती छोटी बहू ने देवी आने का ज़बर्दस्त नाटक शुरू कर दिया। छोटी ने जो हंगामा मचाया वो देखने लायक़ था। यह सब चल ही रहा था कि जेठ वहाँ आ गया और बड़े ग़ौर से छोटी बहू की तरफ़ देखने लगा।

चटाक!!! एक झन्नाटेदार थप्पड़ जेठ के मुँह पर पड़ा… फिर एक और पड़ा… फिर एक और…। सब सन्नाटे में आ गए। भजन अपने पूरे उरूज़ पर था और थप्पड़ पड़ रहे थे। देवी थप्पड़ मार रही थी और सब देख रहे थे। आठ दस थप्पड़ मार कर छोटी थोड़ा शान्त हुई और बेहोश होने का नाटक करके लेट गई। सबने देवी की जयजयकार की और जेठ के पास जाकर कहा कि आज तो आपका जागरण सफल हुआ। देवी ने मन से आशीर्वाद दिया और प्रसाद भी।

उस रात के बाद सास ने कभी छोटी बहू से जेठ को खाना परोसने के लिए नहीं कहा।

दिनांक- 23 अप्रैल, 2017

किसी चमत्कार की उम्मीद में जीना मनुष्य का एक ऐसा स्वभाव है जिसका ज़िक्र वह ख़ुद बहुत कम ही करता है। किसी न किसी चमत्कार का इन्तज़ार या पहले घट चुकी किसी घटना को चमत्कार मानना एक लोगों के लिए एक आम बात है। यदि किसी व्यक्ति के साथ लंबा समय गुज़ारा जाय तो हम पाते हैं कि वह अपने जीवन में घटे चमत्कार का ज़िक्र कर बैठता है। ख़ुद को सामान्य रूप में प्रकृति का एक साधारण हिस्सा न मानकर एक विशेष कृति मानता है।

ऐसे लोग बहुत सी ऐसी अच्छी परिस्थिति को, जो कि उस व्यक्ति की कड़ी मेहनत और समझदारी भरे प्रयासों से ही बन पाई, को भी भाग्य बताने लगते हैं।

कोई व्यक्ति जिस तरह दूसरों के बारे सोचता है उस तरह अपने बारे में नहीं सोचता। यही कारण है कि उसे अपनी मृत्यु पर कभी पूर्ण विश्वास नहीं होता। उसे लगता है कि वह तो बस जीता ही रहेगा हमेशा। साथ ही मृत्यु के बाद के समय के बारे में भी अटकलें लगाता रहता है। सोचता है कि निश्चित ही मृत्यु के बाद भी कहीं न कहीं किसी न किसी तरह का जीवन होगा।

भाग्य का अस्तित्व हो न हो लेकिन इसके अस्तित्व को साबित करना बहुत आसान है। यहाँ तक कि दुर्घटना को भी सौभाग्य साबित किया जा सकता है। मानिए कि किसी व्यक्ति की दुर्घटना में टाँग टूट गई तो कहा जाता है कि ‘बहुत भाग्यशाली हो जो सिर्फ़ टाँग टूटी, जान बच गई’।

इस तरह की बातों से भाग्य पर विश्वास होने लगता है। जबकि भाग्य केवल हमारा भ्रम ही है। मैं जानता हूँ कि मेरी बात से बहुतायत में लोग असहमत होंगे क्योंकि मैं उनके विश्वास के ख़िलाफ़ लिख रहा हूँ।

एक उदाहरण दे रहा हूँ।- एक व्यक्ति रिहाइशी प्लॉट बिकवाने का काम करता था। उसे एक प्लॉट बिकवाने की ज़िम्मेदारी दी गई। मंदी का समय चल रहा था इसलिए उसे काफ़ी लोगों से संपर्क करना पड़ा काफ़ी भाग-दौड़ के बाद भी कुछ काम नहीं बना। चार महीने तक कोई ग्राहक न मिलने से वह निराश हो गया। इस निराशा के दौर में वह एक ज्योतिषी से मिला ज्योतिषी ने उसे एक अंगूठी पहनने को दी।

एक सप्ताह और निकल गया एक दिन वह दोपहर को सो रहा था कि फ़ोन की घंटी बजी और प्लॉट बिकने की बात हो गई और तीन दिन बाद ही प्लॉट बिक भी गया और उसे अच्छा कमीशन भी मिल गया। इससे वह भाग्य और ज्योतिष में दृढ़ विश्वास करने लगा।

अब हम उस परिस्थिति पर चर्चा करें जिसके चलते यह सब हुआ। असल में इस प्लॉट के बिकाऊ होने की बात को फैलने में एक-दो महीने लग गए। इसके बाद कई ज़रूरतमंदों ने इस प्लॉट के बारे में जानकारी की लेकिन बात नहीं बनी। तीसरे महीने तक प्लॉट की चर्चा उन लोगों तक पहुँची जो प्लॉट को तुरंत ख़रीदना चाहते थे। चौथे महीने में बिलकुल सही ख़रीदार ने अपना मन बना लिया।

दूसरी ओर वह व्यक्ति निराशा में घिर गया जबकि ख़रीदार तैयार था। निराश व्यक्ति घर बैठ गया और ख़रीदार ने उससे संपर्क किया। बेचने वाले को लगा कि मैंने इतनी मेहनत की तो प्लॉट बिका नहीं और अब घर बैठे ही बिक गया। ये ज्योतिषी की अंगूठी का चमत्कार है। जबकि सच्चाई कुछ और ही थी।

