भरतमुनि
भरत | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- भरत (बहुविकल्पी) |
- भरतमुनि 'नाट्यशास्त्र' के प्रसिद्ध प्रणेता हुए हैं। इनका समय विवादास्पद हैं। इन्हें 500 ई.पू. 100 ई सन् के बीच किसी समय का माना जाता है। भरत बड़े प्रतिभाशाली थे। इतना स्पष्ट है कि भरतमुनि रचित नाट्यशास्त्र से परिचय था। इनका 'नाट्यशास्त्र' भारतीय नाट्य और काव्यशास्त्र का आदिग्रन्थ है। इसमें नाट्यशास्त्र, संगीत-शास्त्र, छंदशास्त्र, अलंकार, रस आदि सभी का सांगोपांग प्रतिपादन किया गया है। 'भारतीय नाट्यशास्त्र' अपने विषय का आधारभूत ग्रन्थ माना जाता है। कहा गया है कि भरतमुनि रचित प्रथम नाटक का अभिनय, जिसका कथानक 'देवासुर संग्राम' था, देवों की विजय के बाद इन्द्र की सभा में हुआ था। विद्वानों का मत है कि भरतमुनि रचित पूरा नाट्यशास्त्र अब उपलब्ध नहीं है। जिस रूप में वह उपलब्ध है, उसमें लोग काफ़ी क्षेपक बताते हैं।[1]
- नाटयं भिन्नरूचेर्जनस्य बहुधाप्येकं समाराधन्म' अर्थात् - जगत् में लोगों की रुचि भिन्न भिन्न होती है, ऐसे सभी लोगों को प्रसन्न करने वाला यदि कुछ है तो वह अधिकांशत: 'नाट्य' है। ऋग्वेद में सरमा पणी, यम यमी, अगस्त्य लोपामुद्रा, पुरुरवा उर्वशी, आदि अनेक संवाद सूक्तों में नाटकों के बीज हों, यह सम्भव है। भरत नाट्य शास्त्र ऐसी दंत कथा है कि त्रेता युग में लोग दु:ख, आपत्ति से पीड़ित हो रहे थे। इन्द्र की प्रार्थना पर ब्रह्मा ने चारों वर्णों और विशेष रूप से शूद्रों के मनोरंजन और अलौकिक आनंद के लिए 'नाट्यवेद' नामक पांचवें वेद का निर्माण किया। इस वेद का निर्माण ऋग्वेद में से पाठ्य वस्तु, सामवेद से गान, यजुर्वेद में से अभिनय और अथर्ववेद में से रस लेकर किया गया। भरतमुनि को उसका प्रयोग करने का कार्य सौंपा गया। भरतमुनि ने 'नाट्य शास्त्र' की रचना की और अपने पुत्रों को पढ़ाया। इस दंत कथा से इतना तो अवश्य फलित होता है कि भरतमुनि संस्कृत नाट्यशास्त्र के आद्य प्रवर्तक हैं।
नाट्यशास्त्र का रचनाकाल
कालिदास और भास नाटयशास्त्र के अच्छे जानकर थे। पाणिनी के पहले कृशाश्व और शिलाली के नाट्यसूत्र और उनके पहले भरत का मूल ग्रंथ मानें तो ई.स. पूर्व 8वीं से 10वीं शताब्दी का रचनाकाल माना जायेगा। संक्षेप में भरतनाट्य शास्त्र ई.पूर्व के कई शताब्दी पहले रचा गया था।
नाट्यशास्त्र का स्वरूप
अभिनव गुप्त के मतानुसार नाट्य शास्त्र के 36 अध्याय हैं। इसमें कुल 4426 श्लोक और गद्यभाग हैं। नाट्यशास्त्र की आवृतियां निर्णय सागर प्रेस, चौखम्बा संस्कृत ग्रंथमाला (गायकवाड़ प्राच्य विद्यामाला) द्वारा प्रकाशित हुई है। गुजराती के कवि नथुराम सुंदरजी की 'नाट्य शास्त्र' पुस्तक है, जिसमें नाट्य शास्त्र का सार दिया गया है।
नाट्यशास्त्र के टीकाकार
भरत के हाल ही में उपलब्ध नाट्यशास्त्र पर सर्वाधिक प्रमाणिक और विद्वत्तापूर्ण 'अभिनव भारती' टीका के कर्ता अभिनव गुप्त हैं। यह टीका ई.सन 1013 में लिखी गयी थी। अभिनव गुप्त के पूर्व नाट्यशास्त्र पर उद्भट त्नोल्लट, शंकुक, कीर्तिधर, भट्टनायक आदि ने टीकाएं लिखी थी। कालिदास, बाण, श्रीहर्ष, भवभूति आदि संस्कृत नाट्यकार नाट्य शास्त्र को सर्वप्रमाण मूर्धन्य मानते थे।
नाट्यशास्त्र का विषय
नाट्य शास्त्र में नाट्य शास्त्र से संबंधित सभी विषयों का आवश्यकतानुसार विस्तार के साथ अथवा संक्षेप में निरूपण किया गया है। विषयवस्तु, पात्र, प्रेक्षागृह, रस, वृति, अभिनय, भाषा, नृत्य, गीत, वाद्य, पात्रों के परिधान, प्रयोग के समय की जाने वाली धार्मिक क्रिया, नाटक के अलग अलग वर्ग, भाव, शैली, सूत्रधार, विदूषक, गणिका, गणिका, नायिका आदि पात्रों में किस प्रकार की कुशलता अपेक्षित है, आदि नाटक से संबंधित सभी वस्तुओं का विचार किया गया है। नाट्यशास्त्र ने जिस तरह से और जैसा निरूपण नाट्य स्वरूप का किया है, उसे देखते हुए यदि 'न भूतो न भविष्यति' कहें तो उचित ही है, क्योंकि ऐसा निरूपण पिछले 2000 वर्षों में किसी ने नहीं किया।
नाटक के कतिपय लक्षण
- दु:खांत नाट्क नहीं होते।
- गद्यात्मक संवादों के साथ भाव प्रधान श्लोक आते हैं।
- नायक, राजा, ब्राह्मण आदि पात्र संस्कृत बोलते हैं, जबकि स्त्री और हल्के पात्र प्राकृत बोलते हैं।
- आनंद और शोक दोंनों का मिश्रण होता है। विदूषक अपने हाव भाव और मूर्खता से दर्शकों का मनोरंजमन करता है।
- नाटक में मरण का दृश्य नहीं दिखाया जाता।
- किसी भी प्रकार की असम्भव क्रिया - दांत से काटना, खुजलाना, चूमना, खाना, सोना आदि मंच पर नहीं दर्शायी जाती।
- ऐतिहासिक, पौराणिक कथाओं में से नाटक की वस्तु लेकर आवश्यक फेरबदल किया जाता है।
- प्रेम अधिकांश नाटकों का विषय होता है।
- नाटक के अंकों की संख्या छोटी बड़ी होती है। पात्रों की संख्या की कोई मर्यादा नहीं होती।
- प्रकृति को बहुत महत्त्व दिया जाता है।
भरतमुनि कहते हैं - नाट्य तो समग्र त्रिलोक के भाव का अनुकीर्तन है। नाटक का उद्देश्य दु:ख से पीड़ित, थके, शोक से पीड़ित लोगों और तपस्वियों को उचित समय पर विश्रांति देना है। नाटक में सभी कलाओं का संगम होता है। भरतमुनि कहते हैं कि प्रेक्षकों के मनोरंजन के साथ ही उनके बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास में भी नाटक निमित्त बनें।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
भारतीय संस्कृति के सर्जक, पेज न. (35)