रसखान का कला-पक्ष

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रसखान का काव्य-रूप

काव्य के भेद के संबंध में विद्वानों के अपने-अपने दृष्टिकोण हैं।

  • आचार्य विश्वनाथ ने श्रव्य काव्य के पद्यमय स्वरूप को लिया है। उनके अनुसार पद्यात्मक काव्य वह है जिसके पद छंदोबद्ध हुआ करते हैं। यह पद्यात्मक काव्य भी कई प्रकार का हुआ करता है, जैसे-
  1. मुक्तक- जिसके पद्य (अपने अर्थ में) अन्य किसी पद्य की आकांक्षा से मुक्त अथवा स्वतंत्र हुआ करते हैं,
  2. युग्मक- जिसमें दो पद्यों की रचना पर्याप्त मानी जाया करती है तथा जिसकी रूपरेखा पद्य-चटुष्क में पूर्ण हो जाती है,
  3. कुलक- जिसमें पांच पद्यों का एक कुल दिखाई दिया करता है।

संक्षेप में काव्य के दो भेद हैं- प्रबंध और मुक्तक, मुक्तक भी दो प्रकार के हैं- गीत और अगीत।
प्रबंध काव्य
जिस रचना में कोई कथा क्रमबद्ध रूप से कही जाती है वह 'प्रबंध काव्य' कहलाता है। प्रबंध काव्य तीन प्रकार का होता है-

  1. एक तो ऐसी रचना जिसमें पूर्ण जीवन वृत्त विस्तार के साथ वर्णित होता है। ऐसी रचना को 'महाकाव्य' कहते हैं।
  2. जिस रचना में खंड जीवन महाकाव्य की ही शैली में वर्णित होता है, ऐसी रचना को 'खंड काव्य' कहते हैं।
  3. हिन्दी में कुछ ऐसी रचनाएं भी देखी जाती हैं, जिनमें जीवन वृत्त तो पूर्ण लिया जाता है, किंतु महाकाव्य की भांति कथा विस्तार नहीं दिखाई देता। ऐसी रचनाओं में जीवन का कोई एक पक्ष विस्तार के साथ प्रदर्शित करने का प्रयत्न किया जाता है। एकार्थ की ही अभिव्यक्ति के कारण ऐसी रचनाएं महाकाव्य और खंडकाव्य के बीच की रचनाएं होती हैं। इन्हें 'एकार्थ' या केवल 'काव्य' कहना चाहिए। रसखान ने इस प्रकार की कोई रचना नहीं की।

मुक्तक
मुक्तक काव्य तारतम्य के बंधन से मुक्त होने के कारण (मुक्तेन मुक्तकम्) मुक्तक कहलाता है और उसका प्रत्येक पद स्वत: पूर्ण होता है। 'मुक्तक' वह स्वच्छंद रचना है जिसके रस का उद्रेक करने के लिए अनुबंध की आवश्यकता नहीं।[1] वास्तव में मुक्तक काव्य का महत्त्वपूर्ण रूप है, जिसमें काव्यकार प्रत्येक छंद में ऐसे स्वतंत्र भावों की सृष्टि करता है, जो अपने आप में पूर्ण होते हैं। मुक्तक काव्य के प्रणेता को अपने भावों को व्यक्त करने के लिए अन्य सहायक छंदों की आवश्यकता अधिक नहीं होती। प्रबंध काव्य की अपेक्षा मुक्तक रचना के लिए कथा की आवश्यकता अधिक होती है, क्योंकि काव्य रूप की दृष्टि से मुक्तक में न तो किसी वस्तु का वर्णन ही होता है और न वह गेय है। यह जीवन के किसी एक पक्ष का अथवा किसी एक दृश्य का या प्रकृति के किसी पक्ष विशेष का चित्र मात्र होता है। इसी से काव्यकार को प्रबंध काव्य की अपेक्षा सफल मुक्तकों की सृष्टि के लिए अधिक कौशल की आवश्यकता पड़ती है। पूर्वा पर प्रसंगों की परवाह किये बिना सूक्ष्म एवं मार्मिक खंड दृश्य अथवा अनुभूति को सफलतापूर्वक प्रस्तुत करने वाली उस रचना को मुक्तक काव्य के नाम से अभिहित किया जाता है- जिसमें न तो कथा का व्यापक प्रवाह रहता है और न ही उसमें क्रमानुसार किसी कथा को सजाकर वर्णन करने का आग्रह होता है, बल्कि मुक्तक काव्य में सूक्ष्मातिसूक्ष्म मार्मिक भावों की अभिव्यक्ति होती है जो स्वयं में पूर्ण तथा अपेक्षाकृत लघु रचना होती है।

