ये गुजरात आज से नहीं, सदियों से है (यात्रा साहित्य)

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लेखक- सचिन कुमार जैन
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          गुजरात की समृद्धता आधुनिक नहीं ऐतिहासिक है। इस इलाके ने बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं। सैन्य, राजनीतिक, युद्ध, भूकंप, समुद्र का अंगडाई लेना और गुस्सा दिखाना, रेगिस्तान से लेकर अब हो रही जबरदस्त खुदाई (खनन) तक सब कुछ। मुझे नहीं लगता कि हमारे सामान्य समाज की इस तरह के उतार-चढ़ाव को जानने और समझने में बहुत रुचि रही है। मुझे समझ नहीं आता कि हमारा आध्यात्म रहस्यवाद को ख़िलाफ़ क्यों होता है; एक समय पर एक शहर में से एक बड़ी नदी बहती थी, जिसने अपना रास्ता बदल लिया। नदी इस रास्ते में इस बदलाव ने एक अर्थव्यवस्था को खतम कर दिया।
          कच्छ के उत्तर पूर्व में लखपत का किला है। यह केवल एक किला नहीं है, बल्कि एक पूरा वाकया है। आज जब आप इस किले की तरफ जाने के लिए निकलते हैं तो कई किलोमीटर तक आपको कोई घनी बस्ती या बाज़ार या सेवा नज़र नहीं आती। बहरहाल आपको लिग्नाईट की खदानें होने के बहुत से बोर्ड दिखाई देते हैं। जिनसे यह पता चलता है कि गुजरात खनिज विकास निगम इस इलाके का मौजूदा सत्तादार है। इस किले के ठीक बाहर एक चाय की दुकान है। किले के भीतर हर रोज अपनी ज़िंदगी के लिए जूझते अब 51 परिवार रहते हैं, पर इतिहास तो कुछ और ही कहानी कहता है। जानते हैं इसे लखपत क्यों कहते हैं? यह देश का सबसे समृद्ध बंदरगाह हुआ करता था। व्यापार का आलम यह था कि हर रोज इस स्थान पर 1 लाख कोड़ियों (तब की मुद्रा) का व्यापार होता था। इसी एक लाख के कारण इसका नाम लखपत पड़ गया। लखपत मतलब लखपति परिवारों का गांव!
12 साल की उम्र में फ़कीर बने गौस मुहम्मद की समाधि यहाँ है। माना जाता है कि मक्का जाते समय और वापस लौटते समय गुरुनानक ने लखपत में रात्री विश्राम किया था, इसलिए यहाँ गुरुद्वारा भी है। यहाँ के ग्रंथी के मुताबिक लखपत का गुरुद्वारा पहला गुरुद्वारा है। 1805 में कच्छ के राजा के लोकप्रिय सेनापति जामदार फ़तेह मुहम्मद ने इसकी सिंध के आक्रमण से रक्षा करने के लिए लखपत का किला बनवाया। जिसका परकोटा सात किलोमीटर का है। यहाँ कच्छ के विशाल रण से कोरी खाड़ी का मिलन होता है। तब सिंधु नदी यहाँ से बहा करती थी। यहाँ की जनसँख्या 5000 हुआ करती थी, जिनमे ज्यादातर सौदागर और हिंदू होते थे। सिंधु नदी के किनारे पर कोटरी नामक स्थान था जहाँ बड़ी नावें और जहाज़ आकर खड़े होते थे। यहाँ से ऊंटों पर अन्य साधनों से माल ढो–ढो कर थार तक पंहुचाया जाता था। सोचिये आज जो रेगिस्तानी क्षेत्र है, वहां सबसे ज्यादा खेती धान की होती थी। वर्ष 1819 में कच्छ में आये जबरदस्त भूकंप ने सब कुछ बदल दिया। यहाँ जून 1819 के सात दिनों में 36 भू-गर्भीय कंपन हुए। यहाँ से बहने वाले सिंधु नदी ने अपना रास्ता बदला दिया, एक प्राकृतिक बाँध – अल्लाह्बंद का निर्माण हो गया और नदी सीधे समुद्र में जाकर मिलने लगी। सब कुछ तहस नहस हो गया। बताया जाता है कि ऐतिहासिक