यह लेख मैंने 23 फ़रवरी 2012 को लिखा क्योंकि 23 फ़रवरी को ही इस लेख का लिखा जाना शायद सबसे ज़्यादा ज़रूरी था। 23 फ़रवरी का दिन उन लोगों के लिए सम्भवत: सबसे महत्त्वपूर्ण है जो किताबों में रुचि रखते हैं, अध्ययन करते हैं और उसके अलावा भी शायद ही कोई ऐसा हो जिसके जीवन में यह दिन सबसे महत्त्वपूर्ण ना हो। क्या हुआ था इस दिन?
1455 में इस दिन गुटिनबर्ग की पहली किताब छपकर दुनिया के सामने आयी थी, जो सचमुच ही इधर उधर जा सकती थी। लोग उसे देख सकते थे, पढ़ सकते थे और उसके पन्ने पलट सकते थे। इस किताब को 'गुटिनबर्ग बाइबिल' कहा गया। सब जानते हैं गुटिनबर्ग ने 'छपाई का आविष्कार' किया था। ऐसा नहीं है कि छ्पाई पहले नहीं होती थी, होती थी लेकिन किताब के रूप में शुरुआत सबसे पहले गुटिनबर्ग ने की और गुटिनबर्ग का नाम इस 'सहस्त्राब्दी के महानतम लोगों की सूची में पहला' है। इस तरह की कोई सर्वमान्य सूची तो कभी नहीं बनी लेकिन फिर भी प्रतिशत के हिसाब से अधिकतम लोग इसी सूची को मानते हैं। इस सूची में गुटिनबर्ग को 'मैन ऑफ़ द मिलेनियम' या 'सहस्त्राब्दी पुरुष' माना गया है। हम सब बहुत आभारी हैं गुटिनबर्ग के कि उसने यह विलक्षण खोज की... 'छापाख़ाना'। दु:ख की बात ये है कि गुटिनबर्ग का जीवन अभावों में गुज़रा उसके सहयोगी ने ही पूरा पैसा कमाया।
पहली प्रिंटिंग प्रेस शुरू हुई और गुटिनबर्ग के कारण दुनिया के सामने किताबें आ पाईं। किताबें आने से पहले लेखन का कुछ ना कुछ काम चलता रहता था, जो हाथों से लिखा जाता था, कभी भुर्जपत्रों पर लिखा गया, तो कभी पत्थर पर महीन छैनी-हथौड़े से उकेरा गया। दुनिया में लेखन सम्बंधी अनेक प्रयोग होते रहे। 'बोली' को लिखने के लिए लिपि और वर्तनी की आवश्यकता हुई और इस तरह 'भाषा' बन गई। भाषा और लिपि अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरह की बनीं। भारत में भी व्याकरण और लिपि का कार्य चल रहा था जो सम्भवत: 500 ईसा पूर्व में पाणिनी द्वारा किया गया माना जाता है। यह समय गौतम बुद्ध के आसपास का ही रहा होगा और सिकंदर के पंजाब पर हमले से पहले का।
इतिहासकारों के साथ-साथ हम भी यह मानते हैं कि विश्व के एक हिस्से, देश, कुल, झुंड, या क़बीले में क्या हो रहा था, वह सही रूप से जानने के लिए उस समय पृथ्वी के दूसरे हिस्सों में क्या घट रहा था? यह जानना बहुत ज़रूरी है। पं. जवाहरलाल नेहरू ने लिखा भी है कि अगर हम किसी एक देश का इतिहास जानना चाहें तो यह जानना बहुत ज़रूरी है कि उस कालक्रम में दूसरे देशों में क्या घट रहा था, अगर हम यह नहीं जानेंगे तो अपने देश का या जिस देश का इतिहास हम जानना चाहते हैं, सही रूप से नहीं जान पायेंगे। भगवतशरण उपाध्याय जी और दामोदर धर्मानंद कोसंबी जी के दृष्टिकोण से भी विश्व की सभी संस्कृतियाँ प्रारम्भ से ही एक दूसरे से बहुत गहरे में मिली-जुली हैं और कोई एक अलग प्रकार का, एक अलग क्षेत्र में, कोई विकास हो पाना सम्भव नहीं है।