मुक्तक के प्रकार
विषय के आधार पर मुक्तक को तीन वर्गों में बांटा गया है- श्रृंगार परक, वीर रसात्मक तथा नीति परक। स्वरूप के आधार पर मुक्तक के गीत, प्रबंध मुक्तक, विषयप्रधान, संघात मुक्तक, एकार्थ प्रबंध तथा मुक्तक प्रबंध आदि भेद किये जा सकते हैं।[2]

रसखान द्वारा प्रयुक्त मुक्तक
रसखान का उद्देश्य किसी खंड काव्य या महाकाव्य की रचना न था। प्रेमोमंग के इस कवि को तो अपने मार्मिक उद्गारों की अभिव्यक्ति करनी थी। उसके लिए मुक्तक से अच्छा माध्यम और क्या हो सकता था। रसखान ने अपने कोमल मार्मिक भावों-रूपी पुष्पों से मुक्तक-रूपी गुलदस्ते को सज़ा दिया। रसखान ने श्रृंगार मुक्तक तथा स्वतंत्र मुक्तक के रूप में ही काव्य की रचना की।[3]

श्रृंगार मुक्तक
श्रृंगार परकमुक्तकों के अंतर्गत ऐहिकतापरक रचनाएं आती हैं जिनमें अधिकतर नायक-नायिका की श्रृंगारी चेष्टाएं, भाव भंगिमा तथा संकेत स्थलों का सरल वर्णन होता है। मिलन काल की मधुर क्रीड़ा तथा वियोग के क्षणों में बैठे आंसू गिराना अथवा विरह की उष्णता से धरती और आसमान को जलाना आदि अत्युक्तिपूर्ण रचनाएं श्रृंगार मुक्तक के अंतर्गत ही होती है। नायक-नायिकाओं की संयोग-वियोग अवस्थाओं तथा विभिन्न ऋतुओं का वर्णन श्रृंगारी मुक्तककारों ने किया है। रसखान के काव्य में श्रृंगार के दर्शन होते हैं। उन्होंने श्रृंगार-मुक्तक में सुन्दर पद्यों की रचना की है। मोहन के मन भाइ गयौ इक भाइ सौ ग्वालिन गोधन गायौ।
ताकों लग्यौ चट, चौहट सो दुरि औचक गात सौं गात छुवायौ।
रसखानि लही इनि चातुरता रही जब लौं घर आयौ।
नैन नचाइ चितै मुसकाइ सु ओट ह्वै जाइ अँगूठा दिखायौ।[4]

अखियाँ अखियाँ सौं सकाइ मिलाइ हिलाइ रिझाइ हियो हरिबो।
बतियाँ चित चौरन चेटक सी रस चारू चरित्रन ऊचरिबौ।
रसखानि के प्रान सुधा भरिबो अधरान पै त्यों अधरा अधिबौ।
इतने सब मैन के मोहनी जंत्र पै मन्त्र बसीकर सी करिबौ॥[5]

नवरंग अनंग भरी छबि सों वह मूरति आँखि गड़ी ही रहै।
बतियां मन की मन ही में रहै, घतिया उन बीच अड़ी ही रहै।
तबहूँ रसखानि सुजान अली नलिनी दल बूँद पड़ी ही रहै।
जिय की नहिं जानत हौं सजनी रजनी अँसुवान लड़ी ही रहै।[6]