बहुतायत में लोग ऐसे हैं जो सोचते हैं या उनके दिमाग़ में भर दिया जाता है कि यदि ईश्वर पर विश्वास है या वह व्यक्ति आस्तिक है तो भाग्य, ज्योतिष, चमत्कार, भूत-प्रेत आदि पर भी उसका विश्वास होना चाहिए। यह किसी भी समाज के विकास के लिए उपयुक्त नहीं हैं। ईश्वर पर विश्वास होना और और अंधविश्वासों में जीना दोनों अलग-अलग स्थितियाँ हैं।

ईश्वर पर विश्वास होने से समाज के विकास को कोई ख़तरा नहीं है बल्कि यह विश्वास एक आत्मविश्वास को बढ़ाने में सहयोग करता है।

दिनांक- 22 अप्रैल, 2017

मेरी पिछली पोस्ट में श्री शुक्ल ने कुछ कमेंट किए उसका उत्तर दे रहा हूँ।

संभवत: आपने ध्यान से पढ़ा नहीं शुक्ल जी, मैंने लिखा है-
“कभी-कभी कुछ मुद्दों पर मेरे सामने भी यह समस्या आती है और घुटन महसूस होती है।”

‘कुछ’ मुद्दों पर जो तटस्थ रहते हैं वे कायर या स्वार्थी नहीं होते। हाँ यदि किसी की ‘जीवन शैली’ ही तटस्थ रहने की है तो ऐसा व्यक्ति तो चर्चा करने योग्य भी नहीं है।

मैंने सदैव तटस्थ रहने की तो बात की ही नहीं… केवल कुछ मुद्दों पर तटस्थ रहने की बात कही थी।

सबसे पहले मेरा ही उदाहरण लीजिए-
मेरे परम पितामह को 1857 में अग्रेज़ों ने फांसी दी थी। यह ऐतिहासिक तथ्य सरकारी दस्तावेज़ों का हिस्सा है। मेरे पिता भी स्वतंत्रता सेनानी थे, उनकी जवानी जेलों में कटी। अंग्रज़ों ने हमारे घर की कुर्की करा दी। एक ज़मीदार परिवार के होने के बावजूद भी दर-दर भटकना पड़ा।

क्या हम तटस्थ थे या हैं ??? अगर हम जैसे लोग तटस्थ होते तो आज भी अंग्रेज़ भारत पर शासन कर रहे होते।

यदि किसी असहाय के साथ अनाचार हो रहा है और आप देख रहे हैं और शांत हैं तो आप कायर हैं किंतु पति-पत्नी या सास बहू या लड़ाकू पड़ोसियों की रोज़ाना की रार में आप तटस्थ हैं तो यह समझदारी भी हो सकती है।

कौरव-पांडव युद्ध, महाभारत में कृष्ण तटस्थ थे तो क्या कृष्ण भगवान कायर थे? बलराम जी ने तो युद्ध में भाग ही नहीं लिया तो… क्या वे कायर थे। भीष्म पितामह ने शिखंडी पर तीर चलाने की बजाय मरना बेहतर समझा तो क्या वे भी कायर थे। द्रोणाचार्य ने अश्वत्थामा के मरने की ख़बर सुनते ही युद्ध क्षेत्र में ही समाधि लगा ली और मारे गए… क्या वे कायर थे।

यदि कोई आप से कहता है कि चलिए चरस पीने चलते हैं दूसरा कहता है कि नहीं गांजा पीने चलते हैं तो आप क्या एक को चुन लेंगे? कहना ही पड़ेगा कि मैं तुम दोनों के साथ नहीं जा सकता मैं यहीं रुकना पसंद करूँगा। कोई कहता है कि मुजरा देखने चलेंगे या चोरी करने या डक़ैती डालने तो क्या आप कोई एक रास्ता चुन लेंगे। जब दो पक्ष अनुचित रास्ते पर हों तो बुद्धिमान और विवेकमान व्यक्ति को तो तटस्थ ही रहना होगा। क्या ये कायरता हुई?

मैं बहुत सरल भाषा में लिखता हूँ फिर भी लोग उसे ध्यान से नहीं पढ़ते और समझ नहीं पाते। कुछ मुद्दों पर तटस्थ रहने की परिस्थिति तो दुनिया में सबके सामने ही आती है और छिट-पुट में तो लगभग रोज़ाना ही।

रही बात मेरी तो मेरे जैसा व्यक्ति जीवनभर तटस्थ कैसे रह सकता है। एक तो आपने मेरे अन्य लेख पढ़े नहीं हैं। दूसरे ज़रा सोचिए क्या कोई तटस्थ रहने वाला व्यक्ति भारतकोश (www.bharatkosh.org) बना सकता है, जोकि इस समय दुनिया का सबसे लोकप्रिय भारत का समग्र ज्ञानकोश है। जिसके हर महीने 30 लाख पेज व्यू हैं। यह सब हमने किसी सरकारी सहायता से नहीं किया बल्कि अपनी सम्पत्ति बेच कर किया है और कर रहे हैं। हमें भारतकोश को निष्पक्ष रखने के लिए न जाने कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ा।

नई पीढ़ी को सदैव निष्पक्ष जानकारी ही देनी चाहिए और किसी सही पक्ष को चुनने का विवेक उनमें तभी पैदा होगा।

जे. कृष्ण मूर्ति ने कहा है कि शिक्षार्थियों को हमें यह नहीं सिखाना चाहिए कि ‘क्या सोचना चाहिए’ बल्कि यह सिखाना चाहिए कि ‘कैसे सोचना चाहिए’। कम से कम नई पीढ़ी को इतनी बुद्धि और विवेक की स्थिति बनाने के लिए वैचारिक स्वतंत्रता देनी चाहिए। वरना एक पक्षीय बातों से तो दिमाग़ ठस्स ही होता है। स्कूलों में पक्ष-विपक्ष की वाद-विवाद प्रतियोगिता इसीलिए होती है।

समस्या वहाँ आती है शुक्ल जी जहाँ ये अपेक्षा की जाती है कि आप फ़लाँ पार्टी वालों को चोर कहिए वरना आप देश द्रोही हैं। आप इस्लामी आतंकवाद के ख़िलाफ़ मत बोलिए नहीं तो आप सेक्यूलर नहीं हैं कम्यूनल हैं। आप शियाओं से बात मत कीजिए वरना आप सुन्नियों के दुश्मन हैं। आप तिलक मत लगाइये वरना आप दक़ियानूसी और कम्यूनल हैं।

मेरे अति निकट मित्रों में कम्यूनिस्ट भी हैं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक भी हैं। काँग्रेसी भी हैं और समाजवादी भी। हिन्दू भी हैं और ग़ैर हिन्दू भी। मेरी व्यक्तिगत विचारधारा भारतवादी और मानवतावादी से मेल खाती है। मैं फ़ेसबुक पर लाइक या कमेन्ट पाने के लिए नहीं लिखता बल्कि नई पीढ़ी को अपना लिखा पढ़ाने के लिए लिखता हूँ। जो भी कुछ टूटा-फूटा ज्ञान या विचार मेरी सामान्य बुद्धि में आता है वही लिख देता हूँ।

मैं चाहता हूँ कि नई पीढ़ी को स्वतंत्र आकाश में स्वछन्द उड़ान भरने का मौक़ा मिले न कि किसी रूढ़िवादी दक़ियानूसी पिंजरे का अर्थहीन जीवन।

दिनांक- 21 अप्रैल, 2017

आजकल कुछ लोग एक अजीब क़श्मक़श से गुज़र रहे हैं। ये समस्या है निष्पक्षता की, तटस्थता की और निरपेक्षता की। कभी-कभी कुछ मुद्दों पर मेरे सामने भी यह समस्या आती है और घुटन महसूस होती है।

मैं यहाँ यह बता देना चाहता हूँ कि यह समस्या नयी नहीं है बल्कि उस समय से चली आ रही है जब आदिम समाज क़बीलों में बँटना प्रारम्भ हुआ था। यह मैंने स्पष्ट इसलिए किया क्योंकि कुछ लोग इस समस्या को आज के बदलते राजनैतिक और सामजिक हालातों से जोड़ने की कोशिश करते हैं।

मैं शिव मंदिर में होकर आता हूँ तो लोग घोषणा करते हैं कि ‘अच्छा तो आप शैव हैं…’ यदि देवी के दर्शन करके किसी को प्रसाद दूँ तो मुझे शाक्त बना दिया जाता है और मेरे तुलसी की कंठी पहनने के कारण मेरा पंजीकरण वैष्णव के रूप में कर दिया जाता है।

मैं तो सभी धार्मिक स्थलों पर जाता हूँ मेरे लिए तो ईश्वर मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और गिरजा… सभी जगह है। इन धर्मस्थलों के अलावा भी कहीं किसी बच्चे में किसी जानवर में पेड़-पौधों में मुझे ईश्वर के निकट होने का अहसास होता रहता है, यहाँ तक कि मुझे संगीत में ईश्वर के दर्शन होते हैं।

जब किसी को पता चलता है कि मैं किसी शहर की प्राचीन मस्जिद या गिरजा देखने गया था तो कहते हैं कि ओह आप सेक्यूलर हैं। अरे भाई मैं न तो सेक्यूलर हूँ न किसी कम्पनी का कूलर हूँ। मैं किसी वाद या विवाद के चक्कर में नहीं पड़ता।

मेरा धर्म, जाति, वाद… सब भारत है। हाँ इतना अवश्य है कि मैं हिन्दू परिवार में पैदा हुआ और हिन्दू धर्म को सबसे अच्छा धर्म मानता हूँ और अपने आप को हिन्दू कहने में मुझे कोई शर्म का अहसास कभी नहीं हुआ। हिन्दू धर्म ही एक ऐसा धर्म है जो विश्व में बिना किसी दबाव या लालच के फैल रहा है। केवल एक बात मुझे हमेशा चुभती है कि हिन्दू धर्मस्थलों में साफ़ सफ़ाई का न होना (विशेषकर उत्तरी भारत में)।

हाँ तो मैं कह रहा था कि बिना किसी एक पक्ष को चुने जीना बहुत मुश्किल होता है। यदि लोकसभा को देखें तो आवश्यक नहीं कि किसी राजनैतिक दल के सदस्य ही हों। निर्दलीय सदस्य भी तो होते हैं। किसी की अपनी निज विचारधारा भी तो हो सकती है। क्या ज़रूरी है कि हम अपने आप को किसी ख़ेमे से जोड़कर ही अपना परिचय दें?