'इजिप्ट' यानी मिस्र में बिल्कुल ही दूसरे तरीक़े का कार्य चल रहा था। मिस्री फ़राउन (राजा), मंत्री, धर्माधिकारी या प्रमुख वैद्य के पास एक व्यक्ति बैठा रहता था और वह मुख्य बातों को बड़े सलीक़े से सहेजता था। मिस्र में लेखन 'पेपिरस' पर होने लगा था। पेपिरस पौधे से बनाया गया एक प्रकार का काग़ज़ होता था जो मिस्र के दलदली इलाक़ों में पाया जाता था। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि संस्कृत में काग़ज़ के लिए कोई शब्द नहीं है, हाँ पालि में अवश्य 'कागद' शब्द मिलता है। कालांतर में अंग्रेज़ी में प्रयुक्त होने वाला शब्द 'पेपर' पेपिरस या यूनानी शब्द 'पिप्युरस' से ही बना। मिस्र की भाषा को 'हायरोग्लिफ़िक' कहा गया है जिसका अर्थ 'पवित्र' (हायरो) लेखन (ग्लिफ़िक) है।
इसमें भी एक अजीब रोचक संयोग है कि जिस समय मिस्र में पिरामिड जैसी आश्चर्यजनक इमारत बनी, वहाँ लिपि की वर्णमाला अति दरिद्र थी। 3 हज़ार वर्षों में 24 अक्षरों की वर्णमाला में केवल 'व्यंजन' ही थे 'स्वर' एक भी नहीं। बिना स्वरों के केवल व्यंजन लिख कर ही लोगों के सम्बंध में लिखा जाता था। उसे वो कैसे बाद में पढ़ते थे और किस तरीक़े से उसका उच्चारण होता था, यह बात रहस्य ही बनी रही। सीधे संक्षिप्त रूप में कहें तो 'वर्तनी' लापता थी और सरल करें तो 'मात्राएँ' नहीं थीं। स्वर न होने के कारण शब्द को किस तरीक़े से बोला जाएगा यह जटिल और अस्पष्ट था। स्वरों के लिए अलग से प्रावधान थे, जो बेहद अवैज्ञानिक थे, जबकि भारत में पाणिनी रचित 'अष्टाध्यायी' का व्याकरण अपना पूर्ण परिष्कृत रूप ले चुका था। वर्तनी की इस कमी के चलते मिस्री लिपि को पढ़ना ठीक उसी तरह मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था जैसे कि अमिताभ बच्चन की 'डॉन' फ़िल्म में 'डॉन' को पकड़ना लेकिन बाद में ये लिपि पढ़ ली गई। 'रॉसेटा अभिलेख' और फ़्रांसीसी विद्वान 'शाँपोल्यों' के कारण यह कार्य सफल हो गया।
मिस्र में राजवंशों की शुरुआत आज से 5 हज़ार वर्ष पहले ही हो गयी थी। मशहूर फ़राउन रॅमसी ( ये वही रॅमसी या रामासेस है जो मूसा के समय में था) का नाम पढ़ने में भी यही कठिनाई सामने आयी। कॉप्टिक भाषा (मिस्री ईसाइयों की भाषा) में इसका अर्थ है- रे या रा (सूर्य) का म-स (बेटा) अर्थात सूर्य का पुत्र। सोचने वाली बात ये है कि भगवान 'राम' का नाम भी इसी प्रकार का है और वे भी सूर्य वंशी ही हैं। अगर ये महज़ एक इत्तफ़ाक़ है तो बेहद दिलचस्प इत्तफ़ाक़ है। नाम कोई भी रहा हो रेमसी, इमहोतेप या टॉलेमी; स्वरों के बिना उन्हें सही पढ़ना बहुत कठिन था। मशहूर रानी क्लिओपात्रा के नाम में भी दिक़्क़त आयी उसे 'क ल प त र' ही पढ़ा जाता रहा जब तक कि स्वरों की गुत्थी नहीं सुलझी। 'क्लिओपात्रा' कोई नाम नहीं बल्कि रानी की उपाधि थी जिस क्लिओपात्रा को हम-आप जानते हैं वह सातवीं क्लिओपात्रा थी। उस समय मिस्र के राजाओं की उपाधि 'टॉलेमी' हुआ करती थी। उस समय भारत में भी उपाधियाँ चल रही थीं जिन्हें व्यक्ति समझ लिया जाता है जैसे व्यास, नारद, वशिष्ठ आदि।
दिनांक- 15 अप्रॅल, 2015
श्रीमद्भगवद्गीता
गीता अध्याय-4 श्लोक-18
कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य: ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत् ॥
शब्दार्थ:-