महत्त्व के मद्देनज़र सरकार द्वारा इस क्षेत्र और लोगों के विकास के लिए राशि जारी की जाती रही, पर भ्रष्टाचार लखपत के वजूद को मिटाने की मुहीम में सफल साबित हुआ। अब यहाँ कोई नहीं आता है। आठ पीड़ियों से रह रहे लोग अपनी इन जड़ों को छोड़ना नहीं चाहते हैं। वे मानते हैं कि समृद्धता और सम्पन्नता हमेशा नहीं रहती। हम यदि लखपत को छोड़ भी देंगे तो हमारी ज़िंदगी नहीं बदलेगी। अब हमें अपना नया भविष्य गढ़ना है।
          कच्छ में ही 17वीं शताब्दी में निर्मित हुआ मुंद्रा बंदरगाह भी है। निजीकरण के जरिये आर्थिक विकास की नीतियों के तहत यह बंदरगाह दस साल पहले एक निजी कम्पनी समूह अडानी को दे दिया गया। उसने यहाँ पर्यावरण को खूब नुक्सान पंहुचाया, जिसके लिए उस पर 200 करोड़ रूपए का जुर्माना भी हुआ। बहरहाल यह बंदरगाह एक समय में नमक और मसालों के व्यापार के लिए बेहद प्रसिद्ध था। यहाँ रहने वाले खारवा जाति के लोग कुशल जहाज़ चालक होते थे, इसलिए यह बंदरगाह भी बहुत सफल रहा। इन तीनों उदाहरणों को देखा जाए तो आर्थिक सम्पन्नता के साथ यहाँ धार्मिक और आध्यात्मिक सौहार्द भी फैला हुआ नज़र आता है। मुंद्रा में भी शाह बुखारी पीर की दरगाह है। संत दरिया पीर के बारे में कहा जाता है कि वे मछुआरों की रक्षा करते थे और 17वीं सदी में यहाँ आये थे।
          गुजरात में कच्छ के दूसरे कोने में है मांडवी; एक समुद्र तट और एक शहर! थोडा विस्तार से बताता हूँ। आज जिस गुजरात राज्य को हम बहुत समृद्ध मानते हैं और सोचते हैं कि ये पिछले कुछ वर्षों में विकसित हुआ है, पर सच यह है कि समृद्धता तो यहाँ 400 साल पहले से आना शुरू हो गयी थी। वहां मांडवी में कच्छ के रजा खेंगारजी ने वर्ष 1574 में विशालकाय बंदरगाह बनवाया था। 1581 में नगर की स्थापना हुई। इस बंदरगाह की क्षमता 400 जहाज़ों की थी। मुंबई से पहले यह बंदरगाह बन गया था। आजकल भारत का भुगतान संतुलन बिगड़ा हुआ है यानी निर्यात कम होता है और आयात ज्यादा; पर 100 सालों तक मांडवी से होने वाले व्यापार में आयात से चार गुना ज्यादा निर्यात होता था। यहाँ से पूरी अफ्रीका, फारस की खाड़ी, मालाबार, पूर्वी एशिया से व्यापार के लिए जहाज़ अरब सागर के इस बंदरगाह पर आते थे। यहाँ के समुद्र को काला समुद्र या ब्लेक-सी भी कहा जाता है। क्योंकि यहाँ मिलने वाली बारीक मिट्टीनुमा रेत का रंग काला होता है। पहले-पहल तो आपको लगेगा कि - हैं! यहाँ तो कीचड है; पर जब हम इसे स्पर्श करते हैं तब हमें यहाँ की संस्कृति, सम्पन्नता और वैभवशाली अतीत का अहसास होने लगता है। इस यात्रा से मेरा यह विश्वास तो मज़बूत हुआ कि इतिहास और अतीत को बार-बार पलट कर जरूर देखना चाहिए; एक नए समाज को गढने के लिए यह बहुत जरूरी है।

{लेखक मध्यप्रदेश में रह कर सामाजिक मुद्दों पर अध्ययन और लेखन का काम करते हैं। उनसे sachin.vikassamvad@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है। इस आलेख के साथ दिए गए चित्र भी लेखक के द्वारा खींचे गए हैं।}

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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