"अर्जुन की प्रतिज्ञा -मैथिलीशरण गुप्त" के अवतरणों में अंतर

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मानों हवा के वेग से सोता हुआ सागर जगा।
 
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मुख-बाल-रवि-सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ,
 
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प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ ?
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युग-नेत्र उनके जो अभी थे पूर्ण जल की धार-से,
 
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अब रोष के मारे हुए, वे दहकते अंगार-से ।
 
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उन्मुक्त बस उसके लिये रौरव नरक का द्वार है।
 
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उपयुक्त उस खल को न यद्यपि मृत्यु का भी दंड है,
 
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पर मृत्यु से बढ़कर न जग में दण्ड और प्रचंड है ।
 
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तो सत्य कहता हूँ कभी शस्त्रास्त्र फिर धारूँ न मैं।
 
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साक्षी रहे सुन ये वचन रवि, शशि, अनल, अंबर, मही।
 
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सूर्यास्त से पहले न जो मैं कल जयद्रथ-वध करूँ,
 
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अर्जुन की प्रतिज्ञा -मैथिलीशरण गुप्त
मैथिलीशरण गुप्त
कवि मैथिलीशरण गुप्त
जन्म 3 अगस्त, 1886
मृत्यु 12 दिसंबर, 1964
मृत्यु स्थान चिरगाँव, झाँसी
मुख्य रचनाएँ पंचवटी, साकेत, यशोधरा, द्वापर, झंकार, जयभारत
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएँ

उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उसका लगा,
मानों हवा के वेग से सोता हुआ सागर जगा।
मुख-बाल-रवि-सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ,
प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ?

युग-नेत्र उनके जो अभी थे पूर्ण जल की धार-से,
अब रोष के मारे हुए, वे दहकते अंगार-से ।
निश्चय अरुणिमा-मित्त अनल की जल उठी वह ज्वाल सी,
तब तो दृगों का जल गया शोकाश्रु जल तत्काल ही।

साक्षी रहे संसार करता हूँ प्रतिज्ञा पार्थ मैं,
पूरा करूँगा कार्य सब कथानुसार यथार्थ मैं।
जो एक बालक को कपट से मार हँसते हैँ अभी,
वे शत्रु सत्वर शोक-सागर-मग्न दीखेंगे सभी।

अभिमन्यु-धन के निधन से कारण हुआ जो मूल है,
इससे हमारे हत हृदय को, हो रहा जो शूल है,
उस खल जयद्रथ को जगत् में मृत्यु ही अब सार है,
उन्मुक्त बस उसके लिये रौरव नरक का द्वार है।

उपयुक्त उस खल को न यद्यपि मृत्यु का भी दंड है,
पर मृत्यु से बढ़कर न जग में दण्ड और प्रचंड है ।
अतएव कल उस नीच को रण-मध्य जो मारूँ न मैं,
तो सत्य कहता हूँ कभी शस्त्रास्त्र फिर धारूँ न मैं।

अथवा अधिक कहना वृथा है, पार्थ का प्रण है यही,
साक्षी रहे सुन ये वचन रवि, शशि, अनल, अंबर, मही।
सूर्यास्त से पहले न जो मैं कल जयद्रथ-वध करूँ,
तो शपथ करता हूँ स्वयं मैं ही अनल में जल मरूँ।

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