परम श्रेष्ठ प्रतिभा, किसी ख़ेमे या राजाश्रय की मोहताज नहीं होती। मुंशी प्रेमचंद, ल्येव तोल्सतोय, लू शून और अलबेयर कामू के संबंध में आपको बताना चाहूँगा… यदि ध्यान से पढ़ेंगे तो काफ़ी कुछ स्पष्ट हो जाएगा।

‘मुंशी प्रेमचंद’ को मार्क्सवादी ‘अपना’ कहते हैं। साबित करने की कोशिश करते हैं कि मुंशी जी मार्क्सवादी थे। ऐसा सिर्फ़ इसलिए किया जाता है कि मुंशी प्रेमचन्द ने निर्धनतम व्यक्ति के जीवन और मन को बहुत मार्मिक और सार्थक ढंग से अपने साहित्य में बसाया। गोदान उपन्यास हो या घीसू और माधो की कहानी कुछ भी पढ़िए आपको भारत की ग़रीबी का अहसास आपके दिल को छूता और झकझोरता मिलेगा।

क्या ज़रूरत है मुंशी प्रेमचन्द को किसी ख़ेमे का हिस्सा बनाने की? प्रेमचन्द का साहित्य प्रत्येक सरकार के शैक्षिक पाठ्यक्रम का हिस्सा रही और सदैव रहेगी। गोदान आज भी पढ़ा जाता है। अमेज़न पर अंग्रेज़ी किताबों के साथ-साथ गोदान भी बिकता है।

‘ल्येव तोल्सतोय’ या लिओ टॉल्सटॉय अपने जीवन के प्रारंभिक दौर में ईश्वर पर विश्वास नहीं करते थे। एक उम्र होने पर ईश्वर में विश्वास करने लगे। उनका पुनरुत्थान उपन्यास उनके नास्तिक होने का और आन्ना कारेनिना उनके आस्तिक होने का सबसे बड़ा सबूत है। पुनरुत्थान और आन्ना कारेनिना दोनों ही मेरे पसंदीदा उपन्यास हैं। कम्यूनिस्ट सरकार ने तोलस्तोय साहित्य ‘प्रगति’ और ‘रादुगा’ प्रकाशन द्वारा ख़ूब छापी और आज भी छपती है।

तोल्सतोय को भी मार्क्सवादियों ने ‘अपना’ कहा लेकिन ये प्रयास व्यर्थ है। तोल्सतोय स्वच्छंद विचारधारा के एक परिपक्व विचारक थे और उन्हें किसी दूसरे की परिभाषा में बंधने के बजाय अपनी परिभाषाएँ बनाना पसंद था।

‘लू शुन’ चीन के महान कहानीकार हुए हैं। प्रारम्भिक जीवन में वे वामपंथी विचारधारा से प्रभावित थे। कमाल की बात यह है कि वामपंथियों के लाख ज़ोर देने पर भी लू शुन ने कभी कम्यूनिस्ट पार्टी की सदस्यता नहीं ली।

लू शून को चीन का प्रेमचंद कहा जाता है। लू शून की कहानियों के हिन्दी अनुवाद भारत में पढ़े जाते रहे हैं। चीन की सरकार लू शुन के साहित्य को छापने के लिए सदा बाध्य रही। लू शुन की कहानियाँ मैंने कम उम्र में मुंशी प्रेमचंद की कहानियों के साथ ही पढ़ीं।

‘अल्बेयर कामू’ का श्रेष्ठ उपन्यास प्लेग (ला पेस्त) मेरा पसंदीदा है। कामू फ्रांस के महान लेखक और विचारक थे। श्ज़ां पॉल सार्त्र कामू के मित्र थे, सार्त्र भी महान लेखक थे। उन्होंने नोबेल पुरस्कार को सड़े आलुओं की बोरी कहकर ठुकरा दिया था। सार्त्र घोर कम्यूनिस्ट थे और चाहते थे कि कामू भी वही हो जाएँ।

कामू कम्यूनिस्ट तो कभी नहीं बन पाए लेकिन उनके साहित्य में जो आम-जन की पीड़ा की समझ है उसने कामू को अमर कर दिया। आज भी सामान्य रूप से कामू को कम्यूनिस्ट ‘अपना’ कहते हैं।

बड़ी अजीब बात है कि यदि मैं हिन्दू धर्म की प्रशंसा मे चार लाइन लिख दूँ तो मुझे तुरंत हिन्दूवादी, राष्ट्रवादी, हिन्दुत्व का समर्थक या कम्यूनल कहा जाने लगेगा… यदि मैं हिन्दू धर्म की कुछ कुरीतियों या अन्धविश्वासों के ख़िलाफ़ लिखूँ तो मेरे ऊपर सेक्यूलर होने के आरोप लगेंगे।

मुझे लगता है कि जैसे मुझे अपने आप को मनुष्य और भारतीय बताने से पहले ही यह बताना पड़ेगा कि मेरा धर्म, ज़ात और राजनैतिक विचारधारा क्या है…!!!

दिनांक- 20 अप्रैल, 2017

प्रश्न: ऋषि, मुनि, साधु, सन्त और सन्न्यासी; इन शब्दों के क्या अर्थ हैं और ये किसके लिए प्रयुक्त होते हैं।

उत्तर: ‘ऋषि’ वैदिक-संस्कृत भाषा का शब्द है। यह शब्द अपने आप में एक वैदिक परंपरा का भी ज्ञान देता है और स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों को भी बताता है। वैदिक ऋचाओं के रचयिताओं को ऋषि कहा गया है।