______
य: = जो पुरुष; कर्मणि = कर्म में अर्थात् अहंकार हित की हुई संपूर्ण चेष्टाओं में अकर्म अर्थात्; अकर्म =अकर्म अर्थात् वास्तव में उनका न होनापना; पश्येत् = देखे; च =और; य: = जो पुरुष; अकर्मणि = अज्ञानी पुरुष द्वारा किये हुए संपूर्ण क्रियाओं के त्याग में (भी); कर्म = त्यागरूप क्रिया को देखे; स: = वह पुरुष: मनुष्येषु = मनुष्यों में; युक्त: = योगी; कृत्स्त्रकर्मकृत् = संपूर्ण कर्मों का करने वाला है।
______
जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी समस्त कर्मों को करने वाला है
क्या है कर्म और क्या है अकर्म ? ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई व्यक्ति कर्म को अकर्म समझ ले और अकर्म को कर्म?
एक संस्मरण देखिए-
संत विनोबा भावे ने महात्मा गांधी के आश्रम में प्रवेष लिया। गांधी जी ने विनोबा जी को शौचालय की सफ़ाई पर लगा दिया। कुछ दिन बीते, गांधीजी प्रात:काल में नदी के किनारे से गुज़र रहे थे। विनोबा जी नदी में मंत्रोच्चार के साथ स्नान कर रहे थे। गांधीजी आश्चर्य से भर उठे। उन्होंने देखा कि कैसे विनोबा जैसा विद्वान व्यक्ति शौचालय साफ़ करने के कार्य को करने से पहले स्नान-ध्यान करके अपना कार्य प्रारम्भ करने के उपक्रम में था।
ज़रा सोचिए विनोबा जी जैसे व्यक्ति के बारे में, जो पहले नहा कर शौचालय साफ़ करने जाते फिर उसके बाद दोबारा नहाते और फिर भोजन आदि ग्रहण करते। विनोबा जी ने इस अकर्म को भी कर्म की भांति किया।
अब आइये 'कर्म में अकर्म' को देखने पर विचार करें।
श्रीराम चंद्र को राजगद्दी मिलने वाली थी तभी पिता की सूचना मिली कि वन को जाना है तो तुरंत राजगद्दी का विचार त्याग कर वन को चल दिए। श्रीराम का कर्म वन को जाना नहीं था उनका कर्म तो राजा बनकर अयोद्धा का राज-काज संभालना था लेकिन वे सहज भाव से सबकुछ त्याग कर वन को चले गए। उन्होंने वन जाने के अकर्म में ही कर्म देखा क्यों पिता की आज्ञा पालन करने का कर्म उसमें निहित था। इसी प्रकार भरत का श्रीराम की चरणपादुकाओं को सिंहासन पर रखकर राज-काज करना भी कर्म को अकर्म की भांति करने का ही उदाहरण है।
ईश्वर चन्द्र विद्यासागर से मिलने कोई आने वाला था। उसने कभी विद्यासागर जी को देखा नहीं था। विद्यासागर उसे लेने स्वयं रेलवे स्टेशन गए। वहाँ ग़लती से उस व्यक्ति ने विद्यासागर जी को रेलवे कुली समझ लिया। विद्यासागर बड़ी विनम्रता से उसका सामान उठा कर तांगे तक ले गए। जब तांगे वाले ने विद्यासागर जी के चरण छूए तो अतिथि को समझ में आया कि जिसे वह मामूली कुली समझ रहा था वे तो स्वयं ईश्वर चंद्र विद्यासागर हैं। यहाँ हम अकर्म को कर्म की भांति करने का उदाहरण समझ सकते हैं।
चाणक्य ने जब चंद्रगुप्त को मगध नरेश बना दिया तो वे अवकाश लेकर वापस अपने गुरुकुल लौट गए। गुरुकुल की कुटिया में में रखे दो दीपकों में से एक दीपक उन्होंने पाटलिपुत्र वापस लौटा दिया और उसमें बचा तेल भी। जब चाणक्य मगध के महामात्य थे तब दो दीपकों का प्रयोग करते थे। राजकीय कार्य के लिए जो दीपक था उसे व्यक्तिगत कार्य के लिए उपयोग में नहीं लाया जाता था। इस उदाहरण में कर्म को अकर्म की भांति करने की शिक्षा ली जा सकती है।
