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'''र''' [[देवनागरी वर्णमाला]] में अंत:स्थ वर्ग का दूसरा [[व्यंजन (व्याकरण)|व्यंजन]] है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह वर्त्स्य, लुंठित, घोष और अल्पप्राण है। इसका [[महाप्राण व्यंजन|महाप्राण]] रूप 'र्+ह' मानक हिंदी में नहीं है परंतु कुछ बोलियों में मिलता है (जैसे- कर्+हानो=कराहना, अर्+हा=अरहर)। 'र' के उच्चारण में जीभ की नोक को कुछ लुंठित करके (लपेटकर), वर्त्स (अर्थात् ऊपर के मुड़ने को) स्पर्श किया जाता है। अत: प्रयत्न की दृष्टि से 'र' को लुंठित ध्वनि कहा जाता है।
;विशेष-
* 'र' में प्राय: सभी मात्राएँ और चिह्न सामान्य रूप से जुड़ते हैं। परंतु 'र्' में 'ऋ' की मात्रा नहीं लगती तथा '[[उ]]' और '[[ऊ]]' मिलने पर क्रमश: विशेष रूप 'रु' और 'रू' बनते हैं (रुपया, रूप, रुष्ट, रूठा)।
* 'र', 'रा' इत्यादि के अनुनासिक रूपों में 'चंद्रबिंदु' के स्थान पर बिंदु लगाने की रीति सुविधार्थ प्रचलित है परंतु तभी तब शिरोरेखा के ऊपर कोई मात्रा हो (रिँ-रिं, रीँ-रीं, रेँ-रें)
* व्यंजन-गुच्छों में जब 'र्' पहले आकर अन्य व्यंजनों से मिलता है, तब वह शिरोरेखा के ऊपर एक विशेष चिन्ह के रूप में लगता है और उसे 'रेफ' कहते हैं। जैसे- तर्क, शर्त, दर्द, सर्प, वर्ष।
* इन रूपों में 'र' पर लगी रेफ़ भी होती है (फर्र, बर्र)।
* पहले आकर 'र' से मिलने वाले व्यंजनों में से अनेक की खड़ी रेखा में तिरछी छोटी रेखा के रूप में 'र' जुड़ जाता है (वक्र, फ़ख्र, अग्र, द्राक्षा, विप्र, उम्र, तीव्र)।
* 'र' से पहले आकर जुड़ने वाले व्यंजनों में से छ, ट, ठ्, ड्, ढ्, का 'र' से मिला रूप इन व्यंजनों के नीचे लगे एक विशेष चिन्ह से युक्त होता है- छ्र, ट्र, ठ्र, ड्र, ढ्र (राष्ट्र, उड्र)।
* जब 'त', श्  या स्  पहले आकर मिलते हैं, तब क्रमश: 'त्र', 'श्र', स्र रूप बनते हैं। जैसे- त्रय, त्रास, श्रम, श्री, सहस्र, स्राव।
* जब 'ह' पहले आकर 'र' से मिलता है, तब उसका विशेष रूप 'ह्र' ध्यान देने योग्य है (ह्रास, ह्री)। ऐसे शब्दों को हर्‌न्त रूप में लिखना भी प्रचलित है (ह्‌रास, ह्‌री)।
* रेफ वाले अनेक विदेशी शब्द अनेक रूप से 'र' के रूप में भी बोले और तदनुसार लिखे जाते हैं- ख़्रर्च / ख़रच, शर्म / शरम, पर्दा / परदा, बर्बादी / बरबादी।
* 'कर्म', 'धर्म', 'उम्र' इत्यादि अनेक [[तत्सम]] शब्दों के तद्भव रूप 'करम', 'धरम', 'उमर' इत्यादि [[हिंदी]] में बोलचाल में तो प्रयुक्त होते हैं परंतु उन्हें मानक हिंदी में स्थान नहीं मिला है। कुछ लोग भ्रमवश 'नरक' को तद्भव समझकर 'नर्क' लिखते हैं जो अशुद्ध है।
* '[[ल]]' का 'र' में और 'र' का 'ल' में परिवर्तन भाषा वैज्ञानिक कारणों से प्राय: हो जाता है। जैसे- कवल > कौर, दीवार > दीवाल।
* 'र' और 'ड़' का भी परस्पर परिवर्तन भाषा वैज्ञानिक कारणों से प्राय: हो जाता है। जैसे- घबराना- घबड़ाना।
* [ [[संस्कृत]] (धातु) रा + ड ] [[पुल्लिंग]]- अग्नि, ताप, गर्मी, प्रेम, वेग, गीत, सुवर्ण, वर्ण, शब्द।
* 'र' 'रगण' नामक वर्णिक गण का संक्षिप्त रूप या संकेताक्षर भी होता है।<ref>पुस्तक- हिन्दी शब्द कोश खण्ड-2 | पृष्ठ संख्या- 2064</ref>
==र की बारहखड़ी==
{| class="bharattable-green"
|-
| र
| रा
| रि
| री
| रु
| रू
| रे
| रै
| रो
| रौ
| रं
| रः
|}
==र अक्षर वाले शब्द==
==र अक्षर वाले शब्द==
* [[रत्नावलि]]
* [[रत्नावलि]]