ऋषि शब्द पुंलिंग है लेकिन इस शब्द के संबोधन से यह स्पष्ट नहीं होता कि हम किसी स्री ऋषि की बात कर रहे हैं या पुरुष ऋषि की। हम जिस समय की बात कर रहे हैं उस समय स्रीलिंग और पुंलिंग का भेद वैदिक संस्कृत में मनुष्यों के लिए स्पष्टत: विभाजित नहीं था। स्त्रियों को भी ऋषि ही कहा जाता था। ऋषि शब्द चूँकि स्त्री-पुरुष में समान रूप से प्रयुक्त होता था इसलिए इस शब्द की प्राचीनता में कोई संदेह नहीं है।

वैदिक कालीन सभी ऋषि गृहस्थ थे। ऋषि गृह त्यागी अथवा सन्यस्त नहीं थे। ऋषि शब्द किसी भी ऐसे विद्वान के लिए प्रयुक्त होता था जो कि नियमित गुरु-शिष्य अथवा वंशानुगत परंपरानुसार वैदिक ऋचाओं की रचना कर रहा था। कालान्तर में ऋषि शब्द का प्रयोग विस्त्रित अर्थों में प्रयुक्त होने लगा। ऋषि पर क्रोध, अहंकार, ईर्ष्या आदि की कोई रोकटोक नहीं है और न ही कोई विशेष संयम का उल्लेख है।

मुनि शब्द के अर्थ को जानने के लिए पहले तीन शब्दों को समझना होगा। चित्र, मन और तन ये तीन शब्द मन्त्र और तन्त्र से संबंधित हैं। चित्र शब्द के अनेक अर्थ हैं ऋग्वेद में आश्चर्य से देखने के लिए इसका प्रयोग हुआ है। जो उज्जवल है, आकर्षक है और आश्चर्यजनक है; वह चित्र है। इसलिए लगभग सभी सांसारिक वस्तुएँ चित्र में समा जाती हैं।

मन के भी बहुत से अर्थ हैं किंतु मुख्य अर्थ तो बौद्धिक चिंतन से संबंधित ही है। इसलिए ‘मंत्र’ शब्द का जन्म मन से हुआ और मंत्रों के रचयिता मनीषी या मुनि कहलाए। मुनि का भी संन्यासी होना आवश्यक नहीं है। मुनि भी लगभग सभी गृहस्थ हुए हैं। कालान्तर में ऋषि-मुनि दोनों शब्द विद्वानों, मनीषियों और बाद में सन्न्यासियों के लिए भी चलन में आ गया।

तन्त्र शब्द तन से संबंधित है। जिस प्रक्रिया से तन सक्रिय हो वह तंत्र और जिससे मन सक्रिय हो वह मंत्र। मुनि पर क्रोध, अहंकार, ईर्ष्या आदि की कोई रोकटोक नहीं है और न ही कोई विशेष संयम का उल्लेख है। प्राचीन ग्रंथों में ऋषि-मुनियों के झगड़े के और सांसारिक व्यक्ति की तरह ही आचरण करने के अनेक प्रसंग है।

‘साधु’ शब्द किसी भी सकारात्मक साधना से संबंधित है। साधु वह है जो साधना करता है। साधु होने के लिए मनीषी या विद्वान होना आवश्यक नहीं है। साधना कोई भी कर सकता है और किसी सकारात्मक ऊर्जा से संबंधित साधना करने वाला ही साधु है। साधु शब्द अच्छे और बुरे इंसान में भेद करने के लिए भी प्रयुक्त होता है। जिसका कारण भी वही है कि सकारात्मक साधना करने वाला व्यक्ति अच्छा ही माना जाता है।

साधु होने के लिए किसी भी विशेष प्रपंच करने की या त्यागने की कोई आवश्यकता नहीं है। वैसे भी साधु शब्द का अर्थ किसी कार्य को पूर्ण रूप से संपन्न करने वाला होता है।

‘सन्त’ शब्द संस्कृत का नहीं है बल्कि प्राकृत का है। संस्कृत के एक शब्द ‘शान्त’ से बिगड़ कर बना है। शान्त से सान्त हुआ और सान्त से सन्त। यह पंजाबी क्षेत्र के प्रभाव का शब्द है। वास्तव में इस शब्द में ही इसका स्वभाव भी निहित है। सन्त को शान्त ही होना चाहिए। सहजता शान्त स्वभाव में ही बसती है। यह शब्द उस व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता है जो सहज है। सहज प्रवृत्ति को ही हम सन्त प्रवृत्ति भी कहते हैं। सन्त की साधना सहजता के प्रति होती है। वास्तव में ‘सन्त’ होना मनुष्यता की सर्वोपरि स्थिति है।

सन्त होना गुण भी है और योग्यता भी। अर्थात यह स्वयंभू भी है और अर्जन योग्य भी। कोई भी ऋषि,मुनि, साधु या सन्न्यासी यदि सन्त भी होता है तो यह परम पद की स्थिति बनती है। सन्त को सभ्यता से नहीं बल्कि भद्रता से सरोकार होता है। भद्रता वह सभ्यता है जो परम एकान्त में भी बरती जाती है।

‘सन्न्यासी’ वह है जो त्याग करता है। त्यागी ही सन्न्यासी है। वैदिक काल या धर्म में किसी सन्न्यासी का उल्लेख नहीं है। सन्न्यास वास्तव में प्राचीन हिन्दू धर्म की क्रिया या स्थिति नहीं है। सन्न्यास का प्रचलन तो जैन धर्म और बौद्ध धर्म के प्रकाशन के बाद ही हुआ। हिन्दू धर्म में आदि शंकराचार्य सबसे प्रसिद्ध सन्न्यासी हुए। जिन्हें कुछ विद्वानों ने प्रच्छन्न बुद्द भी कहा।

