यही कारण है कि नव्य चार्वाकों ने अनुमान को भी प्रमाण के रूप में स्वीकार कर लिया। इतना अवश्य है कि उसी अनुमान को चार्वाक की इस नवीन धारा ने स्वीकार किया जो लोक प्रसिद्ध व्यवहार को उपपन्न करने के लिए अपरिहार्य थे।[1] जैसे धूएँ को देख आग का अनुमान। मुख पर उभरी रेखाओं को देख सुख या दु:ख का अनुमान। परन्तु अलौकिक धर्म एवं अधर्म को स्वर्ग या नरक को सिद्ध करने वाले अनुमान का तो चार्वाकों ने एक मत से खण्डन ही किया है।
- इसी क्रम में नव्य चार्वाकों ने चार भूतों को मानने की परम्परा को परिष्कृत कर पाँच भूतों को स्वीकार कर लिया। सर्वमान्य अवकाश रूप आकाश को न मानना सम्भवत: चार्वाक के लोकायत स्वरूप को ही छिन्न-भिन्न कर देता। इसीलिए अपने स्वरूप की रक्षा करते हुए अवकाश के रूप में प्रसिद्ध आकाश को स्वीकार कर[2] नव्य चार्वाकों ने बुद्धिमानी का ही परिचय दिया है। इस प्रकार आत्मा शरीर ही है। परमात्मा लोक में प्रसिद्ध राजा है। मोक्ष शरीर का नष्ट होना ही है।[3] स्वर्ग आदि लौकिक दृष्टि से परे कोई परलोक नहीं हैं। इस लोक में अनुभूत विशिष्ट सुख ही स्वर्ग है। इसी प्रकार दु:ख के कारण कण्टक आदि से उत्पन्न इस लोक में अनुभूत दु:ख ही नरक है।[4] कोई अमर नहीं हैं सबकी मृत्यु एक दिन होती ही है। इन धारणाओं से अभिभूत चार्वाक की स्पष्ट अवधारा है कि जब तक मानव जीवन है तब तक सुख के साथ जीना चाहिए। दूसरों से ऋण लेकर भी घी पीना सम्भव हो तो नि:संकोच पीना चाहिए।[5] ऋण न दे पाने के डर से या पुनर्जन्म होने पर लिए गये ऋण का कई गुना अधिक उस व्यक्ति को वापस करना पड़ेगा इस भय से व्यग्र न हों क्योंकि शरीर के श्मशान में भस्म हो जाने पर देह का पुन: जन्म कथमपि सम्भव नहीं है।
- इस दर्शन में पृथ्वी जल तेज़ एवं वायु ये चार भूत ही तत्त्व के रूप में माने गये हैं। वास्तव में ये तत्त्व द्रव्य ही हैं। काल दिशा आत्मा एवं मन द्रव्य या तत्त्व के रूप में चार्वाक दर्शन में मान्य नहीं हैं। क्यों कि इनका इन्द्रियों से प्रत्यक्ष सम्भव नहीं है। चार्वाक यदि चार द्रव्यों को मानता है तो इन चार द्रव्यों में रहने वाले इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य गुण ही इस दर्शन में स्वीकृत हो सकते हैं। ऐसे गुणों में रूप, रस गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, शब्द, बुद्धि, सुख, दु:ख, अवश्य स्वीकार करेगा क्योंकि यह कर्म भी इस दर्शन में स्वीकृत चार द्रव्यों का असाधारण धर्म है। इनमें पाँच भेद उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण, एवं गमन के रूप में भी चार्वाक दर्शन में अवश्य स्वीकार्य होंगे। पर एवं अपर भेद से सामान्य भी ये मानेंगे ही। इसी प्रकार विशेष एवं समवाय एवं अभाव भी इन्हें मानना होगा क्योंकि इनका भी सम्बन्ध इनके द्वारा अभिप्रेत चार भूतों से है। यह सम्भव है कि प्राचीन चार्वाक इन गुणों में से मात्र उन गुणों को ही स्वीकार करे जो मात्र प्रत्यक्ष हैं क्योंकि इसके सिद्धान्त में अनुमान प्रमाण की मान्यता नहीं है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 'मानं त्वक्षजमेव हि' हिशब्दोऽत्र विशेषणार्थो वर्तते। विशेष: पुनश्चार्वाकैर्लोकयात्रानिर्वहणप्रवणं धूमाद्यनुमानमिष्यते क्वचन न पुन: स्वर्गादृष्टादिप्रसाधकमलौकिकमनुमानमिति।–षड्दर्शनसमुच्चय- पृ0 457
- ↑ केचित्तु चार्वाकैकदेशीया आकाशं पंचमं भूतमभिमन्यमाना: पंचभूतात्मकं जगदिति निगदन्ति। षड्दर्शन समुच्चय- पृ0 450
- ↑ लोकसिद्धो भवेद् राजा परेशो नाऽपर: स्मृत:। देहस्य नाशो मुक्तिस्तु न ज्ञानान्मुक्तिरिष्यते॥ सर्वदर्शन संग्रह- पृ0 9
- ↑ अंगनाऽऽलिंगनाजन्यसुखमेव पुमर्थता। कण्टकादिव्यथाजन्यं दु:खं निरय उच्यते॥ सर्वदर्शन संग्रह- पृ0 9
- ↑ यावज्जीवेत् सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिबेत्।
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