पांडवों का स्वर्गारोहण
धर्मराज युधिष्ठिर के शासनकाल में हस्तिनापुर की प्रजा सुखी तथा समृद्ध थी। कहीं भी किसी प्रकार का शोक व भय आदि नहीं था। कुछ समय बाद श्रीकृष्ण से मिलने के लिये अर्जुन द्वारिकापुरी गये। अपनी द्वारिका यात्रा के बाद अर्जुन महर्षि वेदव्यास के आश्रम पहुँचे। यहाँ आकर अर्जुन ने महर्षि वेदव्यास को बताया कि श्रीकृष्ण, बलराम सहित सारे यदुवंशी समाप्त हो चुके हैं। तब महर्षि ने कहा कि यह सब इसी प्रकार होना था। इसलिए इसके लिए शोक नहीं करना चाहिए। तब अर्जुन ने ये भी बताया कि किस प्रकार साधारण लुटेरे उनके सामने यदुवंश की स्त्रियों को हर कर ले गए और वे कुछ भी न कर सके।
अर्जुन की बात सुनकर महर्षि वेदव्यास ने कहा कि वे दिव्य अस्त्र जिस उद्देश्य से तुमने प्राप्त किए थे, वह पूरा हो गया। अत: वे पुन: अपने स्थानों पर चले गए हैं। महर्षि ने अर्जुन से यह भी कहा कि तुम लोगों ने अपना कर्तव्य पूर्ण कर लिया है। अत: अब तुम्हारे परलोक गमन का समय आ गया है और यही तुम्हारे लिए श्रेष्ठ भी है। महर्षि वेदव्यास की बात सुनकर अर्जुन उनकी आज्ञा से हस्तिनापुर आए और उन्होंने पूरी बात महाराज युधिष्ठिर को बता दी।
परीक्षित हस्तिनापुर के राजा
यदुवंशियों के नाश की बात जानकर युधिष्ठिर को बहुत दु:ख हुआ। महर्षि वेदव्यास की बात मानकर द्रौपदी सहित पांडवों ने राज-पाठ त्याग कर परलोक जाने का निश्चय किया। युधिष्ठिर ने युयुत्सु को बुलाकर उसे संपूर्ण राज्य की देख-भाल का भार सौंप दिया और परीक्षित का राज्याभिषेक कर दिया। युधिष्ठिर ने सुभद्रा से कहा कि आज से परीक्षित हस्तिनापुर का तथा वज्र मथुरा का राजा है। अत: तुम इन दोनों पर समान रूप से स्नेह रखना।
इसके बाद पांडवों ने अपने मामा वसुदेव व श्रीकृष्ण तथा बलराम आदि का विधिवत तर्पण व श्राद्ध किया। इसके बाद पांडवों व द्रौपदी ने साधुओं के वस्त्र धारण किए और स्वर्ग जाने के लिए निकल पड़े। पांडवों के साथ-साथ एक कुत्ता भी चलने लगा। अनेक तीर्थों, नदियों व समुद्रों की यात्रा करते-करते पांडव आगे बढ़ने लगे। पांडव चलते-चलते लाल सागर तक आ गए।
अर्जुन ने लोभ वश अपना गांडीव धनुष व अक्षय तरकशों का त्याग नहीं किया था। तभी वहाँ अग्निदेव उपस्थित हुए और उन्होंने अर्जुन से गांडीव धनुष और अक्षय तरकशों का त्याग करने के लिए कहा। अर्जुन ने ऐसा ही किया। पांडवों ने पृथ्वी की परिक्रमा पूरी करने की इच्छा से उत्तर दिशा की ओर यात्रा की। यात्रा करते-करते पांडव हिमालय तक पहुँच गए। हिमालय लांघ कर पांडव आगे बढ़े तो उन्हें बालू का समुद्र दिखाई पड़ा। इसके बाद उन्होंने सुमेरु पर्वत के दर्शन किए। पांचों पांडव, द्रौपदी तथा वह कुत्ता तेजी से आगे चलने लगे। तभी द्रौपदी लडख़ड़ाकर गिर पड़ी।