स्वतन्त्र मुक्तक
कोष मुक्तक की भांति ही स्वतंत्र मुक्तक विशुद्ध मुक्तक काव्य का एक अंग अथवा भेद है। जिसके लिए न तो संख्या का बंधन है और न एक प्रकार के छंदों का ही। बल्कि कवि की लेखनी से तत्काल निकले प्रत्येक फुटकर छंद को स्वतंत्र मुक्तक की संज्ञा दी जा सकती है। स्वतंत्र मुक्तक काव्य के लिए प्रेम श्रृंगार, नीति तथा वीर रस आदि कोई भी विषय चुना जा सकता है। रसखान ने अधिकांश रचना स्वतंत्र मुक्तक के रूप में की। उन्होंने भक्ति एवं श्रृंगार संबंधी मुक्तक लिखे।
मोर-पखा सिर ऊपर राखिहौ गुंज की माल गरे पहिरौंगी।
ओढ़ि पितंबर लै लकुटी बन गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी।
भाव तो वोहि मेरो रसखानि सो तेरे कहे सब स्वांग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरान धरौंगी॥[7]

रसखान द्वारा रचित कवित्त सवैये मुक्तक रचना की विभिन्न कसौटियों पर पूर्णंरूप से खरे उतरते हैं। प्रत्येक छंद अपने में एक इकाई है। चार पंक्तियों में संपूर्ण चित्र का निर्माण बड़ी कुशलता से किया गया है। चित्रात्मकता, भावातिरेक और उक्ति वैदग्ध का यह सामंजस्य अत्यंत दुर्लभ है।
धूरि भरे अति सोभित स्यामजू तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।
खेलत खात फिरै अंगना पग पैजनी बाजति पीरी कछोटी।
वा छबि को रसखानि बिलोकत वारत काम कला निज कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथसों ले गयौ माखन रोटी॥[8]

रसखान की रचनाओं के अनुशीलन से यह स्पष्टतया सिद्ध होता है कि वे मुक्तक रचनाओं के कवि हैं। वस्तुत: कृष्ण-भक्त कवियों की यह एक अवेक्षणीय विशेषता रही है कि उन्होंने प्रबंध रचना में रूचि नहीं दिखाई। इसका मूल कारण यह था कि उनकी दृष्टि भगवान कृष्ण की सौंदर्य मूर्ति पर ही केन्द्रित थी, शक्ति और शील पर नहीं। रसखान स्वभाव से ही सौंदर्योपासक और प्रेमी जीव थे। अत: उनमें भी इस प्रवृत्ति का पाया जाना सर्वथा स्वाभाविक था। अपने प्रेम विह्वल चित्र के भावों की प्रवाहमयी और प्रेमोत्पादक व्यंजना के लिए मुक्तक का माध्यम ही अधिक उपयुक्त था। रसखान में अपनी स्वानुभूति की मार्मिक अभिव्यक्ति के लिए मुक्तक के इस माध्यम का असाधारण सफलता के साथ प्रयोग किया है। मुक्तक के लिए प्रौढ़, प्रांजल तथा समासयुक्त भाषा आवश्यक है। मुक्तक के छोटे से कलेवर में भावों का सागर भरने के लिए इस प्रकार की भाषा को उत्तम कहा गया है। रसखान की भाषा मृदुल, मंजुल, और गति पूर्ण होते हुए भी बोझिल नहीं है। उसमें व्यक्त एक-एक चित्र अमर है। सानुप्रास शब्दों से भाषा की गतिपूर्ण लय में आंतरिक संगीत ध्वनित होता है। आवेग की तीव्रता के द्वारा कोमल प्रभाव की अभिव्यंजना होती है। साधारण मुक्तक काव्य की गीतात्मकता में हृदय को झंकृत कर देने की शक्ति है। रसखान के मुक्तकों की सबसे बड़ी विशेषता है, भाव एवं अभिव्यंजना की एकतानता, जो उन्हें गीति काव्य के निकट ला देती है।

छंदोयोजना

छंद वह बेखरी (मानवोच्चरित ध्वनि) है, जो प्रत्यक्षीकृत निरंतर तरंग भंगिमा से आह्लाद के साथ भाव और अर्थ को अभिव्यंजना कर सके। भाषा के जन्म के साथ-साथ ही कविता और छंदो का संबंध माना गया है। छंदों द्वारा अनियंत्रित वाणी नियंत्रित तथा ताल युक्त हो जाती है। गद्य की अपेक्षा छंद अधिक काल तक सजाज में प्रचलित रहता है। जो भाव छंदोबद्ध होता है उसे अपेक्षाकृत अधिक अमरत्व मिलता है। भाव को प्रेषित करने के साथ-साथ छंद में मुग्ध करने की शक्ति होती है। छंद के द्वारा कल्पना का रूप सजग होकर मन के सामने प्रत्यक्ष हो जाता है।

