आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
- दिनांक- 5 फरवरी, 2017
संस्कार, मान्यताएँ और आस्था एक बार बन जाती हैं तो उनका टूटना बहुत मुश्किल होता है और कभी-कभी तो नामुमकिन। ये हमारी आदत भी बन जाती हैं और जब भी हम इनसे दूर हटने की कोशिश करते हैं, हमको अटपटा सा महसूस होता है।
मेरे बचपन से ही हमारे घर पर प्रत्येक शनिवार को एक पंडित जी आते थे। जिन्हें कटोरी में सरसों का तेल एक लोहे की कील और सिक्का डालकर दिया जाता था। उस कटोरी में हम सब अपना चेहरा भी देखा करते थे। पंडित जी बहुत भले और सरल स्वभाव के थे। “चौधरी साहब के आनंद हों बहना, पौत्र ख़ुश रहें” पंडित जी की यह आवाज़ आज भी मेरे कानों में गूंजती है। उनका क़द ऊँचा था (कुछ बचपन की वजह से लगता भी था) छरहरा बदन था और गांधी टोपी पहनते थे।
जब नया संवतसर आता था तो वे संवत सुनाने आते थे। संवत सुनाने में वे बताते थे उस वर्ष में कितनी बारिश होगी कितनी ठंड पड़ेगी और कितनी लू चलेंगी। ज़ोरदार बात ये है कि पिताजी भी संवत सुना करते थे। “ इस बार संवत माली के घर में है बहना, तो बारिश ज़्यादा होगी।” पंडित जी बताते…। इसके साथ ही वर्ष में कितना धर्म कितना अधर्म और कितना पाप कितना पुण्य है यह भी बताते थे। वे कहते “इस संवत में 14 बिस्से पाप और 6 बिस्से पुण्य है। याने पाप ज़्यादा और पुण्य कम है।” इसका अर्थ समझने के लिए पहले उस ज़माने की गणना को समझना होगा। बिस्सा (शुद्ध रूप ‘बिस्वा’) का अर्थ है एक बीघा खेत का बीसवाँ भाग याने कि ‘सौ प्रतिशत’ कहने के लिए कहा जाता था “बात तो पूरे 20 बिस्से सही है” इसी का दूसरा रूप होता था “बात तो पूरे सोलह आने सही है।” उस समय एक रुपये में सोलह आने होते थे। कॅरेट को भी प्रतिशत के लिए इस्तेमाल किया जाता था और आज भी कहते हैं “बात तो 24 कॅरेट सही है”।
पंडित जी को स्वर्गवासी हुए बीसियों साल हो गए। उनके बाद उनका दामाद आने लगा और अब उनका धेवता (बेटी का बेटा) आता है। ये लोग कभी संवत नहीं सुना पाए क्योंकि इन्हें जानकारी ही नहीं है। अब फिर नया संवत आने वाला है, बहुत मन करता है कि कोई आए और संवत सुनाए। असल बात यह है कि मैं बिल्कुल भी यह नहीं मानता कि शनिदेव किसी का भला-बुरा कर सकते हैं लेकिन बचपन के संस्कार अभी तक चले आ रहे हैं और उन्हें निबाहने में आनंद भी आता है।
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- दिनांक- 18 जनवरी, 2017
आज ही लिखी कुछ पंक्तियाँ आपकी सेवा में मित्रो!
"क्योंकि ये चुनाव है"
वादों के पुल पर
उम्मीदों के कारवाँ
ज़िन्दगी की कश्मकश की
उफनती नदी को
पार करने की कोशिश
करते नज़र आएँगे
मगर अफ़सोस
सब दिल का बहलाव है
क्योंकि ये चुनाव है
अाँखों की झाइयों से
कंपती उँगलियों की
ख़ाली अँजली को ताकते
उसके भरने की चाह में
नारों से गुँजाते तंबुओं
में अपने घर का सपना देख आएँगे
मगर अफ़सोस
सब दिल का बहलाव है
क्योंकि ये चुनाव है
झूठ के लबादों से लदे
ओढ़े नक़ाब
दिल फ़रेब वफ़ादारी का
शोर मचाते क़ाफ़िलों
से बिखेरते जलवा अपना
करिश्माई ज़ुबान में
अपना भाषण सुनाएँगे
कि भई हम जनता के लिए
जनता की सरकार बनाएँगे
मगर अफ़सोस
सब दिल का बहलाव है
क्योंकि ये चुनाव है
न रिश्वत बदलेगी
न चौथ
सरकारी अस्पताल चलेंगे
बिना डॉक्टर-दवाई
स्कूल चलेंगे बिना पढ़ाई
जनता रहेगी चुप और गुमसुम
कुछ भी बदलेगा नहीं
सिर्फ़ चेहरे बदलते जाएँगे
शायद नए चेहरे कुछ तो बदल पाएँगे?
