अष्टावक्र प्राचीन काल के प्रसिद्ध और तेजस्वी मुनि थे। उन्हें उस समय के महान् ज्ञानियों में गिना जाता था। मिथिला के नरेश जनक के राजपंडित को अष्टावक्र ने शास्त्रार्थ में हराया था। अष्टाव्रक ऋषि की कथा 'महाभारत' और 'विष्णुपुराण 'में भी दी हुई है।
जन्म
अष्टावक्र उद्दालक ऋषि के प्रिय शिष्य कहोड़ मुनि के पुत्र थे। उद्दालक ने अपनी पुत्री सुजाता का विवाह कहोड़ के साथ कर दिया था। एक बार जब सुजाता गर्भवती थी और कहोड़ वेद पाठ कर रहे थे, तभी गर्भ से आवाज़ आई कि "आपका उच्चारण अशुद्ध है"। यह सुनते ही कुपित कहोड़ ने गर्भस्थ शिशु को उसके आठ अंग टेढ़े हो जाने का शाप दे दिया। कहोड़ धन की खोज में जनकपुर गए तो वहाँ के राज पंड़ित ने शास्त्रार्थ में पराजित करके उन्हें पानी में ड़ुबा दिया। इधर आठ टेढ़े अंगों सहित शिशु का जन्म हुआ और उसका 'अष्टावक्र' नाम पड़ा।
प्रतिभा सम्पन्न
उद्दालक ऋषि को ही अष्टावक्र अपना पिता मानते रहे। प्रतिभाशाली अष्टावक्र ने अल्पआयु में ही सब ज्ञान प्राप्त कर लिया। बारह वर्ष की उम्र में उसे सुजाता से पिता के संबंध में जानकारी मिली तो अपने मामा श्वेतकेतु के साथ वह राजा जनक के दरबार में जा पहुँचा और पिता को पराजित करने वाले पंड़ित को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया। अब उस पंड़ित के पानी में ड़ूबने की बारी थी। उसने राजा को बताया कि उसने अब तक पराजित पंड़ितों को जल में ड़ुबाकर वरुण लोक भेज रखा है। इतने में कहोड़ सहित सब पंड़ित उपस्थित हो गए। पराजित राज पंड़ित ने जल समाधि ले ली।
अप्सराओं को शाप
अष्टावक्र का विवाह वदान्य ऋषि की पुत्री सुकन्या से हुआ, किंतु ऋषि ने पहले उनकी कठिन परीक्षा ली। एक बार उनकी वक्रता को देखकर जब अप्सराएँ उन पर हंस पड़ीं तो उन्होंने शाप दिया कि आभीर तुम्हारा हरण करेगें। श्रीकृष्ण की पत्नियों के रूप में वही अप्सराएँ थीं, जिनका अपहरण अर्जुन के साथ द्वारका से इन्द्रप्रस्थ जाते समय आभीरों ने किया था।
अंग दोष से मुक्ति
मिथिला से लौटते समय कहोड़ के बताने पर समंगा नदी में स्थान करने से अष्टावक्र का शरीर सीधा हो गया और उन्हें अंग दोष से मुक्ति मिल गई। इनके नाम से 'अष्टावक्र गीता' और 'अष्टावक्र संहिता' नाम के दो प्रसिद्ध ग्रंथ हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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