सवैया छंद
इस छंद की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों में मतभेद है। डा. नगेन्द्र का विचार है कि सवैया शब्द सपाद का अपभ्रंश रूप है। इसमें छंद के अंतिम चरण को सबसे पूर्व तथा अंत में पढ़ा जाता था अर्थात एक पंक्ति दो बार और तीन पंक्तियां एक बार पढ़ी जाती थीं। इस प्रकार वस्तुत: चार पंक्तियों का पाठ पांच पंक्तियों का-सा हो जाता था। पाठ में 'सवाया' होने से यह छंद सवैया कहलाया। संस्कृत के किसी छंद से भी इसका मेल नहीं हे। अत: यह जनपद-साहित्य का ही छंद बाद के कवियों ने अपनाया होगा, ऐसा अनुमान किया जाता है।[9] यदि यह अनुमान सत्य हो तो प्राकृत, अपभ्रंश आदि में यह छंद अवश्य मिलना चाहिए जो हिन्दी में रूपांतरित हो गया है। किन्तु ऐसे किसी छंद के दर्शन नहीं होते। यह संभव है कि तेईस वर्णों वाले संस्कृत के उपजाति छंद के 14 भेदों में से किसी एक का परिवर्तित रूप सवैया बन गया हो। सवैया 22 अक्षरों से लेकर 28 अक्षरों तक का होता है। उपजाति भी 22 अक्षरों का छंद है। अक्षरों का लघु-गुरु भाव-सवैया में भी परिवर्तन ग्रहण करता है। वैदिक छंदों का भी लौकिक संस्कृत छंदों तक आते बड़ा रूप परिवर्तन हुआ। हो सकता है कि उपजाति का परिवर्तित रूप सवैया हो जो सवाया बोलने से सवैया कहलाया। 'प्राकृतपेंगलम्' में भी सवैयों का रूप मिलता है किन्तु वहां उसे सवैया संज्ञा नहीं दी गई। 'प्राकृतपेंगलम्' का रचनाकाल संवत 1300 के आस-पास माना जाता है।

घनाक्षरी
घनाक्षरी या कवित्त के प्रथम दर्शन भक्तिकाल में होते हैं। हिन्दी में घनाक्षरी वृत्तों का प्रचलन कब से हुआ, इस विषय में निश्चित रूप से कहना कठिन है।

  • चंदबरदाई के पृथ्वीराज रासों में दोहा तथा छप्पय छंदों की प्रचुरता है। सवैया और घनाक्षरी का वहां भी प्रयोग नहीं मिलता। प्रामाणिक रूप से घनाक्षरी का प्रयोग अकबर के काल में मिलता है।

सोरठा
यह अर्द्ध सम मात्रिक छंद है। दोहा छंद का उलटा होता है। इसमें 25-23 मात्राएं होती हैं। रसखान के काव्य में चार[10] सोरठे मिलते हैं। प्रीतम नंदकिशोर, जा दिन ते नैननि लग्यौ।
मनभावन चित चोर, पलक औट नहि सहि सकौं॥[11]

छंद और शब्द स्वरूप विपर्यय

काव्य में सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए तथा छंदानुरोध पर प्राय: कवि शब्दों को तोड़ा-मरोड़ा करते हैं रसखान ने भी काव्य चमत्कार एवं छंद की मात्राओं के अनुरोध पर शब्दों के स्वरूप को बदला है—