मगर अफ़सोस
सब दिल का बहलाव है
क्योंकि ये चुनाव है
© आदित्य चौधरी
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- दिनांक- 8 जनवरी, 2017
सुरक्षा और संतुष्टि की स्थिति प्राप्त करने के लिए बहुत ज़्यादा पैसा कमाने की इच्छा हो जाती है लेकिन होता कुछ और ही है।
बहुत सारा पैसा कमाने के बाद असुरक्षा और असंतुष्टि का भाव और ज़्यादा बढ़ जाता है।
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- दिनांक- 6 जनवरी, 2017
क़ामयाबी कोई पंछी नहीं है जिसे पिंजरे में क़ैद करके रख लिया जाय। क़ामयाबी तो उड़ती पतंग है जिसे कटने का डर बना रहता है। कभी ‘ढील देकर’ से तो कभी ‘डोर खींच कर’ से इसे आकाश में थामे रहना पड़ता है। पेच लड़ाना भी हर हाल में आना चाहिए वरना हाथ में सिर्फ़ डोर ही रह जाती है।
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- दिनांक- 3 जनवरी, 2017
नया साल आ गया अब कुछ नसीहतें देदी जायें… न न न आपको नहीं ख़ुद को ही। मतलब ये कि नए साल में क्या-क्या करना है और क्या-क्या नहीं करना है।
जैसे कि-
कोई डेढ़ सौ बार सुना सुनाया हाथी-चींटी वाला चुटकुला सुना रहा हो तब भी पूरे चुटकुले को पूरे धैर्य से सुनना है जिससे कि सुनाने वाला ‘हर्ट’ न हो। सुनने के बाद हँसी न भी आए तब भी मुस्कुराना ज़रूर है या फिर ‘नाइस जोक’ कह देना है।
किसी से मिलने पर उसके कपड़ों की तारीफ़ करनी है। कपड़े फटीचर हों तो ये ज़रूर कहना है कि ‘बडे़ फ़्रॅश लग रहे हो’। अगर चार दिन की दाढ़ी बढ़ रही हो तो कहना है ‘वैसे दाढ़ी भी तुम पर सूट करती है, थोड़ा अलग हट के लग रहे हो’ और हाँ, अच्छा कहने के लिए ‘कूल’ कहना है।
कोई छींके तो ‘गॉड ब्लॅस यू’ या सिर्फ़ ‘गॉड ब्लॅस’ कहना है, भले ही वो हमारे मुँह पर ही छींके। हाँ उसके छींकने से जो बौछार हमारे ऊपर आएगी उसे उसके सामने ही नहीं पौंछना है।इधर-उधर जा कर पौंछना है।
किसी ग़लती पर या हल्की फुल्की चोट पर ‘ओह’ या ‘अरे’ नहीं कहना है बल्कि ‘आउच’ कहना है। यदि और अधिक सु-संस्कृत होना है तो
फिर ’ऊप्स’ कहना है। ये भी ध्यान रहे कि’ओ माइ गॉड’ अादि का उपयोग भी समय-समय पर करना है। ‘हे भगवान’ या ‘हे राम’ कहेंगे तो गँवार माने जाएँगे।
बहुत ज़्यादा सड़ी हुई बदबू को बदबू न कहकर ‘फ़नी स्मॅल’ कहना है। ख़ुद चाहे तीन दिन तक न नहाएँ लेकिन परफ़्यूम से पसीने की गंध को दबाए रखना है।
सिनेमाहॉल में हँसी की बात पर भी ज़ोर से हँसना नहीं है। सिर्फ़ ‘आइ लाइक इट’ कह देना है। फ़िल्में भी सिर्फ़ हॉलीवुड की देखनी हैं (भले ही अग्रेज़ी समझ में न आए)। चार लोगों में बैठकर हिन्दी फ़िल्मों का मज़ाक़ उड़ाना है। गाने भी अंग्रेज़ी सुनने हैं।
रिक्शे-ऑटो वालों तक से अंग्रेज़ी में बात करनी है या फिर हर एक वाक्य में कम से कम चार शब्द अंग्रेज़ी के बोलने हैं। जैसे कि "भैया प्लीज़ मुझे ना वो नॅक्स्ट क्रॉसिंग पे ड्राप कर दोगे क्या? वोई रॅड बिल्डिंग के जस्ट बग़ल में… अॅक्चुली मैं लेट हो रहा हूँ जॉब के लिए”।
खाना खाने के लिए किसी दाल-रोटी वाले भोजनालय की बजाय किसी इटॅलियन, मॅक्सिकन या जापानी रेस्त्रां में जाना है। वहाँ के खाने के अजीब-अजीब नामों को याद करना है जैसे ब्लॅकबीन साल्सा, पास्ता, टॉरटिला सूप, सुशी आदि। खाना कितना भी बेस्वाद हो (वो तो होगा ही) लेकिन उसे बहुत तारीफ़ करते हुए खाना है। यम्मी-यम्मी भी कहते रहना है।
इतना सब करके देखा जाय, बाक़ी बाद में।
इस तरह नया साल भी आराम से कट जाएगा।
अापको नववर्ष की शुभकामनाएँ।
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शब्दार्थ
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