अादि शंकराचार्य के बाद तो सन्न्यासी बनने का प्रचलन ज़ोर पकड़ गया और सन्न्यासियों की श्रृंखला हिन्दू धर्म में भी प्रारम्भ हो गई। सन्न्यासी यदि सन्त नहीं है तो उसके सन्न्यास का कोई अर्थ नहीं है।

दिनांक- 21 मार्च, 2017

बहुत पुरानी बात है कि एक राज्य के राजा सुकान्त देव का जीवन, राज-काज के दबाव के कारण अत्यधिक तनाव ग्रस्त हो गया। राज्य के मंत्री प्रबुद्धगुप्त ने राजा को तनाव मुक्ति के लिए ध्यान करने की सलाह दी। ध्यान-योग के अनेक शिक्षक बुलाए गए लेकिन राजा, ध्यान धारण नहीं कर पाए। यह अत्यन्त चिन्ता का विषय बन गया। मंत्री ने राजा से कहा- “राजन! अब अापको ध्यान के लिए स्वामी परमानंद से संपर्क करना होगा, तभी आपको ध्यान धरने में सफलता मिलेगी।”
“वे कहाँ निवास करते हैं, उनको सम्मान सहित तुरंत बुलवाया जाय।” राजा ने कहा।
मंत्री ने आशंका जताई” वे हमारे राज्य की सीमा के निकट एक छोटे से गाँव में आश्रम बनाकर रहते हैं… स्वामीजी यहाँ नहीं आएँगे, उनके पास जाना पड़ेगा”
राजा पूरे लाव-लश्कर के साथ गाँव की ओर चल दिए। राजा ने सबको गाँव से बाहर ही रोक दिया और अपने मंत्री और दो सिपाही लेकर स्वामीजी के आश्रम की ओर चल दिए। रास्ते में गाँव की जनता बहुत ख़ुशहाल मिली, लोग बहुत प्रसन्न मुद्रा में थे, चारों ओर साफ़ सफ़ाई थी। राजा सुकान्त देव और मंत्री प्रबुद्धगुप्त को बहुत अच्छा लगा और वह तेज़ क़दमों से आश्रम की ओर बढ़ने लगे। जब आश्रम नज़दीक आता जा रहा था तो कौओं की काँव-काँव और कुत्तों के भोंकने आवाज़ें बढ़ती जा रही थी जिससे राजा और मंत्री आश्चर्य में पड़ गए।

आश्रम में पहुँच कर देखा तो छोटे से आश्रम के बीच एक फूस की कुटिया थी जिसके बाहर स्वामीजी बैठे कुत्तों को रोटी खिला रहे थे और साथ ही साथ कौवे और भिन्न प्रकार की चिड़ियाओं को भी दाना चुगा रहे थे। आश्रम में केवल एक महात्मा और थे जो स्वामीजी के शिष्य थे।

राजा और मंत्री यह सब देखकर दंग रह गए और स्वामी जी को प्रणाम करने के बाद उनके शिष्य के इशारे से एक चटाई पर धरती में ही बैठ गए। स्वामीजी भी राजा के सम्मुख चटाई पर ही बैठ गए।
राजा ने कहा” महाराज जी! मैं आपके लिए बहुत सुविधाजनक आश्रम बनवाए देता हूँ जहाँ ये शोर करने वाले जीव-जन्तुओं से आपको छुटकारा मिल जाएगा और आपके ध्यान धरने में कोई असुविधा नहीं होगी। यदि आप चाहेंगे तो गाँव से दूर कुत्तों और चिड़ियों के लिए भी एक बाड़ा बनवा दिया जाएगा और इनके भोजन का प्रबंध भी करा दिया जाएगा।”

स्वामी जी मुस्कुरा कर बोले” राजन! आपने मेरे लिए इतना सोचा यह आपकी बड़ी कृपा है किन्तु ये कुत्ते और कौए मुझसे पहले यहाँ नहीं थे। इन्हें तो मैंने ही इकट्ठा किया है। इनके कोलाहल और शोर-ग़ुल में ही तो ध्यान धारण करने की साधना होती है। ध्यान धरने के लिए किसी स्थान-विशेष की आवश्यकता नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि किसी शांत स्थान पर ही ध्यान धरा जाता हो। ध्यान धरने से भीतरी शांति मिलती है जिस पर बाहर की अशांति को कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। मैं भी पहले ध्यान धरने के लिए कोई शांत स्थान ढूंढा करता था। जब मुझे ध्यान की वास्तविकता का ज्ञान हुआ तो मैंने कोलाहल में ही ध्यान का अभ्यास किया जो कि सर्वश्रेष्ठ है।”
स्वामीजी ने आगे कहा-
“राजन ध्यान तो युद्ध के मैदान में भी किया जा सकता है। जब युद्ध होता है तो आस-पास के गाँवों में लोग सामान्य दिनचर्या के अनुसार ही गहरी नींद में सो जाते हैं। पड़ोसी देशों में आपस में गोलाबारी होती रहती है और सीमान्त गाँवों में रहने वाली जनता चैन से सो लेती है। गहरी नींद में सोया हुआ बच्चा बंदूक़ की आवाज़ से भी नहीं जागता। ध्यान की स्थिति तो निद्रा से भी अधिक गहरी होती है। इसलिए ध्यान के लिए कोई विशेष प्रपंच अथवा सुविधा की आवश्यकता नहीं है। ध्यान तो प्रकृति द्वारा प्रदत्त है, यह मनुष्य ने नहीं बनाया। हाँ इतना अवश्य है कि मनुष्य यदि अपनी इच्छानुसार ध्यान में जाना चाहे तो उसे अभ्यास करना पड़ता है।”

