यज्ञ
यज्ञ संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है- "आहुति, चढ़ावा"। यह हिंदू धर्म में प्राचीन भारत के आरंभिक ग्रंथों वेदों में निर्धारित अनुष्ठानों पर आधारित उपासना पद्धति है। यह उपासना उस पूजा के विपरीत है, जिसमें अवैदिक मूर्तिपूजा एवं भक्ति प्रथाएँ शामिल हो सकती हैं। यज्ञ हमेशा उद्देश्यपूर्ण होता है। यहाँ तक कि इसका लक्ष्य ब्रह्मांड की स्वाभाविक व्यवस्था क़ायम रखने जैसा व्यापक भी हो सकता है। इसमें अनुष्ठानों का सही निष्पादन और मंत्रों का शुद्ध उच्चारण अनिवार्य माने जाते हैं तथा निष्पादक और प्रयुक्त सामग्री का अत्यधिक पवित्र होना आवश्यक है। ऐसी आनुष्ठानिक आवश्यकताओं ने पुरोहितों के व्यावसायिक वर्ग, आधुनिक ब्राह्मणों को जन्म दिया, जिनकी अब भी महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक यज्ञ कराने में आवश्यकता पड़ती है। कई रूढ़िवादी हिन्दू परिवार पाँच दैनिक घरेलू आहुतियाँ और महायज्ञ अब भी करते हैं।
यज्ञ के अंग तथा प्रकार
यज्ञ के चार अंग माने गए हैं- 'स्नान', 'दान', 'होम' तथा 'जप'। इसके पाँच प्रकार बताये गए हैं-
- लोक
- क्रिया
- सनातन गृह
- पंचभूत
- मनुष्य
तात्पर्य
यज्ञ से तात्पर्य है- 'त्याग, बलिदान, शुभ कर्म'। अपने प्रिय खाद्य पदार्थों एवं मूल्यवान सुगंधित पौष्टिक द्रव्यों को अग्नि एवं वायु के माध्यम से समस्त संसार के कल्याण के लिए यज्ञ द्वारा वितरित किया जाता है। वायु शोधन से सबको आरोग्यवर्धक साँस लेने का अवसर मिलता है। हवन हुए पदार्थ वायुभूत होकर प्राणिमात्र को प्राप्त होते हैं और उनके स्वास्थ्यवर्धन, रोग निवारण में सहायक होते हैं। यज्ञ काल में उच्चरित वेद मंत्रों की पुनीत शब्द ध्वनि आकाश में व्याप्त होकर लोगों के अंतःकरण को सात्विक एवं शुद्ध बनाती है। इस प्रकार थोड़े ही खर्च एवं प्रयत्न से यज्ञकर्ताओं द्वारा संसार की बड़ी सेवा बन पड़ती है। वैयक्तिक उन्नति और सामाजिक प्रगति का सारा आधार सहकारिता, त्याग, परोपकार आदि प्रवृत्तियों पर निर्भर है। यदि माता अपने रक्त-मांस में से एक भाग नये शिशु का निर्माण करने के लिए न त्यागे, प्रसव की वेदना न सहे, अपना शरीर निचोड़कर उसे दूध न पिलाए, पालन-पोषण में कष्ट न उठाए और यह सब कुछ नितान्त निःस्वार्थ भाव से न करे, तो फिर मनुष्य का जीवन-धारण कर सकना भी संभव न हो। इसलिए कहा जाता है कि मनुष्य का जन्म यज्ञ भावना के द्वारा या उसके कारण ही संभव होता है। गीताकार ने इसी तथ्य को इस प्रकार कहा है कि प्रजापति ने यज्ञ को मनुष्य के साथ जुड़वा भाई की तरह पैदा किया और यह व्यवस्था की, कि एक दूसरे का अभिवर्धन करते हुए दोनों फलें-फूलें।
अश्वमेध यज्ञ
अश्वमेध मुख्यत: राजनीतिक यज्ञ था और इसे वही सम्राट कर सकता था, जिसका अधिपत्य अन्य सभी नरेश मानते थे। 'आपस्तम्ब:' में लिखा है