अहंकार से युक्त होकर और कर्तव्यों को भूलकर किया गया कर्म सही मायने में कर्म नहीं होता। हमारे जीवन में अनेक अवसर आते हैं और बने भी रहते हैं, जबकि हम कर्म के अर्थ को समझ कर सही रूप में कर्म कर सकें। सबसे बड़ी अड़चन तब आती है जब किसी पद को प्राप्त करने के बाद हम विनम्रता, विवेक, करुणा और कर्तव्य को भुला बैठते हैं। यदि हम ऐसा करते हैं तो हम कर्म करने की परिभाषा में नहीं आते बल्कि सामान्य जन की भांति हम अपना कार्य या क्रिया कर रहे होते हैं। शक्ति मिलने पर अहिंसा, कर्तव्य, दायित्व और करुणा का ध्यान रखना ही कर्मशील व्यक्ति की पहचान है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो वह कर्मठ तो हो सकता है पर कर्मशील नहीं।
यदि हम कोई अच्छी नौकरी पा जाते हैं तो यह हमारी उपलब्धि है। नौकरी करना कार्य है और नौकरी को दायित्व और कर्तव्य मानकर विवेक और विनम्रता से करते रहना कर्म है। मैंने अपने एक लेख में लिखा है कि चाहे सार्वजनिक क्षेत्र हो या निजी सामान्य रूप से बीस प्रतिशत कर्मचारी ही अपनी नौकरी को कर्म मान कर करते हैं। शेष अस्सी प्रतिशत साधारण कार्य करने वाले ही होते हैं।
अगली बार श्रीमद्भगवद्गीता का कोई और श्लोक...
दिनांक- 15 अप्रॅल, 2015
किसी ने कन्फ़्यूशस से पूछा कि मृत्यु क्या है ?
चीनी दार्शनिक कन्फ़्यूशस ने बहुत आश्चर्य से पूछा “क्या तुम जीवन को समझ गए हो, जो मृत्यु के बारे में जानना चाहते हो?”
क्या है जीवन और क्यों है जीवन। क्या सचमुच हमें जीवन को जानने का प्रयास करना चाहिए अथवा इन प्रश्नों को अनुत्तरित मान कर, यूँ ही जीवन को जीते रहना चाहिए…
असल में जीते तो रह सकते हैं यूंही लेकिन बड़ा मुश्किल है यह विचार मन से निकालना कि जीवन, ईश्वर, मृत्यु, सत्य, प्रेम और आनंद क्या है।
इन छहों, शाश्वत-प्रश्नों का संसार बहुत विलक्षण है। इन प्रश्नों की खोज करने की यात्रा में ही अनेक मनीषी देवत्व और परम पद को प्राप्त हो गए लेकिन इन प्रश्नों का उत्तर कभी इतना प्रभावी और सटीक नहीं मिला कि जिसको पाकर मनुष्य को तृप्ति हो जाती। किंतु हम लगे हैं प्रश्न करने में और विद्वत्जन और भगवद्जन लगे हैं उत्तर देने में।
एक बार की बात है एक वीर योद्धा सिपाही एक युद्ध से वापस लौट रहा था। उसकी सेना जीत गई थी इस बात की ख़ुशी उसे थी लेकिन कई दिन चले, युद्ध के कारण थकान भी बहुत थी। सिपाही एक गांव में पहुँचा जहाँ ज्ञान, वैराग्य प्रकाश की कथा चल रही थी जिसमें वैराग्य का वर्णन बहुत ही प्रभाशाली ढंग से कथावाचक साधु कर रहे थे।
सिपाही भी मुंह-हाथ धोकर वहाँ बैठ गया और साथ का खाना खाने लगा। खाना खाने के साथ ही साथ वह कथा भी सुनता जा रहा था। कथा का प्रभाव, सिपाही पर बहुत गहरा पड़ा। उसने भोजन बीच में ही छोड़ दिया और अपने हथियार, अपनी तलवार, अपना घोड़ा, अपने वस्त्र आदि वहीं त्याग दिए। साधु को प्रणाम करके वह सिपाही सन्यस्थ होकर प्रवज्या को निकल पड़ा।
चार-पाँच वर्ष गुज़र गए। यह सन्यासी बना सिपाही, भिक्षा मांगता हुआ, वापस उसी गाँव में लौटा। उसने देखा कि कथा हो रही है, तो पूछा-
“ये कथा कौन से साधु महाराज कह रहे हैं?