स्वामीजी की बातों से राजा सुकान्त देव की सारी जिज्ञासाओं का समाधान हो गया और वे अपने राजधानी लौट गए। इसके बाद राजा को कभी तनाव नहीं हुआ।

दिनांक- 20 मार्च, 2017

कुछ लोग रिश्तों को जीते नहीं
बस निबाहते हैं।
ज़ाहिर है इसके अद्भुत आनंद से वंचित रह जाते हैं।

बहुत से तो बस रिश्तों को ढोते हैं
और विधाता को दोष देकर रोते हैं।

कुछ ऐसे भी हैं
जो रिश्तों को तोड़ने की जुगत लगाते हैं।
इस प्रयास में कभी-कभी अकेले ही रह जाते हैं।

परम अानंदित तो वे हैं जो
रिश्तों को जी भर के जीते हैं
और फिर
शानदार यादों के मंज़र सजाते हैं।

तो आइये रिश्तों को जी भर कर जीएँ
और इस रस भरे आनंद को पीएँ।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 5 फरवरी, 2017

संस्कार, मान्यताएँ और आस्था एक बार बन जाती हैं तो उनका टूटना बहुत मुश्किल होता है और कभी-कभी तो नामुमकिन। ये हमारी आदत भी बन जाती हैं और जब भी हम इनसे दूर हटने की कोशिश करते हैं, हमको अटपटा सा महसूस होता है।

मेरे बचपन से ही हमारे घर पर प्रत्येक शनिवार को एक पंडित जी आते थे। जिन्हें कटोरी में सरसों का तेल एक लोहे की कील और सिक्का डालकर दिया जाता था। उस कटोरी में हम सब अपना चेहरा भी देखा करते थे। पंडित जी बहुत भले और सरल स्वभाव के थे। “चौधरी साहब के आनंद हों बहना, पौत्र ख़ुश रहें” पंडित जी की यह आवाज़ आज भी मेरे कानों में गूंजती है। उनका क़द ऊँचा था (कुछ बचपन की वजह से लगता भी था) छरहरा बदन था और गांधी टोपी पहनते थे।

जब नया संवतसर आता था तो वे संवत सुनाने आते थे। संवत सुनाने में वे बताते थे उस वर्ष में कितनी बारिश होगी कितनी ठंड पड़ेगी और कितनी लू चलेंगी। ज़ोरदार बात ये है कि पिताजी भी संवत सुना करते थे। “ इस बार संवत माली के घर में है बहना, तो बारिश ज़्यादा होगी।” पंडित जी बताते…। इसके साथ ही वर्ष में कितना धर्म कितना अधर्म और कितना पाप कितना पुण्य है यह भी बताते थे। वे कहते “इस संवत में 14 बिस्से पाप और 6 बिस्से पुण्य है। याने पाप ज़्यादा और पुण्य कम है।” इसका अर्थ समझने के लिए पहले उस ज़माने की गणना को समझना होगा। बिस्सा (शुद्ध रूप ‘बिस्वा’) का अर्थ है एक बीघा खेत का बीसवाँ भाग याने कि ‘सौ प्रतिशत’ कहने के लिए कहा जाता था “बात तो पूरे 20 बिस्से सही है” इसी का दूसरा रूप होता था “बात तो पूरे सोलह आने सही है।” उस समय एक रुपये में सोलह आने होते थे। कॅरेट को भी प्रतिशत के लिए इस्तेमाल किया जाता था और आज भी कहते हैं “बात तो 24 कॅरेट सही है”।

पंडित जी को स्वर्गवासी हुए बीसियों साल हो गए। उनके बाद उनका दामाद आने लगा और अब उनका धेवता (बेटी का बेटा) आता है। ये लोग कभी संवत नहीं सुना पाए क्योंकि इन्हें जानकारी ही नहीं है। अब फिर नया संवत आने वाला है, बहुत मन करता है कि कोई आए और संवत सुनाए। असल बात यह है कि मैं बिल्कुल भी यह नहीं मानता कि शनिदेव किसी का भला-बुरा कर सकते हैं लेकिन बचपन के संस्कार अभी तक चले आ रहे हैं और उन्हें निबाहने में आनंद भी आता है।

दिनांक- 18 जनवरी, 2017

आज ही लिखी कुछ पंक्तियाँ आपकी सेवा में मित्रो!

"क्योंकि ये चुनाव है"

वादों के पुल पर
उम्मीदों के कारवाँ
ज़िन्दगी की कश्मकश की
उफनती नदी को
पार करने की कोशिश
करते नज़र आएँगे

मगर अफ़सोस
सब दिल का बहलाव है
क्योंकि ये चुनाव है

अाँखों की झाइयों से
कंपती उँगलियों की
ख़ाली अँजली को ताकते
उसके भरने की चाह में
नारों से गुँजाते तंबुओं
में अपने घर का सपना देख आएँगे

मगर अफ़सोस
सब दिल का बहलाव है
क्योंकि ये चुनाव है

झूठ के लबादों से लदे
ओढ़े नक़ाब
दिल फ़रेब वफ़ादारी का
शोर मचाते क़ाफ़िलों
से बिखेरते जलवा अपना
करिश्माई ज़ुबान में
अपना भाषण सुनाएँगे
कि भई हम जनता के लिए
जनता की सरकार बनाएँगे

मगर अफ़सोस
सब दिल का बहलाव है
क्योंकि ये चुनाव है

न रिश्वत बदलेगी
न चौथ
सरकारी अस्पताल चलेंगे
बिना डॉक्टर-दवाई
स्कूल चलेंगे बिना पढ़ाई
जनता रहेगी चुप और गुमसुम
कुछ भी बदलेगा नहीं
सिर्फ़ चेहरे बदलते जाएँगे
शायद नए चेहरे कुछ तो बदल पाएँगे?