"राजा सार्वभौम: अश्वमेधेन यजेत्। नाप्यसार्वभौम:"
अर्थात "सार्वभौम राजा अश्वमेध करे असार्वभौम कदापि नहीं।" यह यज्ञ उसकी विस्तृत विजयों, सम्पूर्ण अभिलाषाओं की पूर्ति एवं शक्ति तथा साम्राज्य की वृद्धि का द्योतक होता था।
राजसूय यज्ञ
ऐतरेय ब्राह्मण[1] इस यज्ञ के करने वाले महाराजाओं की सूची प्रस्तुत करता है, जिन्होंने अपने राज्यारोहण के पश्चात पृथ्वी को जीता एवं इस यज्ञ को किया। इस प्रकार यह यज्ञ सम्राट का प्रमुख कर्तव्य समझा जाने लगा। जनता इसमें भाग लेने लगी एवं इसका पक्ष धार्मिक की अपेक्षा अधिक सामाजिक होता गया। यह यज्ञ चक्रवर्ती राजा बनने के लिए किया जाता था।
गृहस्थ धर्म के यज्ञ
हिन्दू धर्म-ग्रन्थों के अनुसार प्रत्येक गृहस्थ हिन्दू को पाँच यज्ञों को अवश्य करना चाहिए-
- ब्रह्म-यज्ञ - प्रतिदिन अध्ययन और अध्यापन करना ही ब्रह्म-यज्ञ है।
- देव-यज्ञ - देवताओं की प्रसन्नता हेतु पूजन-हवन आदि करना।
- पितृ-यज्ञ - 'श्राद्ध' और 'तर्पण' करना ही पितृ-यज्ञ है।
- भूत-यज्ञ - 'बलि' और 'वैश्व देव' की प्रसन्नता हेतु जो पूजा की जाती है, उसे 'भूत-यज्ञ' कहते हैं तथा,
- मनुष्य-यज्ञ - इसके अन्तर्गत 'अतिथि-सत्कार' आता है।
उक्त पाँचों यज्ञों को नित्य करने का निर्देश है।
ब्रह्मयज्ञ
ब्रह्मयज्ञ में गायत्री विनियोग होता है। मरणोत्तर संस्कार के संदर्भ में एकत्रित सभी कुटुम्बी-हितैषी परिजन एक साथ बैठें। मृतात्मा के स्नेह-उपकारों का स्मरण करें। उसकी शान्ति-सद्गति की कामना व्यक्त करते हुए सभी लोग भावनापूवर्क पाँच मिनट गायत्री मन्त्र का मानसिक जप करें, अन्त में अपने जप का पुण्य मृतात्मा के कल्याणार्थ अपिर्त करने का भाव करें- यह न्यूनतम है। यदि सम्भव हो, तो शुद्धि दिवस के बाद त्रयोदशी तक भावनाशील परिजन मिल-जुलकर गायत्री जप का एक लघु अनुष्ठान पूरा कर लें। ब्रह्ययज्ञ को उसकी पूणार्हुति मानें। संकल्प बोलें:-
नामाहं...
नाम्नः प्रेतत्वनिवृत्तिद्वारा, ब्रह्मलोकावाप्तये...
परिमाणं गायत्री
महामन्त्रानुष्ठानपुण्यं श्रद्धापूवर्कम् अहं समपर्यिष्ये।
देवयज्ञ
देवयज्ञ में देवप्रवृत्तियों का पोषण किया जाए। दुष्प्रवृत्तियों के त्याग और सत्प्रवृत्तियों के अभ्यास का उपक्रम अपनाने से देवशक्तियाँ तुष्ट होती हैं, देववृत्तियाँ पुष्ट होती हैं। श्राद्ध के समय संस्कार करने वाले प्रमुख परिजन सहित उपस्थित सभी परिजनों को इस यज्ञ में यथाशक्ति भाग लेना चाहिए। अपने स्वभाव के साथ जुड़ी दुष्प्रवृत्तियों को सदैव के लिए या किसी अवधि तक के लिए छोड़ने, परमार्थ गतिविधियों को अपनाने का संकल्प कर लिया जाए, उसका पुण्य मृतात्मा के हितार्थ अपिर्त किया जाए। संकल्प बोलें:-
नामाहं...
नामकमृतात्मनः देवगतिप्रदानाथर्...