एक श्रोता बोला “वही हैं जो वर्षों से इसी स्थान पर कथा कह रहे हैं।”
“तो रोज़ाना नई कथा कहते हैं ?”
“नहीं वही कथा है वैराग्य की।”
“तो फिर सुनने वाले बदलते रहते हैं।”
“नहीं सुनने वाले भी लगभग वही हैं, रोज़ाना शाम को कथा सुनने आते हैं।”
यह सुनकर सन्यासी आश्चर्य में पड़ गया। उसने कथा के बीच में ही श्रोताओं को संबोधित करते हुए कहा-
“धन्य हैं आप सभी… कथा कहने वाले भी और सुनने वाले भी… मैंने एक बार वैराग्य की कथा सुनी और मैं इसके मर्म को समझ कर वैरागी हो गया किन्तु आप तो रोज़ाना कथा कह-सुन रहे हैं और किसी पर वैराग्य का कोई असर नहीं है।”
यह कहानी तो यहीं समाप्त हुई। अब प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में हमारे द्वारा किए गए प्रश्नों का उत्तर हम चाहते हैं। क्या सचमुच हमारे ऊपर इन सप्त प्रश्नों के उत्तर का असर होगा?… युगों-युगों से हम प्रश्न करते आ रहे हैं और इसके उत्तर भी पा रहे हैं लेकिन किसलिए? मात्र सुनने के लिए?
शायद ही कोई एेसा बुद्धिमान व्यक्ति हो जिसके मन में ये छहों प्रश्न न आए हों और उसने कभी न कभी इन प्रश्नों को किसी से पूछा न हो।
इसमें सबसे रुचिकर बात यह है कि इन प्रश्नों के उत्तर हमें अपने मन की गहराई में किसी न किसी उम्र पर जाकर मिल जाते हैं, समस्या तब आती है जब इन उत्तरों को हम किसी दूसरे से चाहते हैं अथवा अपने शब्दों में देना चाहते हैं। उदाहरण के लिए जब हम कहना चाहते हैं कि प्रेम क्या है तो स्वयं को असमंजस में पाकर यह सोचने लगते हैं कि हम नहीं जानते कि प्रेम क्या है जबकि हम जानते हैं कि प्रेम क्या है।
असल बात यह है कि प्रेम किसी के जीवन में कैसे घटा है या घट रहा है या घटेगा, यह तो बताया जा सकता है लेकिन यह नहीं कि वह क्या घट रहा है जिसे प्रेम कह सकते हैं। यही स्थिति अन्य पाँच प्रश्नों की भी है। यहाँ एक प्रश्न और उठाया जा सकता है कि एेसा आख़िर क्यों है कि प्रेम को व्यक्त करने की कोई भाषा या शब्द नहीं हैं।
इसके लिए ऐसे समझें कि जिस भाव की कोई उपमा नहीं दी जा सकती उसकी परिभाषा कैसे दी जाएगी। प्रेम की तुलना होगी सत्य से जो कि स्वयं अपरिभाषित है, तो फिर…
क्या बताएँ कि ‘कैसा' घट रहा है हमारे साथ?