12:15, 8 जनवरी 2017 के समय का अवतरण

विवरण देवनागरी वर्णमाला में अंत:स्थ वर्ग का दूसरा व्यंजन है। यह वर्त्स्य, लुंठित, घोष और अल्पप्राण है।
भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह वर्त्स्य, लुंठित, घोष और अल्पप्राण है। इसका महाप्राण रूप 'र्+ह' मानक हिंदी में नहीं है परंतु कुछ बोलियों में मिलता है (जैसे- कर्+हानो=कराहना, अर्+हा=अरहर)।
व्याकरण [ संस्कृत (धातु) रा + ड ] पुल्लिंग- अग्नि, ताप, गर्मी, प्रेम, वेग, गीत, सुवर्ण, वर्ण, शब्द।
विशेष 'र' के उच्चारण में जीभ की नोक को कुछ लुंठित करके (लपेटकर), वर्त्स (अर्थात् ऊपर के मुड़ने को) स्पर्श किया जाता है।
संबंधित लेख , , , , , , , क्ष, ज्ञ
अन्य जानकारी 'र' में प्राय: सभी मात्राएँ और चिह्न सामान्य रूप से जुड़ते हैं। परंतु 'र्' में 'ऋ' की मात्रा नहीं लगती तथा '' और '' मिलने पर क्रमश: विशेष रूप 'रु' और 'रू' बनते हैं (रुपया, रूप, रुष्ट, रूठा)।

देवनागरी वर्णमाला में अंत:स्थ वर्ग का दूसरा व्यंजन है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह वर्त्स्य, लुंठित, घोष और अल्पप्राण है। इसका महाप्राण रूप 'र्+ह' मानक हिंदी में नहीं है परंतु कुछ बोलियों में मिलता है (जैसे- कर्+हानो=कराहना, अर्+हा=अरहर)। 'र' के उच्चारण में जीभ की नोक को कुछ लुंठित करके (लपेटकर), वर्त्स (अर्थात् ऊपर के मुड़ने को) स्पर्श किया जाता है। अत: प्रयत्न की दृष्टि से 'र' को लुंठित ध्वनि कहा जाता है।

विशेष-
  • 'र' में प्राय: सभी मात्राएँ और चिह्न सामान्य रूप से जुड़ते हैं। परंतु 'र्' में 'ऋ' की मात्रा नहीं लगती तथा '' और '' मिलने पर क्रमश: विशेष रूप 'रु' और 'रू' बनते हैं (रुपया, रूप, रुष्ट, रूठा)।
  • 'र', 'रा' इत्यादि के अनुनासिक रूपों में 'चंद्रबिंदु' के स्थान पर बिंदु लगाने की रीति सुविधार्थ प्रचलित है परंतु तभी तब शिरोरेखा के ऊपर कोई मात्रा हो (रिँ-रिं, रीँ-रीं, रेँ-रें)।
  • व्यंजन-गुच्छों में जब 'र्' पहले आकर अन्य व्यंजनों से मिलता है, तब वह शिरोरेखा के ऊपर एक विशेष चिन्ह के रूप में लगता है और उसे 'रेफ' कहते हैं। जैसे- तर्क, शर्त, दर्द, सर्प, वर्ष।
  • इन रूपों में 'र' पर लगी रेफ़ भी होती है (फर्र, बर्र)।
  • पहले आकर 'र' से मिलने वाले व्यंजनों में से अनेक की खड़ी रेखा में तिरछी छोटी रेखा के रूप में 'र' जुड़ जाता है (वक्र, फ़ख्र, अग्र, द्राक्षा, विप्र, उम्र, तीव्र)।
  • 'र' से पहले आकर जुड़ने वाले व्यंजनों में से छ, ट, ठ्, ड्, ढ्, का 'र' से मिला रूप इन व्यंजनों के नीचे लगे एक विशेष चिन्ह से युक्त होता है- छ्र, ट्र, ठ्र, ड्र, ढ्र (राष्ट्र, उड्र)।
  • जब 'त', श् या स् पहले आकर मिलते हैं, तब क्रमश: 'त्र', 'श्र', स्र रूप बनते हैं। जैसे- त्रय, त्रास, श्रम, श्री, सहस्र, स्राव।
  • जब 'ह' पहले आकर 'र' से मिलता है, तब उसका विशेष रूप 'ह्र' ध्यान देने योग्य है (ह्रास, ह्री)। ऐसे शब्दों को हर्‌न्त रूप में लिखना भी प्रचलित है (ह्‌रास, ह्‌री)।
  • रेफ वाले अनेक विदेशी शब्द अनेक रूप से 'र' के रूप में भी बोले और तदनुसार लिखे जाते हैं- ख़्रर्च / ख़रच, शर्म / शरम, पर्दा / परदा, बर्बादी / बरबादी।
  • 'कर्म', 'धर्म', 'उम्र' इत्यादि अनेक तत्सम शब्दों के तद्भव रूप 'करम', 'धरम', 'उमर' इत्यादि हिंदी में बोलचाल में तो प्रयुक्त होते हैं परंतु उन्हें मानक हिंदी में स्थान नहीं मिला है। कुछ लोग भ्रमवश 'नरक' को तद्भव समझकर 'नर्क' लिखते हैं जो अशुद्ध है।
  • '' का 'र' में और 'र' का 'ल' में परिवर्तन भाषा वैज्ञानिक कारणों से प्राय: हो जाता है। जैसे- कवल > कौर, दीवार > दीवाल।
  • 'र' और 'ड़' का भी परस्पर परिवर्तन भाषा वैज्ञानिक कारणों से प्राय: हो जाता है। जैसे- घबराना- घबड़ाना।
  • [ संस्कृत (धातु) रा + ड ] पुल्लिंग- अग्नि, ताप, गर्मी, प्रेम, वेग, गीत, सुवर्ण, वर्ण, शब्द।
  • 'र' 'रगण' नामक वर्णिक गण का संक्षिप्त रूप या संकेताक्षर भी होता है।[1]

र की बारहखड़ी

रा रि री रु रू रे रै रो रौ रं रः

र अक्षर वाले शब्द


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पुस्तक- हिन्दी शब्द कोश खण्ड-2 | पृष्ठ संख्या- 2064

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