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चंद्रसिंह बिरकाली की ख्याति एक [[कवि]] के रूप में 'बादली' के प्रकाशन के साथ ही फैलने लगी थी। 'बादली' सन [[1941]] में लिखी गयी और उसका पहला संस्करण [[बीकानेर]] में प्रकाशित हुआ था। बीकानेर रियासत के महाराजा सादुलसिंह उस समय युवराज थे, जिन्हें पहला संस्करण समर्पित किया गया था। सन [[1943]] में लोगों ने पढ़ा और ऐसा सराहा की चारो ओर 'बादली' की चर्चा होने लगी। 'बादली' को मरुभूमि के वासी कैसे निहारते है, कितनी प्रतीक्षा करते हैं और [[वर्षा]] की बूंदों की कितनी चाह होती है। यह चंद्रसिंह बिरकाली ने जनभाषा में बड़े ही रोचक ढंग से लिखा।
 
चंद्रसिंह बिरकाली की ख्याति एक [[कवि]] के रूप में 'बादली' के प्रकाशन के साथ ही फैलने लगी थी। 'बादली' सन [[1941]] में लिखी गयी और उसका पहला संस्करण [[बीकानेर]] में प्रकाशित हुआ था। बीकानेर रियासत के महाराजा सादुलसिंह उस समय युवराज थे, जिन्हें पहला संस्करण समर्पित किया गया था। सन [[1943]] में लोगों ने पढ़ा और ऐसा सराहा की चारो ओर 'बादली' की चर्चा होने लगी। 'बादली' को मरुभूमि के वासी कैसे निहारते है, कितनी प्रतीक्षा करते हैं और [[वर्षा]] की बूंदों की कितनी चाह होती है। यह चंद्रसिंह बिरकाली ने जनभाषा में बड़े ही रोचक ढंग से लिखा।
====पुरस्कार व सम्मान====
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==कालजयी रचनाएँ==
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चंद्रसिंह बिरकाली की कालजयी रचनाएं ‘बादळी’ और ‘लू’ ने पूरे देश का ही नहीं बल्कि दुनिया का ध्यान [[राजस्थानी साहित्य]] की ओर आकर्षित किया। इन दोनों रचनाओं का [[अंग्रेज़ी]] समेत कई अन्य भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है। राजस्थान जैसे सूखे इलाके में बारिश का क्या महत्व हो सकता है और गर्मी में लू के थपड़ों का दर्द तो एक किसान और रेत में खड़े पेड़-पौधे ही अच्छी तरह समझ सकते हैं। इन बातों को चंद्रसिंह बिरकाली ने ‘बादळी’ और ‘लू’ के माध्यम से बयां किया है।<ref>{{cite web |url= https://hindi.news18.com/news/literature/regional-languages-activities-chandra-singh-birkali-birthday-famous-rajasthani-poet-and-rajasthani-sahitya-3709827.html|title=गांव, चोपाल, खेत, पनघट की भाषा है कवि चंद्रसिंह बिरकाली की रचनाएं|accessmonthday=24 अगस्त|accessyear=2021 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=hindi.news18.com |language=हिंदी}}</ref> उनको कुदरत से इतना लगाव था कि एक बार किसी ने उनसे पूछा कि वे अपना घर कहां और कैसा बनाना चाहेंगे। इस पर उनका जवाब था कि दो कमरे बादळी और आसमान में घर बनाया है। 'बादली' नामक काव्य रचना का प्रकाशन [[1941]] में हुआ था। इसमें 130 दोहे हैं। बादली में कवि ने बरसात से पहले मरूभूमि की स्थिति का वर्णन किया है। उनकी यह रचना इतनी प्रसिद्ध हुई कि [[काशी]] की [[नागरी प्रचारणी सभा]] ने चंद्रसिंह बिरकाली को 'रत्नाकर पुरस्कार' देकर सम्मानित किया।
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'बादली' पर राष्ट्रीय स्तर का 'बलदेवदास पदक' भी चंद्रसिंह बिरकाली को प्रदान कर सम्मानित किया गया। आधुनिक राजस्थानी रचनाओं में कदाचित ‘बादळी’ ही एक ऐसी काव्यकृति है, जिसके अब तक नो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। महान साहित्यकारों [[सुमित्रानंदन पन्त]], [[महादेवी वर्मा]] और [[सूर्यकांत त्रिपाठी]] 'निराला']] नें ‘बादळी’ पर अपनी सम्मतियां दीं और उसे एक अनमोल रचना बतलाया। यह अनमोल रचना कई वर्षों से माध्यमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जा रही है। साहित्यकारों [[रविन्द्रनाथ ठाकुर]], [[मदनमोहन मालवीय]] आदि नें भी बिरकाली जी को श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में स्वीकार किया था। ‘बादळी’ और ‘लू’ रचनाओं ने अनेक नए कवियों को प्रेरित और प्रोत्साहित किया। चंद्रसिंह बिरकाली की कुछ कविताओं का अंग्रेज़ी में भी अनुवाद हुआ।
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==पुरस्कार व सम्मान==
 