  1. झलकैयत, तुलैयत, ललचैयत, लैयत[12]- छंदाग्रह से झलकाना, तुलाना, ललचाना, लाना शब्दों से।
  2. पग पैजनी बाजत पीरी कछौटी[13]-कृष्ण की वय की लघुता के आग्रह, स्वाभाविकता एवं सौंदर्य लाने के लिए कछौटा से कछौटी।
  3. टूटे छरा बछरादिक गौधन[14]- छंदानुरोध पर तथा बछरा से शब्द साम्य के लिए छल्ला से छरा।
  4. मोल छला के लला ने बिकेहौं[15]- लला के आग्रह से छला।
  5. मीन सी आंखि मेरी अंसुवानी रहैं[16]- आंसुओं से भरी रहने के अर्थ में माधुर्य लाने के लिए आंसू से अंसुवानी।

अलंकार-योजना

  • अलंकार शब्द का अर्थ है जो दूसरी वस्तु को अलंकृत करे- अलंकरोति इति अलंकार:
  • आचार्य दण्डी ने कहा है कि काव्य के सभी शोभाकारक धर्म अलंकार हैं।[17] उनकी इस परिभाषा में चमत्कार उत्पन्न करने वाले सभी काव्य तत्त्वों की विशेषताओं को अलंकार मान लिया गया है।
  • अलंकार से भामह का अभिप्राय ऐसी शब्द उक्ति से है जो वक्र अर्थात विचित्र अर्थ का विधान करने वाली हो।[18] अलंकार शब्द और अर्थ में विद्यमान कवि प्रतिभोत्थित ऐसे वैचित्र्य को अलंकार कह सकते हैं, जो वाक्य-सौंदर्य को अतिशयता प्रदान करता है। इसी से सभी भारतीय काव्यशास्त्रियों ने काव्य में अलंकार के महत्त्व को निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है।

शब्दालंकार

अनुप्रास

  • केवल भारतीय कवियों ने ही नहीं बल्कि पाश्चात्य कवियों ने भी अनुप्रास अलंकार का बहुत अधिक रुचि के साथ प्रयोग किया है।
  • अनुप्रास की परिभाषा एवं स्वरूप के विषय में भी आचार्य मूलत: एकमत हैं।
  • स्थूल रूप से, वर्णसाम्य को 'अनुप्रास' कहा गया है।

यमक

  • जहां भिन्नार्थक वर्णों (निरर्थक या सार्थक) की क्रमश: पुनरावृत्ति हो, वहां 'यमक' अलंकार होता है।[19]
  • 'यमक' का शाब्दिक अर्थ है जोड़ा।
  • इस अलंकार का नाम 'यमक' इसलिए रखा गया है क्योंकि इसमें एक जैसे दो शब्द प्रयुक्त होते हैं।

श्लेष

  • जहां श्लिष्ट पदों द्वारा अनेक अर्थों का कथन किया जाय वहां श्लेष अलंकार होता है।[20]
  • श्लेष प्राय: अन्य अलंकारों का सहयोगी होकर ही काव्य में योजित होता है।
  • भावुक कवियों के काव्य में इस अलंकार का प्रयोग बहुत सीमित रूप में हुआ है।

वक्रोक्ति

किसी एक अभिप्राय वाले कहे हुए वाक्य का, किसी अन्य द्वारा श्लेष अथवा काकु से, अन्य अर्थ लिए जाने को 'वक्रोक्ति' अलंकार कहते हैं।[21] वक्रोक्ति अलंकार दो प्रकार का होता है- श्लेष वक्रोक्ति और काकु बक्रोक्ति। श्लेष वक्रोक्ति में किसी शब्द के अनेक अर्थ होने के कारण वक्ता के अभिप्रेत अर्थ से अन्य अर्थ ग्रहण किया जाता है और काकु वक्रोक्ति में कंठ ध्वनि अर्थात् बोलने वाले के लहजे में भेद होने के कारण दूसरा अर्थ कल्पित किया जाता है। वक्रोक्ति अलंकार का नियोजन एक कष्टसाध्य कर्म है, जिसके लिए प्रयास करना अनिवार्य है।

रूपक

उपमेय पर उपमान के निषेध-रहित अभेद आरोप को रूपक कहते हैं।[22] 'आरोप' का अर्थ है- रूप देना अर्थात् दूसरे के रूप में रंग देना। यह 'आरोप' कल्पित होता है। रूपक में उपमेय को उपमान समझ लिया जाता है। उपमा में उपमेय और उपमान में सादृश्य होते हुए भी भिन्नता होती है जबकि रूपक में दोनों एक से जान पड़ते हैं।

