"हितवृंदावन दास" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
छो (Text replacement - "संगृहीत" to "संग्रहीत")
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
हितवृंदावन दास [[पुष्कर]] क्षेत्र के रहने वाले गौड़ [[ब्राह्मण]] थे और [[संवत्]] 1765 में उत्पन्न हुए थे। ये [[राधावल्लभ सम्प्रदाय|राधाबल्लभीय]] गोस्वामी हितरूपजी के शिष्य थे। तत्कालीन गोसाईं जी के पिता के गुरु भ्राता होने के कारण गोसाईं जी की देखा देखी सब लोग इन्हें 'चाचाजी' कहने लगे। ये 'महाराज नागरीदास' जी के भाई बहारदुरसिंह जी के आश्रय में रहते थे, पर जब राजकुल में विग्रह उत्पन्न हुआ तब ये 'कृष्णगढ़' छोड़कर [[वृंदावन]] चले आए और अंत समय तक वहीं रहे।  
 
हितवृंदावन दास [[पुष्कर]] क्षेत्र के रहने वाले गौड़ [[ब्राह्मण]] थे और [[संवत्]] 1765 में उत्पन्न हुए थे। ये [[राधावल्लभ सम्प्रदाय|राधाबल्लभीय]] गोस्वामी हितरूपजी के शिष्य थे। तत्कालीन गोसाईं जी के पिता के गुरु भ्राता होने के कारण गोसाईं जी की देखा देखी सब लोग इन्हें 'चाचाजी' कहने लगे। ये 'महाराज नागरीदास' जी के भाई बहारदुरसिंह जी के आश्रय में रहते थे, पर जब राजकुल में विग्रह उत्पन्न हुआ तब ये 'कृष्णगढ़' छोड़कर [[वृंदावन]] चले आए और अंत समय तक वहीं रहे।  
 
;समय
 
;समय
संवत् 1800 से लेकर संवत् 1844 तक की इनकी रचनाओं का पता लगता है। जैसे [[सूरदास]] के सवा लाख पद बनाने की जनश्रुति है, वैसे ही इनके भी एक लाख पद और [[छंद]] बनाने की बात प्रसिद्ध है। इनमें से 20,000 के लगभग पद्य तो इनके मिले हैं। इन्होंने नखशिख, अष्टयाम, समयप्रबंध, छद्मलीला आदि असंख्य प्रसंगों का विशद वर्णन किया है। छद्मलीलाओं का वर्णन तो बड़ा ही अनूठा है। इनके ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुए हैं। रागरत्नाकर आदि ग्रंथों में इनके बहुत से पद संगृहीत मिलते हैं। छत्रपुर के राजपुस्तकालय में इनकी बहुत सी रचनाएँ सुरक्षित हैं।
+
संवत् 1800 से लेकर संवत् 1844 तक की इनकी रचनाओं का पता लगता है। जैसे [[सूरदास]] के सवा लाख पद बनाने की जनश्रुति है, वैसे ही इनके भी एक लाख पद और [[छंद]] बनाने की बात प्रसिद्ध है। इनमें से 20,000 के लगभग पद्य तो इनके मिले हैं। इन्होंने नखशिख, अष्टयाम, समयप्रबंध, छद्मलीला आदि असंख्य प्रसंगों का विशद वर्णन किया है। छद्मलीलाओं का वर्णन तो बड़ा ही अनूठा है। इनके ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुए हैं। रागरत्नाकर आदि ग्रंथों में इनके बहुत से पद संग्रहीत मिलते हैं। छत्रपुर के राजपुस्तकालय में इनकी बहुत सी रचनाएँ सुरक्षित हैं।
 
इतने अधिक परिमाण में होने पर भी इनकी रचना शिथिल या भरती की नहीं है। भाषा पर इनका पूरा अधिकार प्रकट होता है। लीलाओं के अंतर्गत वचन और व्यापार की योजना भी इनकी कल्पना की स्फूर्ति का परिचय देती है -
 
इतने अधिक परिमाण में होने पर भी इनकी रचना शिथिल या भरती की नहीं है। भाषा पर इनका पूरा अधिकार प्रकट होता है। लीलाओं के अंतर्गत वचन और व्यापार की योजना भी इनकी कल्पना की स्फूर्ति का परिचय देती है -
  

08:24, 21 मई 2017 के समय का अवतरण

हितवृंदावन दास पुष्कर क्षेत्र के रहने वाले गौड़ ब्राह्मण थे और संवत् 1765 में उत्पन्न हुए थे। ये राधाबल्लभीय गोस्वामी हितरूपजी के शिष्य थे। तत्कालीन गोसाईं जी के पिता के गुरु भ्राता होने के कारण गोसाईं जी की देखा देखी सब लोग इन्हें 'चाचाजी' कहने लगे। ये 'महाराज नागरीदास' जी के भाई बहारदुरसिंह जी के आश्रय में रहते थे, पर जब राजकुल में विग्रह उत्पन्न हुआ तब ये 'कृष्णगढ़' छोड़कर वृंदावन चले आए और अंत समय तक वहीं रहे।

समय

संवत् 1800 से लेकर संवत् 1844 तक की इनकी रचनाओं का पता लगता है। जैसे सूरदास के सवा लाख पद बनाने की जनश्रुति है, वैसे ही इनके भी एक लाख पद और छंद बनाने की बात प्रसिद्ध है। इनमें से 20,000 के लगभग पद्य तो इनके मिले हैं। इन्होंने नखशिख, अष्टयाम, समयप्रबंध, छद्मलीला आदि असंख्य प्रसंगों का विशद वर्णन किया है। छद्मलीलाओं का वर्णन तो बड़ा ही अनूठा है। इनके ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुए हैं। रागरत्नाकर आदि ग्रंथों में इनके बहुत से पद संग्रहीत मिलते हैं। छत्रपुर के राजपुस्तकालय में इनकी बहुत सी रचनाएँ सुरक्षित हैं। इतने अधिक परिमाण में होने पर भी इनकी रचना शिथिल या भरती की नहीं है। भाषा पर इनका पूरा अधिकार प्रकट होता है। लीलाओं के अंतर्गत वचन और व्यापार की योजना भी इनकी कल्पना की स्फूर्ति का परिचय देती है -

मिठबोलनी नवल मनिहारी।
भौंहें गोल गरूर हैं, याके नयन चुटीले भारी।
चूरी लखि मुख तें कहै, घूँघट में मुसकाति।
ससि मनु बदरी ओट तें दुरि दरसत यहि भाँति।
चूरो बड़ो है मोल को, नगर न गाहक कोय।
मो फेरी ख़ाली परी, आई सब घर टोय

प्रीतम तुम मो दृगन बसत हो।
कहा भरोसे ह्वै पूछत हौ, कै चतुराई करि जु हँसत हौ
लीजै परखि स्वरूप आपनो, पुतरिन में तुमहीं तौ लसतहौ।
वृंदावन हित रूप रसिक तुम, कुंज लड़ावत हिय हुलसतहौ [1]



पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनिहारी लीला से

आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 245।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख