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मोहन हो-हो, हो-हो होरी ।
 
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काल्ह हमारे आँगन गारी दै आयौ, सो को री ॥
 
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अब क्यों दुर बैठे जसुदा ढिंग, निकसो कुंजबिहारी ।
 
अब क्यों दुर बैठे जसुदा ढिंग, निकसो कुंजबिहारी ।
उमँगि-उमँगि आई गोकुल की , वे सब भई धन बारी ॥
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उमँगि-उमँगि आई गोकुल की, वे सब भई धन बारी ॥
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तबहिं लला ललकारि निकारे, रूप सुधा की प्यासी ।
 
तबहिं लला ललकारि निकारे, रूप सुधा की प्यासी ।
 
लपट गईं घनस्याम लाल सों, चमकि-चमकि चपला सी ॥
 
लपट गईं घनस्याम लाल सों, चमकि-चमकि चपला सी ॥
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काजर दै भजि भार भरु वाके, हँसि-हँसि ब्रज की नारी ।
 
काजर दै भजि भार भरु वाके, हँसि-हँसि ब्रज की नारी ।
 
कहै ’रसखान’ एक गारी पर, सौ आदर बलिहारी ॥  
 
कहै ’रसखान’ एक गारी पर, सौ आदर बलिहारी ॥  
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11:00, 14 दिसम्बर 2013 के समय का अवतरण

मोहन हो-हो, हो-हो होरी -रसखान
रसखान की समाधि, महावन, मथुरा
कवि रसखान
जन्म सन् 1533 से 1558 बीच (लगभग)
जन्म स्थान पिहानी, उत्तर प्रदेश
मृत्यु प्रामाणिक तथ्य अनुपलब्ध
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
रसखान की रचनाएँ

मोहन हो-हो, हो-हो होरी ।
काल्ह हमारे आँगन गारी दै आयौ, सो को री ॥

अब क्यों दुर बैठे जसुदा ढिंग, निकसो कुंजबिहारी ।
उमँगि-उमँगि आई गोकुल की, वे सब भई धन बारी ॥

तबहिं लला ललकारि निकारे, रूप सुधा की प्यासी ।
लपट गईं घनस्याम लाल सों, चमकि-चमकि चपला सी ॥

काजर दै भजि भार भरु वाके, हँसि-हँसि ब्रज की नारी ।
कहै ’रसखान’ एक गारी पर, सौ आदर बलिहारी ॥

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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