द्रौपदी को गिरा देख भीम ने युधिष्ठिर से कहा कि- द्रौपदी ने कभी कोई पाप नहीं किया। तो फिर क्या कारण है कि वह नीचे गिर पड़ी। युधिष्ठिर ने कहा कि- द्रौपदी हम सभी में अर्जुन को अधिक प्रेम करती थीं। इसलिए उसके साथ ऐसा हुआ है। ऐसा कहकर युधिष्ठिर द्रौपदी को देखे बिना ही आगे बढ़ गए। थोड़ी देर बाद सहदेव भी गिर पड़े।
भीमसेन ने सहदेव के गिरने का कारण पूछा तो युधिष्ठिर ने बताया कि सहदेव किसी को अपने जैसा विद्वान नहीं समझता था, इसी दोष के कारण इसे आज गिरना पड़ा है। कुछ देर बाद नकुल भी गिर पड़े। भीम के पूछने पर युधिष्ठिर ने बताया कि नकुल को अपने रूप पर बहुत अभिमान था। इसलिए आज इसकी यह गति हुई है।
थोड़ी देर बाद अर्जुन भी गिर पड़े। युधिष्ठिर ने भीमसेन को बताया कि अर्जुन को अपने पराक्रम पर अभिमान था। अर्जुन ने कहा था कि मैं एक ही दिन में शत्रुओं का नाश कर दूंगा, लेकिन ऐसा कर नहीं पाए। अपने अभिमान के कारण ही अर्जुन की आज यह हालत हुई है। ऐसा कहकर युधिष्ठिर आगे बढ़ गए।
थोड़ी आगे चलने पर भीम भी गिर गए। जब भीम ने युधिष्ठिर से इसका कारण तो उन्होंने बताया कि तुम खाते बहुत थे और अपने बल का झूठा प्रदर्शन करते थे। इसलिए तुम्हें आज भूमि पर गिरना पड़ा है। यह कहकर युधिष्ठिर आगे चल दिए। केवल वह कुत्ता ही उनके साथ चलता रहा।
युधिष्ठिर कुछ ही दूर चले थे कि उन्हें स्वर्ग ले जाने के लिए स्वयं देवराज इंद्र अपना रथ लेकर आ गए। तब युधिष्ठिर ने इंद्र से कहा कि- मेरे भाई और द्रौपदी मार्ग में ही गिर पड़े हैं। वे भी हमारे हमारे साथ चलें, ऐसी व्यवस्था कीजिए। तब इंद्र ने कहा कि वे सभी पहले ही स्वर्ग पहुँच चुके हैं। वे शरीर त्याग कर स्वर्ग पहुँचे हैं और आप सशरीर स्वर्ग में जाएंगे।
इंद्र की बात सुनकर युधिष्ठिर ने कहा कि यह कुत्ता मेरा परम भक्त है। इसलिए इसे भी मेरे साथ स्वर्ग जाने की आज्ञा दीजिए, लेकिन इंद्र ने ऐसा करने से मना कर दिया। काफी देर समझाने पर भी जब युधिष्ठिर बिना कुत्ते के स्वर्ग जाने के लिए नहीं माने तो कुत्ते के रूप में यमराज अपने वास्तविक स्वरूप में आ गए (वह कुत्ता वास्तव में यमराज ही थे)। युधिष्ठिर को अपने धर्म में स्थित देखकर यमराज बहुत प्रसन्न हुए। इसके बाद देवराज इंद्र युधिष्ठिर को अपने रथ में बैठाकर स्वर्ग ले गए।
देवदूत नरक लेकर आया था युधिष्ठिर को
स्वर्ग जाकर युधिष्ठिर ने देखा कि वहाँ दुर्योधन एक दिव्य सिंहासन पर बैठा है, अन्य कोई वहाँ नहीं है। यह देखकर युधिष्ठिर ने देवताओं से कहा कि मेरे भाई तथा द्रौपदी जिस लोक में गए हैं, मैं भी उसी लोक में जाना चाहता हूं। मुझे उनसे अधिक उत्तम लोक की कामना नहीं है। तब देवताओं ने कहा कि यदि आपकी ऐसी ही इच्छा है तो आप इस देवदूत के साथ चले जाइए। यह आपको आपके भाइयों के पास पहुँचा देगा। युधिष्ठिर उस देवदूत के साथ चले गए। देवदूत युधिष्ठिर को ऐसे मार्ग पर ले गया, जो बहुत खराब था।