श्रीकृष्ण से पूछा गया कि आपका और राधा का प्रेम कैसा है तो उन्होंने कहा कि मेरा और राधा का प्रेम, मेरे और राधा के प्रेम जैसा ही है।
ठीक इसी तरह हम समझ सकते हैं कि ईश्वर, सत्य, आनंद, जीवन और मृत्यु की व्याख्या अथवा परिभाषा करना कठिन ही नहीं, असंभव है।
लेकिन… हम फिर भी ऐसा करते हैं और करते रहेंगे… मैं भी इससे अछूता नहीं हूँ।
दिनांक- 14 अप्रॅल, 2015
मैं गुम हूँ
तो गुम हो
तुम भी
लेकिन मैं तुम में
और शायद
तुम और कहीं
मैं तो हूँ तुम में
क्या तुम भी?
कभी ख़याल
कभी सपना
तो कभी यूँ ही
इन्हीं के साथ
शामिल हो
मेरे ज़ेहन में
तुम ही
किसी और
शायर की ग़ज़ल
के मक़्ते में
तलाशते तुम नाम मेरा
ये कौन सी आवाज़
की कशिश तुम्हें खींचे है
दूर मुझसे…
अरे ब्रूटस!
तुम भी…
दिनांक- 14 अप्रॅल, 2015
राही मासूम रज़ा साहब को उन उम्दा शख़्सियतों की फ़ेरहिस्त में ऊँचा मक़ाम हासिल है जो मज़हब, ज़ात और मुल्क़ों की सरहदों से नाइत्तफ़ाक़ी रखते है। यूँ तो रज़ा साहब की जादुई क़लम का बेजोड़ फ़न मुझे हमेशा ही करिश्माई लगा है लेकिन उनका उपन्यास आधागाँव मुझे बेहद पसंद है। टीवी धारावाहिक ‘महाभारत’ को बेहतरीन रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय भी रज़ा साहब को जाता है।
हर क़दम अज़्मत-ए-कुश्तगाँ की तरफ़
हर क़दम ज़ज़्ब:-ए-कामराँ की तरफ़
हर क़दम मज़िल-ए-कारवाँ की तरफ़
हर क़दम इन्क़िलाब-ए-जहाँ की तरफ़
रौशनी आगे बढ़ती चली जाएगी
ज़िन्दगी आगे बढ़ती चली जाएगी
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कुह्न: = पुराना । रक़्क़ास: = नर्तकी । मे’मार = इमारत बनाने वाले । दारुलमिहन = दु:ख का स्थान अर्थात संसार । जाफ़र = चौदह इमामों में से एक । अह्रमन = ईरान के आतशपरस्तों के मतानुसार बदी का ख़ुदा । हरम = ख़ुदा का घर । तकल्लुम = बातचीत । तसादुग = टक्कर । ज़ौक़ = रुचि । दार = सूली, फाँसी। सन्अत = कला। पिंदार = अभिमान । तमद्दुन = मिल-जुलकर रहने का तरीक़ा,संस्कृति । रिदा = चादर, ओढ़नी । हुज़्न = दु:ख, शोक । मुज़्महिल = क्लान्त, अफ़्सुर्द: । ख़जिल = शर्मिन्दा । उफ़ुक़ = क्षितिज । कार-ए-नुमायाँ = कारनामा । बाब = पुस्तक का परिच्छेद । रसन = रस्सी । ख़ुतन = एक स्थान, जहाँ का मुश्क मशहूर है। दिक़ = तपेदिक, क्षय । वारफ़्तगी = आत्मविस्मृति । क़ुम्क़ुम: = बिजली का बल्ब । सोख्त:तन = दिलजला, आशिक़ का प्रतीक । अज़्मत = प्रतिष्ठा । कुश्तगाँ = आशिक़, क़त्ल किए हुए । कामराँ = नसीब वाला, क़ामयाब।
दिनांक- 5 अप्रॅल, 2015
स्वतंत्रता की अनेक व्याख्या हैं लेकिन परिभाषा शायद कोई नहीं। इसका कारण है कि स्वतंत्रता निजता का मामला है... नितांत निजी। प्रत्येक की स्वतंत्रता अपनी-अपनी अलग-अलग और अनोखी।
गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं-
"पराधीन सपनेहु सुख नांही”
याने पराधीन व्यक्ति किसी हाल में भी सुखी नहीं रह सकता। इसका अर्थ यही है कि सुखों की सूची में संभवत: स्वतंत्रता, वरीयता क्रम में पहले स्थान पर है।
इस वीडियो में सुश्री दीपिका पादुकोने ने नारी के द्वारा अपनी पसंद को चुनने की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में बताया है। उनकी अपनी स्वतंत्रता की व्याख्या यही है। मुझे नहीं लगता कि कोई भी इससे असहमत होगा क्योंकि सभी को अपनी मर्ज़ी से अपना जीवन बिताने का हक़ है।
हाँ नारी विमर्श और जीवन संदेश के संदर्भ में यह वीडियो कितना उपयोगी है यह प्रत्येक व्यक्ति की अपनी पसंद का मामला है। इस वीडियो के प्रत्युत्तर में एक वीडियो पुरुषों की ओर से आया है। उसे भी चाहें तो देख लें।
ख़ैर… ज़रा इस बात पर अवश्य ग़ौर करें कि कम से कम नारी को स्वतंत्रता की परिभाषा बताने वाला पुरुष नहीं होना चाहिए क्योंकि पुरुष कोई नारी का भाग्यविधाता नहीं है वरन नारी के समानान्तर और समान रूप से उसका मित्र, सखा, सहचर, जीवनसाथी, सहकर्मी आदि होता है।
वैसे व्यवहार जगत् में अधिकतर व्यक्तियों की जीवन शैली “पर उपदेस कुसल बहुतेरे” से प्रभावित रहती है। पता नहीं क्यों पर यह वीडियो देखकर मैं पुरुष के रूप में शर्मिन्दा हूँ कि हम पुरुषों ने अधिकतर वर्जनाएँ स्त्री के ऊपर लाद रखीं हैं और स्त्री को अपनी स्वतंत्रता की बात वस्त्र उतार-उतार कर करनी पड़ती है।
मेरे हिसाब से तो “स्वतंत्रता से जीओ और जीने दो” का नियम ही सर्वश्रेष्ठ है।
तुम क्षमा कर दो उन्हें भी
जो तुम्हारे सत्य पथ पर
कंटकों का जाल चारों ओर से
बिखरा रहे थे
और तुमको
छद्म-जीवन राह भी दिखला रहे थे
और उनको भी क्षमा कर दो
कि जिनमें, ईर्ष्या ही ईर्ष्या
का भाव था
बस स्वार्थवश ही
था प्रदर्शन प्रेम का
स्वत: उनको, मुस्कुरा कर
दान देना परम करुणा से भरे मन
और अंतर हृदय से तुम
जिनका विरोधी स्वर बना कारण
तुम्हारे परम सुखमय आज का
अपने निजी आकाश का
स्मरण हो
लाओत्से ने क्या कहा था-
“हो सहज मन
और करुणा हो
सभी के प्रति तुम्हारी”
ध्यान मत देना
कनफ्य़ूशस के कथन पर-
"जो बिछाएँ शूल, राहों में निरंतर
उन्हें सम्मानित करो मत फूल देकर
क्योंकि इससे रूठ जाएँगे सभी वे
सेज फूलों से सजाते हैं तुम्हारी”
अरे तुम सुन रहे हो ना ?
तुम्हारे जो भी अपने हैं
वो तो हर हाल अपने हैं
यदि कोई ‘हाल’ ऐसा है
जहाँ होंगे विरोधी वे
तो फिर ये जान लो
भ्रम है तुम्हें ये आज भी
कि वे तो मेरे अपने हैं
रखोगे तुम क्षमा भीतर
तभी तो प्रेम भी होगा
नहीं तो प्रेम
सुख की लालसा का ही व्यसन होगा