दिनानि यावत् मासपयर्न्तं-वषर्पयर्न्तं...
दुष्प्रवृत्त्युन्मूलनैः ...
सत्प्रवृत्तिसंधारणैः जायमानं पुण्यं मृतात्मनः समुत्कषर्णाय श्रद्धापूवर्कं अहं समपर्यिष्ये।
पितृयज्ञ
यह कृत्य पितृयज्ञ के अंतगर्त किया जाता है। जिस प्रकार तर्पण में जल के माध्यम से अपनी श्रद्धा व्यक्त की जाती है, उसी प्रकार हविष्यान्न के माध्यम से अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति की जानी चाहिए। मरणोत्तर संस्कार में 12 पिण्डदान किये जाते हैं- जौ या गेहूँ के आटे में तिल, शहद, घृत, दूध मिलाकर लगभग एक-एक छटाँक आटे के पिण्ड बनाकर एक पत्तल पर रख लेने चाहिए। संकल्प के बाद एक-एक करके यह पिण्ड जिस पर रखे जा सकें, ऐसी एक पत्तल समीप ही रख लेनी चाहिए। छः तर्पण जिनके लिए किये गये थे, उनमें से प्रत्येक वर्ग के लिए एक-एक पिण्ड है। सातवाँ पिण्ड मृतात्मा के लिए है। अन्य पाँच पिण्ड उन मृतात्माओं के लिए हैं, जो पुत्रादि रहित हैं, अग्निदग्ध हैं, इस या किसी जन्म के बन्धु हैं, उच्छिन्न कुल, वंश वाले हैं, उन सबके निमित्त ये पाँच पिण्ड समपिर्त हैं। ये बारहों पिण्ड पक्षियों के लिए अथवा गाय के लिए किसी उपयुक्त स्थान पर रख दिये जाते हैं। मछलियों को चुगाये जा सकते हैं। पिण्ड रखने के निमित्त कुश बिछाते हुए निम्न मन्त्र बोलें:-
ॐ कुशोऽसि कुश पुत्रोऽसि, ब्रह्मणा निमिर्तः पुरा।
त्वय्यचिर्तेऽ चिर्तः सोऽ स्तु, यस्याहं नाम कीतर्ये।
मरणोत्तर (श्राद्ध संस्कार) जीवन का एक अबाध प्रवाह है। काया की समाप्ति के बाद भी जीव यात्रा रुकती नहीं है। आगे का क्रम भी भलीप्रकार सही दिशा में चलता रहे, इस हेतु मरणोत्तर संस्कार किया जाता है। सूक्ष्म विद्युत तरंगों के माध्यम से वैज्ञानिक दूरस्थ उपकरण का संचालन कर लेते हैं। श्रद्धा उससे भी अधिक सशक्त तरंगें प्रेषित कर सकती है। उसके माध्यम से पितरों-को स्नेही परिजनों की जीव चेतना को दिशा और शक्ति तुष्टि प्रदान की जा सकती है। मरणोत्तर संस्कार द्वारा अपनी इसी क्षमता के प्रयोग से पितरों की सद्गति देने और उनके आशीर्वाद पाने का क्रम चलाया जाता है। पितृ-यज्ञ हेतु मनीषियों ने हमारे यहाँ आश्विन या कुआर के कृष्ण-पक्ष के पूरे पन्द्रह दिन (मतान्तर से 16 दिन) विशेष रूप से सुरक्षित किए हैं। इस पूजा के लिए कुछ मुख्य बातें इस प्रकार है –
क्रमांक | विधि |
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(क) | पितृ-पक्ष के दिनों में अपने स्वर्गीय पिता, पितामह, प्रपितामह तथा वृद्ध प्रपितामह और स्वर्गीय माता, मातामह, प्रमातामह एवं वृद्ध-प्रमातामह के नाम-गोत्र का उच्चारण करते हुए अपने हाथों की अञ्जुली से जल प्रदान करना चाहिए (यदि किसी कारण-वश किसी पीढ़ी के पितर का नाम ज्ञात न हो सके, तो भावना से स्मरण कर जल देना चाहिए)। |
