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भगवत रसिक 'टट्टी संप्रदाय' के महात्मा 'स्वामी ललित मोहनी दास' के शिष्य थे। इन्होंने गद्दी का अधिकार नहीं लिया और निर्लिप्त भाव से भगवद्भजन में लगे रहे। अनुमान से इनका जन्म संवत् 1795 के लगभग हुआ। अत: इनका रचनाकाल संवत् 1830 और 1850 के बीच माना जा सकता है। इन्होंने अपनी उपासना से संबंध रखनेवाले अनन्य प्रेमरसपूर्ण बहुत से पद, कवित्त, कुंडलियाँ, छप्पय आदि रचे हैं जिनमें एक ओर तो वैराग्य का भाव और दूसरी ओर अनन्य प्रेम का भाव छलकता है। इनका हृदय प्रेमरसपूर्ण था। इसी से इन्होंने कहा है कि 'भगवत रसिक रसिक की बातें रसिक बिना कोउ समुझि सकै ना।' ये कृष्णभक्ति में लीन एक प्रेमयोगी थे। इन्होंने प्रेमतत्व का निरूपण बड़े ही अच्छे ढंग से किया है -

कुंजन तें उठि प्रात गात जमुना में धोवैं।
निधुवन करि दंडवत बिहारी को मुख जोवैं
करैं भावना बैठि स्वच्छ थल रहित उपाधा।
घर घर लेय प्रसाद लगै जब भोजन साधा
संग करै भगवत रसिक, कर करवा गूदरि गरे।
बृंदावन बिहरत फिरै, जुगल रूप नैनन भरै

हमारो वृंदावन उर और।
माया काल तहाँ नहिं व्यापै जहाँ रसिक सिरमौर
छूटि जाति सत असत वासना, मन की दौरादौर।
भगवत रसिक बतायो श्रीगुरु अमल अलौकिक ठौर


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 246।

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