उत्प्रेक्षा

जहां प्रस्तुत में अप्रस्तुत की संभावना की जाय, वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।[23] 'उत्प्रेक्षा' (उत्+प्र+ईक्षा) का शाब्दिक अर्थ है, ऊंचा देखना अर्थात् उड़ान लेना। उपमेय और उपमान को परस्पर भिन्न जानते हुए भी इस अलंकार में कल्पना की ऊंची उड़ान के सहारे उपमेय को उपमान समझने का प्रयत्न किया जाता है। 'संभावना' का तात्पर्य 'एक कोटि का प्रबल' ज्ञान है। इसमें ज्ञान पूरा निश्चायात्मक नहीं होता, बल्कि थोड़ा कम होता है। उत्प्रेक्षा रसखान के सबसे प्रिय अलंकारों में से एक है। इसके अनेक प्रयोग उनके काव्य की श्रीवृद्धि करते हैं। इसका कारण यह हे कि उत्प्रेक्षा का प्रयोग करते हुए कवि-कल्पना को उड़ान भरने की अधिक गुंजाइश रहती है।

अपह्नुति
जहां प्रकृत का निषेध कर अप्रकृत का स्थापन किया जाय वहां 'अपह्नुति' अलंकार होता है। अपह्नुति केवल सादृश्य-सम्बन्ध में ही होती है। 'अपह्नुति' का शाब्दिक अर्थ है- छिपाना या निषेध करना। इसमें किसी सत्य बात को छिपाकर या निषेध करके उसके स्थान पर कोई झूठी बात स्थापित की जाती है। अपह्नुति की योजना में प्राय: कृत्रिमता आने की आशंका रहती हैं रसखान के काव्य में यह अलंकार बहुत ही विरल रूप में आया है।

अतिशयोक्ति
जहां उपमान द्वारा उपमेय का निगरण, असम्बन्ध में मैं सम्बन्ध की कल्पना, उपमेय का अन्यत्व अथवा कारण और कार्य का पौवपिर्य- विपर्यय वर्णित हो, वहां 'अतिशयोक्ति' अलंकार होता है।[24] अतिशयोक्ति का अर्थ है अतिकान्त अथवा उल्लंघन अर्थात किसी वस्तु के विषय में लोकसीमा से बढ़ा-चढ़ाकर कथन करना। काव्य में अतिशयोक्ति के आधार पर ही कवि कल्पना की मधुर उड़ानें भरते हैं। सामान्य जीवन के व्यवहार में भी अतिशयोक्ति का प्रयोग बहुलता से किया जाता है। अत: उसे मानव की स्वभाव-जन्य विशेषता कहा जा सकता है।

अतिशयोक्ति कवियों की परंपरा से प्राप्त अलंकार है। रसखान ने भी काव्य परंपरागत रूप में ही उसको ग्रहण किया है, जिससे उसमें नवीनता और कथन में सुंदर चमत्कार आ गया है। उनकी अतिशयोक्ति-योजना केवल वैचित्र्य-प्रदर्शन बनकर ही नहीं रह गई है, बल्कि अभिप्रेत वर्ण्य विषय में उत्कर्ष लाने को पूर्णत: समर्थ है।

व्यतिरेक
जहां उपमान की अपेक्षा अधिक गुण होने के कारण उपमेय का उत्कर्ष हो वहां 'व्यतिरेक' अलंकार होता है। व्यतिरेक का शाब्दिक अर्थ है आधिक्य। व्यतिरेक में कारण का होना अनिवार्य है। रसखान के काव्य में व्यतिरेक की योजना कहीं कहीं ही हुई है। किन्तु जो है, वह आकर्षक है। नायिका अपनी सखी से कह रही है कि ऐसी कोई स्त्री नहीं है जो कृष्ण के सुन्दर रूप को देखकर अपने को संभाल सके। हे सखी, मैंने 'ब्रजचन्द्र' के सलौने रूप को देखते ही लोकलाज को 'तज' दिया है क्योंकि—