'बादली' के प्रकाशन के तुरंत बाद ही बिरकाली जी को [[काशी]] की '[[नागरीप्रचारिणी सभा]]' द्वारा 'रत्नाकर पुरस्कार' प्रदान कर सम्मानित किया गया। इसी पर राष्ट्रीय स्तर का 'बलदेवदास पदक' भी चंद्रसिंह बिरकाली को प्रदान कर सम्मानित किया गया।
 
'बादली' के प्रकाशन के तुरंत बाद ही बिरकाली जी को [[काशी]] की '[[नागरीप्रचारिणी सभा]]' द्वारा 'रत्नाकर पुरस्कार' प्रदान कर सम्मानित किया गया। इसी पर राष्ट्रीय स्तर का 'बलदेवदास पदक' भी चंद्रसिंह बिरकाली को प्रदान कर सम्मानित किया गया।
  
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==आधुनिक राजस्थानी साहित्य के अग्रदूत==
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चंद्रसिंह बिरकाली को '''आधुनिक राजस्थानी साहित्य का अग्रदूत''' कहा जाता है। उन्होंने [[ कालीदास|महाकवि कालीदास]] के कई नाटकों का [[मारवाड़ी भाषा]] में अनुवाद किया था। वे [[रामायण|वाल्मिकी रामायण]] का भी [[राजस्थानी भाषा]] में अनुवाद करना चाहते थे और अपने गांव बिरकाली में राजस्थानी भाषा का एक शोध केंद्र खोलना चाहते थे, लेकिन उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हुई। इससे पहले ही वह इस दुनिया को अलविदा कह गये।
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==मरुवाणी==
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रावत सारस्वत के सहयोग से चंद्रसिंह बिरकाली ने राजस्थानी भाषा प्रचार सभा का गठन किया और राजस्थानी में ‘मरुवाणी’ नामक मासिक का प्रकाशन शुरू किया। ‘मरुवाणी’ का प्रकाशन शुरू करना आधुनिक राजस्थानी के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना रही। लगभग दो दशक तक प्रकाशित होती रहने वाली इस पत्रिका के माध्यम से राजस्थानी भाषा का श्रेष्ठतम सृजन महत्वपूर्ण और प्रभावशाली रूप में सामने आया। राजस्थानी के चुने हुए रचनाकार ‘मरुवाणी’ से जुड़े हुए थे। [[संस्कृत]] के प्रसिद्ध काव्यों के राजस्थानी में अनुवाद हुए जो चन्द्रसिंह जी और ‘मरुवाणी’ के माध्यम से ही संभव हो सके थे।
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चंद्रसिंह बिरकाली की मृत्यु [[14 सितम्बर]], [[1992]] को हुई।
  
 
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चंद्रसिंह बिरकाली
चंद्रसिंह बिरकाली
पूरा नाम चंद्रसिंह बिरकाली
जन्म 24 अगस्त, 1912
जन्म भूमि हनुमानगढ़ ज़िला, राजस्थान
मृत्यु 14 सितम्बर, 1992
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र काव्य
मुख्य रचनाएँ 'लू', 'डाफर', 'बादली', 'कालजे री कौर', 'मेघदूत', 'चित्रागादा', 'जफरनामो' आदि।
भाषा हिन्दी, राजस्थानी
पुरस्कार-उपाधि 'रत्नाकर पुरस्कार', 'बलदेवदास पदक'
प्रसिद्धि कवि
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी चंद्रसिंह बिरकाली की ख्याति एक कवि के रूप में 'बादली' के प्रकाशन के साथ ही फैलने लगी थी। 'बादली' सन 1941 में लिखी गयी और उसका पहला संस्करण बीकानेर में प्रकाशित हुआ था।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

चंद्रसिंह बिरकाली (अंग्रेज़ी: Chandrasingh Birkali, जन्म- 24 अगस्त, 1912, हनुमानगढ़ ज़िला, राजस्थान; मृत्यु- 14 सितम्बर, 1992) आधुनिक राजस्थान के सर्वाधिक प्रसिद्ध प्रकृति प्रेमी कवि थे। इनकी सबसे प्रसिद्ध प्रकृति परक रचनाएं 'लू', 'डाफर' व 'बादली' हैं। चंद्रसिंह बिरकाली ने महाकवि कालिदास के कई नाटकों का राजस्थानी में अनुवाद किया था।[1] 'बादली' और 'लू' उनकी दो महान् काव्य रचनायें हैं, जिन्होंने सारे देश का ध्यान राजस्थान की ओर आकर्षित किया था।