(ख) | पितरों को जल देने के लिए विशेष वस्तुओं के प्रबन्ध की आवश्यकता नहीं है। केवल 1- कुश, 2- काले तिल, 3- अक्षत (चावल), 4- गंगा-जल और 5- श्वेत-पुष्प पर्याप्त हैं। इन्हीं से श्रद्धा-पूर्वक जल प्रदान से पितर अल्प समय में सन्तुष्ट हो जाते हैं और कल्याण हेतु आशीर्वाद देते हैं। |
(ग) | स्कन्द-महा-पुराण’ में भगवान शिव पार्वती जी से कहते हैं कि – ‘हे महादेवि ! जो ‘श्राद्ध नहीं करता, उसकी पूजा को मैं ग्रहण नहीं करता। भगवान हरि भी नहीं ग्रहण करते हैं। |
(घ) | यदि किसी को किसी कारण-वश माता-पिता की मृत्यु-तिथि का ज्ञान न हो, तो उसे ‘अमावस्या’ को ही वार्षिक-श्राद्ध करना चाहिए। |
(ङ) | श्राद्ध-कर्त्ता को केवल एक समय भोजन करना चाहिए अर्थात रात्रि को भोजन नहीं करना चाहिए। श्राद्ध के दिन ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। [2] |
भूतयज्ञ-पञ्चबलि
भूतयज्ञ के निमित्त पञ्चबलि प्रक्रिया की जाती है। विभिन्न योनियों में संव्याप्त जीव चेतना की तुष्टि हेतु भूतयज्ञ किया जाता है। अलग-अलग पत्तों या एक ही बड़ी पत्तल पर, पाँच स्थानों पर भोज्य पदार्थ रखे जाते हैं। उरद-दाल की टिकिया तथा दही इसके लिए रखा जाता है। पाँचों भाग रखें। क्रमशः मन्त्र बोलते हुए एक-एक भाग पर अक्षत छोड़कर बलि समपिर्त करें।
- गोबलि- पवित्रता की प्रतीक गऊ के निमित्त- ॐ सौरभेय्यः सवर्हिताः, पवित्राः पुण्यराशयः। प्रतिगृह्णन्तु में ग्रासं, गावस्त्रैलोक्यमातरः॥ इदं गोभ्यः इदं न मम।
- कुक्कुरबलि- कत्तर्व्यनिष्ठा के प्रतीक श्वान के निमित्त- ॐ द्वौ श्वानौ श्यामशबलौ, वैवस्वतकुलोद्भवौ। ताभ्यामन्नं प्रदास्यामि, स्यातामेतावहिंसकौ॥ इदं श्वभ्यां इदं न मम॥
- काकबलि- मलीनता निवारक काक के निमित्त- ॐ ऐन्द्रवारुणवायव्या, याम्या वै नैऋर्तास्तथा। वायसाः प्रतिगृह्णन्तु, भमौ पिण्डं मयोज्झतिम्। इदं वायसेभ्यः इदं न मम॥
- देवबलि- देवत्व संवधर्क शक्तियों के निमित्त- ॐ देवाः मनुष्याः पशवो वयांसि, सिद्धाः सयक्षोरगदैत्यसंघाः। प्रेताः पिशाचास्तरवः समस्ता, ये चान्नमिच्छन्ति मया प्रदत्तम्॥ इदं अन्नं देवादिभ्यः इदं न मम।
- पिपीलिकादिबलि- श्रमनिष्ठा एवं सामूहिकता की प्रतीक चींटियों के निमित्त- ॐ पिपीलिकाः कीटपतंगकाद्याः, बुभुक्षिताः कमर्निबन्धबद्धाः। तेषां हि तृप्त्यथर्मिदं मयान्नं, तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु॥ इदं अन्नं पिपीलिकादिभ्यः इदं न मम। बाद में गोबलि गऊ को, कुक्कुरबलि श्वान को, काकबलि पक्षियों को, देवबलि कन्या को तथा पिपीलिकादिबलि चींटी आदि को खिला दिया जाए।