खंजन मील सरोजनि की छबि गंजन नैन लला दिन होनो।
भौंह कमान सो जोहन को सर बेधन प्राननि नंद को छोनो।[25]

पर्याय
जहां एक वस्तु की अनेक वस्तुओं में अथवा अनेक वस्तुओं की एक वस्तु में क्रम से (काल-भेद से) स्थिति का वर्णन हो वहां पर्याय अलंकार होता है।[26]

विरोधमूलक अलंकार, विरोधाभास

वस्तुत: विरोध न होने पर जहां विरोध का आभास हो वहां 'विरोधाभास' अलंकार होता है।[27] विरोध के कारण सामान्य उक्ति में भी अनोखा चमत्कार आ जाता है। इस अलंकार में विरोध केवल आभासित होता है। लेकिन विचार करने पर उसका परिहार हो जाता है। ऐसी उक्तियों के कारण काव्य-सौन्दर्य में उत्कर्ष आता है। रसखान के काव्य में विरोधाभास अलंकार की योजना नाममात्र को हुई है। इसका कारण यह है कि वे भक्त थे, काव्य उनकी तीव्र भावाभिव्यक्ति का साधन था। वह बात को बेलाग कहते थे- बहुत अधिक घुमा फिरा कर नहीं। वचन-विदग्धता के प्रदर्शन की चेष्टा उन्होंने कहीं नहीं की है।

विसंगति

जहां आपातत: विरोध दृष्टिगत होते हुए, कार्य और कारण का वैयाधिकरण्य वर्णित हो, वहां असंगति अलंकार होता है।[28] इसमें दो वस्तुओं का वर्णन होता है- जिनमें कारण कार्यसम्बन्ध होता है।

एकावली

जहां श्रृंखलारूप में वर्णित पदार्थों में विशेष्य विशेषण भाव सम्बन्ध हो वहां एकावली अलंकार होता है।[29] इस अलंकार की योजना कवि लोग केवल चमत्कार उत्पन्न करने के लिए करते हैं। इसमें कल्पना की उड़ान का विनोदात्मक रूप होता है।

अन्य संसर्ग मूलक अलंकार, उदाहरण

सामान्य रूप से ही हुई बात को स्पष्ट करने के लिए जहां उसी सामान्य में एक अंश को उदाहरण के रूप में रखा जाता है, वहां उदाहरण अलंकार होता है।[30] उदाहरण अलंकार की योजना रसखान ने अल्प मात्रा में की है। उनके उदाहरण सामान्य जीवन से ग्रहण किए गए हैं और सुन्दर बन पड़े हैं 'उदाहरण' के कुछ उदाहरण निम्नांकित हैं— रसखानि गुबिंदहि यौं भजियै जिमि नागरि को चित गागरि मैं।[31]

अन्य अलंकार, अनुमान

साधन के द्वारा साध्य के चमत्कारपूर्ण ज्ञान के वर्णन को अनुमान अलंकार कहते हैं।[32] अनुमान अलंकार में हेतु के द्वारा साध्य का अनुमान कराया जाता है और यह ज्ञान कवि के द्वारा कल्पित चमत्कार से पूर्ण होता है। रसखान के काव्य में इस अलंकार का प्रयोग बहुत कम हुआ है।

लोकोक्ति

जहां वर्णित प्रसंग में लोक-प्रसिद्ध प्रवाद (कहावत लोकोक्ति मुहावरे आदि) का कथन किया जाय, वहां 'लोकोक्ति' अलंकार होता है। रसखान के काव्य में लोकोक्तियों का प्रयोग सुन्दर रूप में हुआ है। कवि ने उन्हें भावों के भूषण में चमकते हुए नगीनों की तरह स्थान स्थान पर जड़ दिया है। इसके अनेक सरस उदाहरण द्रष्टव्य हैं। नायक और नायिका दोनों कालिन्दी के तीर पर मिलते हैं, मुड़-मुड़कर मुस्कराते हैं, एक दूसरे की बलैयां लेते हैं।

