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"कथनी-करणी का अंग -कबीर" के अवतरणों में अंतर

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जैसी मुख तैं नीकसै, तैसी चालै चाल ।
 
जैसी मुख तैं नीकसै, तैसी चालै चाल ।
 
पारब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल ॥1॥
 
पारब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल ॥1॥
 
भावार्थ - मुँह से जैसी बात निकले, उसीपर यदि आचरण किया जाय, वैसी ही चाल चली जाय, तो भगवान् तो अपने पास ही खड़ा है, और वह उसी क्षण निहाल कर देगा ।
 
  
 
पद गाए मन हरषियां, साषी कह्यां अनंद ।
 
पद गाए मन हरषियां, साषी कह्यां अनंद ।
 
सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद ॥2॥
 
सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद ॥2॥
 
भावार्थ - मन हर्ष में डूब जाता है पद गाते हुए, और साखियाँ कहने में भी आनन्द आता है । लेकिन सारतत्व को नहीं समझा, और हरिनाम का मर्म न समझा, तो गले में फन्दा ही पड़नेवाला है ।
 
  
 
मैं जाण्यूं पढिबौ भलो, पढ़बा थैं भलौ जोग ।
 
मैं जाण्यूं पढिबौ भलो, पढ़बा थैं भलौ जोग ।
 
राम-नाम सूं प्रीति करि, भल भल नींदौ लोग ॥3॥
 
राम-नाम सूं प्रीति करि, भल भल नींदौ लोग ॥3॥
 
भावार्थ - पहले मैं समझता था कि पोथियों का पढ़ना बड़ा अच्छा है, फिर सोचा कि पढ़ने से योग-साधन कहीं अच्छा है । पर अब तो इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि रामनाम से ही सच्ची प्रीति की जाय, भले ही अच्चै-अच्छे लोग मेरी निन्दा करें ।
 
  
 
`कबीर' पढ़िबो दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ ।
 
`कबीर' पढ़िबो दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ ।
 
बावन आषिर सोधि करि, `ररै' `ममै' चित्त लाइ ॥4॥
 
बावन आषिर सोधि करि, `ररै' `ममै' चित्त लाइ ॥4॥
  
भावार्थ - कबीर कहते हैं --पढ़ना लिखना दूर कर, किताबों को पानी में बहा दे । बावन अक्षरों में से तू तो सार के ये दो अक्षर ढूँढ़कर ले ले--`रकार' और `मकार'। और इन्हीं में अपने चित्त को लगा दे ।
 
  
 
पोथी पढ़ पढ़ जग मुवा, पंडित भया न कोय ।
 
पोथी पढ़ पढ़ जग मुवा, पंडित भया न कोय ।
 
ऐकै आषिर पीव का, पढ़ै सो पंडित होइ ॥5॥
 
ऐकै आषिर पीव का, पढ़ै सो पंडित होइ ॥5॥
 
भावार्थ - पोथियाँ पढ़-पढ़कर दुनिया मर गई, मगर कोई पण्डित नहीं हुआ । पण्डित तो वही हो सकता है, जिसने प्रियतम प्रभु का केवल एक अक्षर पढ़ लिया ।[पाठान्तर है `ढाई आखर प्रेम का' अर्थात प्रेम शब्द के जिसने ढाई अक्षर पढ़ लिये,अपने जीवन में उतार लियर, उसी को पण्डित कहना चाहिए ।]
 
  
 
करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि-करि तुंड ।
 
करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि-करि तुंड ।
 
जानें-बूझै कुछ नहीं, यौंहीं आंधां रूंड ॥6॥
 
जानें-बूझै कुछ नहीं, यौंहीं आंधां रूंड ॥6॥
 
भावार्थ - हमने देखा ऐसों को, जो मुख को ऊँचा करके जोर-जोर से कीर्तन करते हैं । जानते-समझते तो वे कुछ भी नहीं कि क्या तो सार है और क्या असार । उन्हें अन्धा कहा जाय, या कि बिना सिर का केवल रुण्ड ?
 
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
 
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07:42, 5 सितम्बर 2011 का अवतरण

कथनी-करणी का अंग -कबीर
संत कबीरदास
कवि कबीर
जन्म 1398 (लगभग)
जन्म स्थान लहरतारा ताल, काशी
मृत्यु 1518 (लगभग)
मृत्यु स्थान मगहर, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ साखी, सबद और रमैनी
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
कबीर की रचनाएँ

जैसी मुख तैं नीकसै, तैसी चालै चाल ।
पारब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल ॥1॥

पद गाए मन हरषियां, साषी कह्यां अनंद ।
सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद ॥2॥

मैं जाण्यूं पढिबौ भलो, पढ़बा थैं भलौ जोग ।
राम-नाम सूं प्रीति करि, भल भल नींदौ लोग ॥3॥

`कबीर' पढ़िबो दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ ।
बावन आषिर सोधि करि, `ररै' `ममै' चित्त लाइ ॥4॥


पोथी पढ़ पढ़ जग मुवा, पंडित भया न कोय ।
ऐकै आषिर पीव का, पढ़ै सो पंडित होइ ॥5॥

करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि-करि तुंड ।
जानें-बूझै कुछ नहीं, यौंहीं आंधां रूंड ॥6॥




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