जन्म

चंद्रसिंह बिरकाली का जन्म 24 अगस्त, 1912 में राजस्थान के हनुमानगढ़ ज़िले की नोहर तहसील के 'बिरकाली' नामक ग्राम में हुआ था। इनका रचना संसार मात्र सात वर्ष की अल्पायु में ही प्रारम्भ हो गया था।

रचना कार्य

आधुनिक राजस्थानी साहित्य के अग्रणी रचनाकार चंद्रसिंह बिरकाली 'लू' व 'बादली' जैसी काव्य कृतियों के कारण कवि रूप में जाने जाते थे। चंद्रसिंह जी ने कुछ कहानियां भी लिखीं, जिनमें लोक-जीवन की अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्ति हुई है। जूनी राजस्थानी साहित्य की रचना में प्रकर्ति काव्य की एक अच्छी परम्परा है, लेकिन आधुनिक काल में इसकी शुरुआत चंद्रसिंह जी की 'बादली' से शुरू हुई। 'बादली' 1941 में छपी थी। इसमें 130 दोहे हैं। इसके दोहे मरुभूमि की वरसाला ऋतु की प्राकृतिक छठा का विवेचन करते हैं। कवि ने बरसात से पहले की स्थिति का वर्णन 'बादली' में किया है। ऐसे ही 1955 में छपी 'लू' में 104 दोहे हैं। 'लू' में लू का बनाव सृंगार जोग है। कवि राजस्थान का वासी है, इसलिए उन्हें इस बात का ध्यान है।

प्रथम सफलता

चंद्रसिंह बिरकाली की ख्याति एक कवि के रूप में 'बादली' के प्रकाशन के साथ ही फैलने लगी थी। 'बादली' सन 1941 में लिखी गयी और उसका पहला संस्करण बीकानेर में प्रकाशित हुआ था। बीकानेर रियासत के महाराजा सादुलसिंह उस समय युवराज थे, जिन्हें पहला संस्करण समर्पित किया गया था। सन 1943 में लोगों ने पढ़ा और ऐसा सराहा की चारो ओर 'बादली' की चर्चा होने लगी। 'बादली' को मरुभूमि के वासी कैसे निहारते है, कितनी प्रतीक्षा करते हैं और वर्षा की बूंदों की कितनी चाह होती है। यह चंद्रसिंह बिरकाली ने जनभाषा में बड़े ही रोचक ढंग से लिखा।

कालजयी रचनाएँ

चंद्रसिंह बिरकाली की कालजयी रचनाएं ‘बादळी’ और ‘लू’ ने पूरे देश का ही नहीं बल्कि दुनिया का ध्यान राजस्थानी साहित्य की ओर आकर्षित किया। इन दोनों रचनाओं का अंग्रेज़ी समेत कई अन्य भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है। राजस्थान जैसे सूखे इलाके में बारिश का क्या महत्व हो सकता है और गर्मी में लू के थपड़ों का दर्द तो एक किसान और रेत में खड़े पेड़-पौधे ही अच्छी तरह समझ सकते हैं। इन बातों को चंद्रसिंह बिरकाली ने ‘बादळी’ और ‘लू’ के माध्यम से बयां किया है।[2] उनको कुदरत से इतना लगाव था कि एक बार किसी ने उनसे पूछा कि वे अपना घर कहां और कैसा बनाना चाहेंगे। इस पर उनका जवाब था कि दो कमरे बादळी और आसमान में घर बनाया है। 'बादली' नामक काव्य रचना का प्रकाशन 1941 में हुआ था। इसमें 130 दोहे हैं। बादली में कवि ने बरसात से पहले मरूभूमि की स्थिति का वर्णन किया है। उनकी यह रचना इतनी प्रसिद्ध हुई कि काशी की नागरी प्रचारणी सभा ने चंद्रसिंह बिरकाली को 'रत्नाकर पुरस्कार' देकर सम्मानित किया।