मानवीकरण

पाश्चात्य काव्यशास्त्र के प्रभाव से हिन्दी में कुछ आधुनिक अलंकारों की चर्चा भी होने लगी है। उन्हीं में से एक अलंकार 'मानवीकरण' है। यह शब्द अंग्रेज़ी के 'परसोनिफिकेशन' का हिन्दी अनुवाद है। 'अमानव' में 'मानव' गुणों के आरोप करने की साधारण प्रवृत्ति या प्रक्रिया को 'मानवीकरण' कहा जाता है।[33] मानवीकरण के द्वारा वर्णनीय विषय में मार्तिकता और प्रेषणीयता लाई जाती है। हिन्दी की छायावादी कविता में मानवीकरण का बड़ा ही मनोहर एवं सशक्त प्रयोग हुआ है। प्राचीन कवियों के काव्य में भी मानवीकरण की विशेषताएं उपलब्ध हैं। सहज भावुक कवि रसखान ने भी 'मानवीकरण' अलंकार की सुन्दर योजना की है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आधुनिक हिन्दी काव्य में छंद योजना, पृ0 21
  2. दरबारी संस्कृति और हिन्दी मुक्तक, पृ0 42
  3. हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0 275
  4. सुजान रसखान 101
  5. सुजान रसखान 120
  6. सुजान रसखान 127
  7. सुजान रसखान 86
  8. सुजान रसखान, 21
  9. रीति काव्य की भूमिका तथा देव और उनकी कविता, पृ0 236
  10. सुजान रसखान, 77,98,123,152
  11. सुजान रसखान, 77
  12. सुजान रसखान, 61
  13. सुजान रसखान, 21
  14. सुजान रसखान, 44
  15. सुजान रसखान, 44
  16. सुजान रसखान, 74
  17. काव्यशोभाकरान् धर्मानलंकारान् प्रवक्षते। ते चाद्यापि विकल्प्यन्ते कस्तान् कात्स्यैन वक्ष्यति॥ -काव्यादर्श, 2।1
  18. वक्राभिधेय शब्दोक्तिरिष्टावाचामलंकृति:। -काव्यालंकार, 1। 36
  19. सुजान रसखान, 1,2,5,6,7,8,9,10,11,12, 14,37,78
  20. श्लिष्टै, पदेरनेकार्थाभिधाने श्लेष ईष्यते॥ - साहित्यदर्पण, 10 । 11
  21. यदुक्तामन्यथावाक्यमन्यथा न्येन योज्यते। श्लेषेण काक्वा वा ज्ञैया सा वक्रोक्तिरतथा द्विधा॥ - काव्यप्रकाश 9।78
  22. अभेदप्राधान्ये आरोपे आरोपविषयानपह्नवे रूपकम्। -अलंकारसर्वस्व, पृ0 34
  23. संसभावनमर्थोत्प्रेक्ष प्रकृतस्य समेन यत्। -काव्यप्रकाश, 10 । 9
  24. निगीर्याध्यवसानन्तु प्रकृतरू परेण यत्। प्रस्तुतस्य यदन्यत्वं पद्यर्थोकौ च कल्पनम्॥ कार्यकारणयोर्यश्च पौर्वापर्यविपर्यय: विज्ञेया तिशयोक्ति: सा....॥ -काव्यप्रकाश, 10 । 100-101
  25. सुजान रसखान, 72
  26. एकमनेकस्मिन्ननेकमेकस्मिन्कमेण पर्याय:। -अलंकारसर्वस्व, पृ0 189
  27. विरुद्धाभासत्वं विरोध:। -काव्यालंकारसूत्र, 4।3।12
  28. विरुद्धत्वेनापाततो भासमानं हेतुकार्यपोर्वेयधिकरण्यमसंगति:॥ -रसगंगाधर, पृ0 589
  29. सैव श्रृंखला संसर्गस्य विशेष्यविशेषणभावरूपत्वे एकावली। -रसगंगाधर, पृ0 623
  30. अलंकार प्रदीप, पृ0 189
  31. सुजान रसखान, 8
  32. अनुमानं तु विच्छित्या ज्ञानं साध्यस्य साधनात। --साहित्यदर्पण, पृ0 10। 63
  33. साहित्य कोष (सं0- डा. धीरेन्द्र वर्मा) पृ0 589

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