विशिष्टाद्वैत दर्शन

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विशिष्टाद्वैत दर्शन रूढ़िवादी भारतीय दर्शन के प्रधान मतों में से एक है। इसके प्रतिष्ठापक रामानुजाचार्य थे। यह मत सातवीं शताब्दी के बाद दक्षिण भारत में मुख्य रूप से सक्रिय 'भक्ति आंदोलन[1] से विकसित हुआ था।

प्रतिष्ठापक

विशिष्टाद्वैत दर्शन के प्रतिष्ठापक रामानुजाचार्य थे। उनका जन्म संवत 1084 के आस-पास हुआ था। उनकी विचारधारा शंकराचार्य के अद्वैतवादी निर्गुण ब्रह्म के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया थी। विशिष्टाद्वैत दर्शन में रामानुजाचार्य ने सगुण ब्रह्म के साथ-साथ जगत और जीव की सत्ता की प्रतिष्ठा की। उन्होंने शरीर को विशेषण तथा आत्मतत्त्व को विशेष्य माना।

वैष्णव भक्ति आंदोलन का मार्गदर्शन करने वाले आरंभिक ब्राह्मणों[2] में से एक नाथमुनि[3] थे, जो श्रीरंगम् (आधुनिक तमिलनाडु राज्य) के मंदिर के मुख्य पुरोहित थे। उनके बाद यमुना[4] ने यह कार्य संभाला, जिन्होंने कुछ दार्शनिक प्रबंध लिखे, लेकिन टीकाएं नहीं लिखीं। उनके उत्तराधिकारी रामानुज या 'रामानुजाचार्य'[5] सबसे प्रख्यात हस्ती थे, जिन्होंने ब्रह्मसूत्रों[6] और श्रीमद्भगवद गीता पर टीकाएं; उपनिषदों पर एक ग्रंथ 'वेदार्थसंग्रेह' की रचना की। रामानुज वेदांत चिंतकों में से पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने व्यक्तिगत ईश्वर की उपनिषदों तथा वेदांत सूत्रों के ब्रह्म से एकात्मता को अपनी पद्धति का आधार बनाया।

विशिष्टाद्वैत दर्शन के अनुसार- "शरीर विशिष्ट है, जीवात्मा अंश तथा अंतर्यामी परमात्मा अंशी है। संसार प्रारंभ होने से पूर्व 'सूक्ष्म चिद् चिद् विशिष्ट ब्रह्म' की स्थिति होती है संसार एवं जगत की उत्पत्ति के उपरांत 'स्थूल चिद् चिद् विशिष्ट ब्रह्म' की स्थिति रहती है। 'तयो एकं इति ब्रह्म' अपनी सीमाओं की परिधि से छूट जाना ही मोक्ष है। मुक्तात्माएं ईश्वर की भांति हो जाती हैं- किंतु ईश्वर नहीं होतीं।"


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शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विष्णु आधारित वैष्णव आंदोलन
  2. पुरोहितों
  3. 10वीं शताब्दी
  4. 1 वीं शताब्दी
  5. गुरु रामानुज, लगभग 1050-1137
  6. श्रीभाष्य

बाहरी कड़ियाँ

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