भूल-ग़लती -गजानन माधव मुक्तिबोध

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भूल-ग़लती -गजानन माधव मुक्तिबोध
गजानन माधव मुक्तिबोध
कवि गजानन माधव 'मुक्तिबोध'
जन्म 13 नवंबर, 1917
जन्म स्थान श्यौपुर, ग्वालियर
मृत्यु 11 सितंबर 1964
मृत्यु स्थान दिल्ली
मुख्य रचनाएँ कविता संग्रह- चाँद का मुँह टेढ़ा है, भूरी भूरी खाक धूल कहानी संग्रह- काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी आलोचना- कामायनी : एक पुनर्विचार, नई कविता का आत्मसंघर्ष, नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, समीक्षा की समस्याएँ, एक साहित्यिक की डायरी रचनावली- मुक्तिबोध रचनावली (6 खंडों में)
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
गजानन माधव मुक्तिबोध की रचनाएँ

 भूल-गलती
आज बैठी है जिरहबख्तर पहनकर
तख्त पर दिल के;
चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक,
आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी,
खड़ी हैं सिर झुकाए
          सब कतारें
                   बेजुबाँ बेबस सलाम में,
अनगिनत खंभों व मेहराबों-थमे
                           दरबारे आम में।

सामने
बेचैन घावों की अजब तिरछी लकीरों से कटा
चेहरा
कि जिस पर काँप
दिल की भाप उठती है...
पहने हथकड़ी वह एक ऊँचा कद
समूचे जिस्म पर लत्तर
झलकते लाल लंबे दाग
बहते खून के।
वह कैद कर लाया गया ईमान...
सुलतानी निगाहों में निगाहें डालता,
बेखौफ नीली बिजलियों को फेंकता
खामोश !!
                        सब खामोश
मनसबदार,
शाइर और सूफी,
अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी
आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार
                         हैं खामोश !!
नामंजूर,
उसको जिंदगी की शर्म की सी शर्त
नामंजूर
हठ इनकार का सिर तान...खुद-मुख्तार
कोई सोचता उस वक्त -
छाये जा रहे हैं सल्तनत पर घने साये स्याह,
सुलतानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का,
वो - रेत का-सा ढेर - शाहंशाह,
शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा !!
(लेकिन, ना
जमाना साँप का काटा)
भूल (आलमगीर)
मेरी आपकी कमजोरियों के स्याह
लोहे का जिरहबख्तर पहन, खूँख्वार
हाँ खूँख्वार आलीजाह,
वो आँखें सचाई की निकाले डालता,
सब बस्तियाँ दिल की उजाड़े डालता
करता हमें वह घेर
बेबुनियाद, बेसिर-पैर...
हम सब कैद हैं उसके चमकते तामझाम में
                               शाही मुकाम में !!

इतने में हमीं में से
अजीब कराह-सा कोई निकल भागा
भरे दरबारे-आम में मैं भी
सँभल जागा
कतारों में खड़े खुदगर्ज-बा-हथियार
बख्तरबंद समझौते
सहमकर, रह गए,
दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिए,
दुमुँहेपन के सौ तजुर्बों की बुजुर्गी से भरे,
दढ़ियल सिपहसालार संजीदा
                      सहमकर रह गये !!

लेकिन, उधर उस ओर,
कोई, बुर्ज के उस तरफ जा पहुँचा,
अँधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि यह बेनाम
बेमालूम दर्रों के इलाके में
(सचाई के सुनहले तेज अक्सों के धुँधलके में)
मुहैया कर रहा लश्कर;
हमारी हार का बदला चुकाने आएगा
संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,
हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट होकर विकट हो जायगा !!


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