मनुष्ययज्ञ-श्राद्ध संकल्प
इसके अन्तगर्त दान का विधान है। दिवंगत आत्मा ने उत्तराधिकार में जो छोड़ा है, उसमें से उतना अंश ही स्वीकार करना चाहिए, जो पीछे वाले बिना कमाऊ बालकों या स्त्रियों के निवार्ह के लिए अनिवार्य हो-कमाऊ सन्तान को उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। दिवंगत आत्मा के अन्य अहसान ही इतने हैं कि उन्हें अनेक जन्मों तक चुकाना पड़ेगा, फिर नया ऋण भारी ब्याज सहित चुकाने के लिए क्यों सिर पर लादा जाए। असमर्थ स्थिति में अभिभावकों की सेवा स्वीकार करना उचित था, पर जब वयस्क और कमाऊ हो गये, तो फिर उसे लेकर 'हराम-खाऊ' मुफ़्तखोरों में अपनी गणना क्यों कराई जाए? पूवर्जों के छोड़े हुए धन में कुछ अपनी ओर से श्रद्धाञ्जलि मिलाकर उनकी आत्मा के कल्याण के लिए दान कर देना चाहिए, यही सच्चा श्राद्ध है। पानी का तर्पण और आटे की गोली का पिण्डदान पयार्प्त नहीं, वह क्रिया कृत्य तो मात्र प्रतीक हैं। श्रद्धा की वास्तविक परीक्षा उस श्राद्ध में है कि पूवर्जों की कमाई को उन्हीं की सद्गति के लिए, सत्कर्मो के लिए दान रूप में समाज को वापस कर दिया जाए। अपनी कमाई का जो सदुपयोग, मोह या लोभवश स्वर्गीय आत्मा नहीं कर सकी थी, उस कमी की पूर्ति उसके उत्तराधिकारियों को कर देनी चाहिए। प्राचीनकाल में ब्राह्मण का व्यक्तित्व एक समग्र संस्था का प्रतिरूप था। उन्हें जो दिया जाता था, उसमें से न्यूनतम निवार्ह लेकर शेष को समाज की सत्प्रवृत्तियों में खर्च करते थे। अपना निवार्ह भी इसलिए लेते थे कि उन्हें निरन्तर परमार्थ प्रयोजनों में ही लगा रहना पड़ता था। आज वैसे ब्राह्मण नहीं है, इसलिए उनका ब्रह्मभोज भी साँप के चले जाने पर लकीर पीटने की तरह है। दोस्तों-रिश्तेदारों को मृत्यु के उपलक्ष्य में दावत खिलाना मूखर्ता और उनका खाना निलर्ज्ज्ता है, इसलिए मृतकभोज की विडम्बना में न फँसकर श्राद्धधन परमार्थ प्रयोजन के लिए लगा देना चाहिए, जिससे जनमानस में सद्ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न हो और वे कल्याणकारी सत्पथ पर चलने की प्रेरणा प्राप्त करें, यही सच्चा श्राद्ध है। कन्या भोजन, दीन-अपाहिज, अनाथों को ज़रूरत की चीज़ें देना, इस प्रक्रिया के प्रतीकात्मक उपचार हैं। इसके लिए तथा लोक हितकारी पारमाथिर्क कार्यो ( वृक्षारोपण, विद्यालय निर्माण) के लिए दिये जाने वाले दान की घोषणा श्राद्ध संकल्प के साथ की जानी चाहिए। संकल्प॥
नामाहं...
नामकमृतात्मनः शान्ति-सद्गति-निमित्तं लोकोपयोगिकायार्थर्...