'बादली' पर राष्ट्रीय स्तर का 'बलदेवदास पदक' भी चंद्रसिंह बिरकाली को प्रदान कर सम्मानित किया गया। आधुनिक राजस्थानी रचनाओं में कदाचित ‘बादळी’ ही एक ऐसी काव्यकृति है, जिसके अब तक नो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। महान साहित्यकारों सुमित्रानंदन पन्त, महादेवी वर्मा और सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला']] नें ‘बादळी’ पर अपनी सम्मतियां दीं और उसे एक अनमोल रचना बतलाया। यह अनमोल रचना कई वर्षों से माध्यमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जा रही है। साहित्यकारों रविन्द्रनाथ ठाकुर, मदनमोहन मालवीय आदि नें भी बिरकाली जी को श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में स्वीकार किया था। ‘बादळी’ और ‘लू’ रचनाओं ने अनेक नए कवियों को प्रेरित और प्रोत्साहित किया। चंद्रसिंह बिरकाली की कुछ कविताओं का अंग्रेज़ी में भी अनुवाद हुआ।

पुरस्कार व सम्मान

'बादली' के प्रकाशन के तुरंत बाद ही बिरकाली जी को काशी की 'नागरीप्रचारिणी सभा' द्वारा 'रत्नाकर पुरस्कार' प्रदान कर सम्मानित किया गया। इसी पर राष्ट्रीय स्तर का 'बलदेवदास पदक' भी चंद्रसिंह बिरकाली को प्रदान कर सम्मानित किया गया।

आधुनिक राजस्थानी रचनाओं में कदाचित 'बादली' ही एक ऐसी काव्य कृति है, जिसके अब तक नो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। महान् साहित्यकारों सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा और सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' ने 'बादली' पर अपनी सम्मतिया दीं और उसे एक अनमोल रचना बतलाया। यह अनमोल रचना कई वर्षों से माध्यमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जा रही है। साहित्यकारों रबीन्द्रनाथ ठाकुर, मदनमोहन मालवीय आदि ने भी चंद्रसिंह बिरकाली को श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में स्वीकार किया था।[3]

कृतियाँ

  1. बादली
  2. लू
  3. कहमुकुरनी
  4. सीप
  5. बाल्साद
  6. साँझ (काव्य)
  7. दिलीप
  8. कालजे री कौर
  9. मेघदूत
  10. चित्रागादा
  11. जफरनामो
  12. रघुवंश (अनुदित)

इसके अतिरिक्त 'बंसत', 'डंफर', 'धोरा' और 'बाड़' चंद्रसिंह बिरकाली जी की अप्रकाशित रचनाएँ हैं।

आधुनिक राजस्थानी साहित्य के अग्रदूत

चंद्रसिंह बिरकाली को आधुनिक राजस्थानी साहित्य का अग्रदूत कहा जाता है। उन्होंने महाकवि कालीदास के कई नाटकों का मारवाड़ी भाषा में अनुवाद किया था। वे वाल्मिकी रामायण का भी राजस्थानी भाषा में अनुवाद करना चाहते थे और अपने गांव बिरकाली में राजस्थानी भाषा का एक शोध केंद्र खोलना चाहते थे, लेकिन उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हुई। इससे पहले ही वह इस दुनिया को अलविदा कह गये।

मरुवाणी

रावत सारस्वत के सहयोग से चंद्रसिंह बिरकाली ने राजस्थानी भाषा प्रचार सभा का गठन किया और राजस्थानी में ‘मरुवाणी’ नामक मासिक का प्रकाशन शुरू किया। ‘मरुवाणी’ का प्रकाशन शुरू करना आधुनिक राजस्थानी के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना रही। लगभग दो दशक तक प्रकाशित होती रहने वाली इस पत्रिका के माध्यम से राजस्थानी भाषा का श्रेष्ठतम सृजन महत्वपूर्ण और प्रभावशाली रूप में सामने आया। राजस्थानी के चुने हुए रचनाकार ‘मरुवाणी’ से जुड़े हुए थे। संस्कृत के प्रसिद्ध काव्यों के राजस्थानी में अनुवाद हुए जो चन्द्रसिंह जी और ‘मरुवाणी’ के माध्यम से ही संभव हो सके थे।

मृत्यु

चंद्रसिंह बिरकाली की मृत्यु 14 सितम्बर, 1992 को हुई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. राजस्थानी साहित्य से संबंधित प्रमुख साहित्यकार (हिन्दी) राजस्थान अध्ययन। अभिगमन तिथि: 09 अगस्त, 2014।
  2. गांव, चोपाल, खेत, पनघट की भाषा है कवि चंद्रसिंह बिरकाली की रचनाएं (हिंदी) hindi.news18.com। अभिगमन तिथि: 24 अगस्त, 2021।
  3. चन्द्रसिंह बिरकाली का सम्पूर्ण जीवन परिचय-1 (हिन्दी) वर्डप्रेस। अभिगमन तिथि: 09 अगस्त, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

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