उस मार्ग पर घोर अंधकार था। उसके चारों ओर से बदबू आ रही थी, इधर-उधर मुर्दे दिखाई दे रहे थे। लोहे की चोंच वाले कौए और गीध मंडरा रहे थे। वह असिपत्र नामक नरक था। वहाँ की दुर्गंध से तंग आकर युधिष्ठिर ने देवदूत से पूछा कि हमें इस मार्ग पर और कितनी दूर चलना है और मेरे भाई कहाँ हैं? युधिष्ठिर की बात सुनकर देवदूत बोला कि देवताओं ने कहा था कि जब आप थक जाएं तो आपको लौटा लाऊ। यदि आप थक गए हों तो हम पुन: लौट चलते हैं। युधिष्ठिर ने ऐसा ही करने का निश्चय किया।
इसलिए युधिष्ठिर को देखना पड़ा था नरक
जब युधिष्ठिर वापस लौटने लगे तो उन्हें दुखी लोगों की आवाज सुनाई दी, वे युधिष्ठिर से कुछ देर वहीं रुकने के लिए कह रहे थे। युधिष्ठिर ने जब उनसे उनका परिचय पूछा तो उन्होंने कर्ण, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव व द्रौपदी के रूप में अपना परिचय दिया। तब युधिष्ठिर ने उस देवदूत से कहा कि तुम पुन: देवताओं के पास लौट जाओ, मेरे यहाँ रहने से यदि मेरे भाइयों को सुख मिलता है तो मैं इस दुर्गम स्थान पर ही रहूंगा। देवदूत ने यह बात जाकर देवराज इंद्र को बता दी।
युधिष्ठिर को उस स्थान पर अभी कुछ ही समय बीता था कि सभी देवता वहाँ आ गए। देवताओं के आते ही वहाँ सुगंधित हवा चलने लगी, मार्ग पर प्रकाश छा गया। तब देवराज इंद्र ने युधिष्ठिर को बताया कि तुमने अश्वत्थामा के मरने की बात कहकर छल से द्रोणाचार्य को उनके पुत्र की मृत्यु का विश्वास दिलाया था। इसी के परिणाम स्वरूप तुम्हें भी छल से ही कुछ देर नरक के दर्शन पड़े। अब तुम मेरे साथ स्वर्ग चलो। वहाँ तुम्हारे भाई व अन्य वीर पहले ही पहुँच गए हैं।
गंगा नदी में स्नान कर मानव शरीर त्यागा था युधिष्ठिर ने
देवराज इंद्र के कहने पर युधिष्ठिर ने देवनदी गंगा में स्नान किया। स्नान करते ही उन्होंने मानव शरीर त्याग करके दिव्य शरीर धारण कर लिया। इसके बाद बहुत से महर्षि उनकी स्तुति करते हुए उन्हें उस स्थान पर ले गए जहाँ उनके चारों भाई, कर्ण, भीम, धृतराष्ट्र, द्रौपदी आदि आनंदपूर्वक विराजमान थे (वह भगवान का परमधाम था)। युधिष्ठिर ने वहाँ भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन किए। अर्जुन उनकी सेवा कर रहे थे। युधिष्ठिर को आया देख श्रीकृष्ण व अर्जुन ने उनका स्वागत किया।
युधिष्ठिर ने देखा कि भीम पहले की तरह शरीर धारण किए वायु देवता के पास बैठे थे। कर्ण को सूर्य के समान स्वरूप धारण किए बैठे देखा। नकुल व सहदेव अश्विनी कुमारों के साथ बैठे थे। देवराज इंद्र ने युधिष्ठिर को बताया कि ये जो साक्षात भगवती लक्ष्मी दिखाई दे रही हैं। इनके अंश से ही द्रौपदी का जन्म हुआ था। इसके बाद इंद्र ने महाभारत युद्ध में मारे गए सभी वीरों के बारे में युधिष्ठिर को विस्तार पूर्वक बताया। इस प्रकार युधिष्ठिर अपने भाइयों व अन्य संबंधियों को वहाँ देखकर बहुत प्रसन्न हुए।
पांडवों के स्वर्गारोहण के इस प्रसंग के साथ ही महाभारत कथा समाप्त हो जाती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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