परिमाणे धनदानस्य कन्याभोजनस्य वा श्रद्धापूवर्कं संकल्पम् अहं करिष्ये॥
संकल्प के बाद निम्न मन्त्र बोलते हुए अक्षत-पुष्प देव वेदी पर चढ़ाएँ।
ॐ उशन्तस्त्वा निधीमहि, उशन्तः समिधीमहि।
उशन्नुशतऽ आ वह, पितृन्हविषेऽअत्तवे॥
ॐ दक्षिणामारोह त्रिष्टुप् त्वाऽवतु बृहत्साम, पञ्चदशस्तोमो ग्रीष्मऽऋतुः क्षत्रं द्रविणम्॥[3]
पञ्चयज्ञ पूरे करने के बाद अग्नि स्थापना करके गायत्री-यज्ञ सम्पन्न करें, फिर लिखे मन्त्र से 3 विशेष आहुतियाँ दें।
ॐ सूयर्पुत्राय विद्महे, महाकालाय धीमहि।
तन्नो यमः प्रचोदयात् स्वाहा।
इदं यमाय इदं न मम॥[4]
इसके बाद स्विष्टकृत - पूणार्हुति आदि करते हुए समापन करें। विसजर्न के पूर्व पितरों तथा देवशक्तियों के लिए भोज्य पदार्थ थाली में सजाकर नैवेद्य अपिर्त करें, फिर क्रमशः क्षमा-प्राथर्ना, पिण्ड विसजर्न, पितृ विसजर्न तथा देव विसजर्न करें।
पौराणिक महत्त्व
वैदिक यज्ञों में अश्वमेध यज्ञ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह महाक्रतुओं में से एक है।
- ऋग्वेद में इससे सम्बन्धित दो मन्त्र हैं।
- शतपथ ब्राह्मण[5] में इसका विशद वर्णन प्राप्त होता है।
- तैत्तिरीय ब्राह्मण[6],
- कात्यायनीय श्रोतसूत्र[7],
- आपस्तम्ब:[8],
- आश्वलायन[9],
- शंखायन[10] तथा दूसरे समान ग्रन्थों में इसका वर्णन प्राप्त होता है।
- महाभारत[11] में महाराज युधिष्ठिर द्वारा कौरवौं पर विजय प्राप्त करने के पश्चात पाप मोचनार्थ किये गये अश्वमेध यज्ञ का विशद वर्णन है।
यज्ञ की महिमा
- ब्रह्म वैवर्त पुराण में सावित्री और यमराज संवाद में वर्णन आया-
- भारत-जैसे पुण्यक्षेत्र में जो अश्वमेध यज्ञ करता है, वह दीर्घकाल तक इन्द्र के आधे आसन पर विराजमान रहता है।
- राजसूय यज्ञ करने से मनुष्य को इससे चौगुना फल मिलता है।
- सम्पूर्ण यज्ञों से भगवान विष्णु का यज्ञ श्रेष्ठ कहा गया है।
- ब्रह्मा ने पूर्वकाल में बड़े समारोह के साथ इस यज्ञ का अनुष्ठान किया था। उसी यज्ञ में दक्ष प्रजापति और शंकर में कलह मच गया था। ब्राह्मणों ने क्रोध में आकर नन्दी को शाप दिया था और नन्दी ने ब्राह्मणों को। यही कारण है कि भगवान शंकर ने दक्ष के यज्ञ को नष्ट कर डाला।
- पूर्वकाल में दक्ष, धर्म, कश्यप, शेषनाग, कर्दममुनि, स्वायम्भुवमनु, उनके पुत्र प्रियव्रत, शिव, सनत्कुमार, कपिल तथा ध्रुव ने विष्णुयज्ञ किया था। उसके अनुष्ठान से हज़ारों राजसूय यज्ञों का फल निश्चित रूप से मिल जाता है। वह पुरुष अवश्य ही अनेक कल्पों तक जीवन धारण करने वाला तथा जीवन्मुक्त होता है।
- जिस प्रकार देवताओं में विष्णु, वैष्णव पुरुषों में शिव, शास्त्रों में वेद, वर्णों में ब्राह्मण, तीर्थों में गंगा, पुण्यात्मा पुरुषों में वैष्णव, व्रतों में एकादशी, पुष्पों में तुलसी, नक्षत्रों में चन्द्रमा, पक्षियों में गरुड़, स्त्रियों में भगवती मूल प्रकृति राधा, आधारों में वसुन्धरा, चंचल स्वभाववाली इन्दियों में मन, प्रजापतियों में ब्रह्मा, प्रजेश्वरों में प्रजापति, वनों में वृन्दावन, वर्षों में भारतवर्ष, श्रीमानों में लक्ष्मी, विद्वानों में सरस्वती देवी, पतिव्रताओं में भगवती दुर्गा और सौभाग्यवती श्रीकृष्ण पत्नियों में श्रीराधा सर्वोपरि मानी जाती हैं; उसी प्रकार सम्पूर्ण यज्ञों में 'विष्णु यज्ञ' श्रेष्ठ माना जाता है।
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