मगर अफ़सोस
सब दिल का बहलाव है
क्योंकि ये चुनाव है

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 8 जनवरी, 2017

सुरक्षा और संतुष्टि की स्थिति प्राप्त करने के लिए बहुत ज़्यादा पैसा कमाने की इच्छा हो जाती है लेकिन होता कुछ और ही है। बहुत सारा पैसा कमाने के बाद असुरक्षा और असंतुष्टि का भाव और ज़्यादा बढ़ जाता है।

दिनांक- 6 जनवरी, 2017

क़ामयाबी कोई पंछी नहीं है जिसे पिंजरे में क़ैद करके रख लिया जाय। क़ामयाबी तो उड़ती पतंग है जिसे कटने का डर बना रहता है। कभी ‘ढील देकर’ से तो कभी ‘डोर खींच कर’ से इसे आकाश में थामे रहना पड़ता है। पेच लड़ाना भी हर हाल में आना चाहिए वरना हाथ में सिर्फ़ डोर ही रह जाती है।

दिनांक- 3 जनवरी, 2017

नया साल आ गया अब कुछ नसीहतें देदी जायें… न न न आपको नहीं ख़ुद को ही। मतलब ये कि नए साल में क्या-क्या करना है और क्या-क्या नहीं करना है।
जैसे कि-

कोई डेढ़ सौ बार सुना सुनाया हाथी-चींटी वाला चुटकुला सुना रहा हो तब भी पूरे चुटकुले को पूरे धैर्य से सुनना है जिससे कि सुनाने वाला ‘हर्ट’ न हो। सुनने के बाद हँसी न भी आए तब भी मुस्कुराना ज़रूर है या फिर ‘नाइस जोक’ कह देना है।

किसी से मिलने पर उसके कपड़ों की तारीफ़ करनी है। कपड़े फटीचर हों तो ये ज़रूर कहना है कि ‘बडे़ फ़्रॅश लग रहे हो’। अगर चार दिन की दाढ़ी बढ़ रही हो तो कहना है ‘वैसे दाढ़ी भी तुम पर सूट करती है, थोड़ा अलग हट के लग रहे हो’ और हाँ, अच्छा कहने के लिए ‘कूल’ कहना है।

कोई छींके तो ‘गॉड ब्लॅस यू’ या सिर्फ़ ‘गॉड ब्लॅस’ कहना है, भले ही वो हमारे मुँह पर ही छींके। हाँ उसके छींकने से जो बौछार हमारे ऊपर आएगी उसे उसके सामने ही नहीं पौंछना है।इधर-उधर जा कर पौंछना है।

किसी ग़लती पर या हल्की फुल्की चोट पर ‘ओह’ या ‘अरे’ नहीं कहना है बल्कि ‘आउच’ कहना है। यदि और अधिक सु-संस्कृत होना है तो
फिर ’ऊप्स’ कहना है। ये भी ध्यान रहे कि’ओ माइ गॉड’ अादि का उपयोग भी समय-समय पर करना है। ‘हे भगवान’ या ‘हे राम’ कहेंगे तो गँवार माने जाएँगे।

बहुत ज़्यादा सड़ी हुई बदबू को बदबू न कहकर ‘फ़नी स्मॅल’ कहना है। ख़ुद चाहे तीन दिन तक न नहाएँ लेकिन परफ़्यूम से पसीने की गंध को दबाए रखना है।

सिनेमाहॉल में हँसी की बात पर भी ज़ोर से हँसना नहीं है। सिर्फ़ ‘आइ लाइक इट’ कह देना है। फ़िल्में भी सिर्फ़ हॉलीवुड की देखनी हैं (भले ही अग्रेज़ी समझ में न आए)। चार लोगों में बैठकर हिन्दी फ़िल्मों का मज़ाक़ उड़ाना है। गाने भी अंग्रेज़ी सुनने हैं।

रिक्शे-ऑटो वालों तक से अंग्रेज़ी में बात करनी है या फिर हर एक वाक्य में कम से कम चार शब्द अंग्रेज़ी के बोलने हैं। जैसे कि "भैया प्लीज़ मुझे ना वो नॅक्स्ट क्रॉसिंग पे ड्राप कर दोगे क्या? वोई रॅड बिल्डिंग के जस्ट बग़ल में… अॅक्चुली मैं लेट हो रहा हूँ जॉब के लिए”।

खाना खाने के लिए किसी दाल-रोटी वाले भोजनालय की बजाय किसी इटॅलियन, मॅक्सिकन या जापानी रेस्त्रां में जाना है। वहाँ के खाने के अजीब-अजीब नामों को याद करना है जैसे ब्लॅकबीन साल्सा, पास्ता, टॉरटिला सूप, सुशी आदि। खाना कितना भी बेस्वाद हो (वो तो होगा ही) लेकिन उसे बहुत तारीफ़ करते हुए खाना है। यम्मी-यम्मी भी कहते रहना है।

इतना सब करके देखा जाय, बाक़ी बाद में।
इस तरह नया साल भी आराम से कट जाएगा।
अापको नववर्ष की शुभकामनाएँ।






शब्दार्थ

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