ट्रेन आई और भगदड़ मच गयी -श्रीकृष्ण पांडेय
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28 दिसम्बर 1895, पेरिस के ग्रांड कैफे होटल के indiana sallon नामक कमरे में लोगों की खचाखच भीड़ पहली बार परदे पर चलते फिरते बिम्बों को देखने के लिए बेताब थी। जी हाँ, लुमिएर बंधुओं ने अपने नए उपकरण जिसका नाम सिनैमैटोग्राफ था, से बनाई 10 छोटी-छोटी फिल्मों का प्रदर्शन करने वाले थे। यह फिल्में 20-50 सेकेंड की थी। इन फिल्मों में कुछ दैनिक घटनाओं का फिल्मांकन किया गया था, जैसे-बाग की सिंचाई करता माली, बच्चे को दूध पिलाती हुई माँ (बोतल से), फ़ैक्टरी से बाहर निकलते हुए लोग इत्यादि। इन्ही फिल्मों में एक फिल्म थी जिसके दृश्य में प्लेटफार्म पर यात्री ट्रेन आकर रुकती है। जैसे ही विशाल परदे पर ट्रेन आते दिखी लोग हाल में उठकर इधर उधर भागने लगे। उन्हें लगा की ट्रेन उनके ऊपर चढ़ ना जाये। कहने का तात्पर्य है कि उन्हें वह दृश्य इतना जीवंत लगा कि वो ट्रेन को सच समझ बैठे। तो यह था सिनेमा का जादू जिसे पूरी दुनिया ने उसके जन्म के साथ देख लिया। 1895 में जन्म लिया हुआ सिनेमा 100 से ज्यादा वर्ष पार कर चुका है। मजे की बात यह है कि सिनेमा ईजाद होने के मात्र 6 माह बाद भारत पहुँच गया। भारत में लूमिएर बंधुओं का पहला प्रदर्शन मुंबई के वाट्सन होटल में 7 जुलाई 1896 में किया गया था। इस प्रदर्शन में भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फाल्के भी उपस्थित थे। चूंकि लुमिएर बंधुओं ने व्यापार के उद्देश्य से इस तकनीकी की खोज की थी तो उनका इरादा इसे जल्द से जल्द पूरे विश्व में दिखाकर ज्यादा से ज्यादा धन कमाना था। इन सौ से अधिक वर्षों में सिनेमा कहाँ से कहाँ पहुँच गया है कहने की आवश्यकता नहीं। आज हालीवुड से बॉलीवुड तक एक से बढ़कर एक विशेष तकनीक की फिल्में बन रही है। लेकिन सिनेमा के जन्म से जुड़ी कुछ दिलचस्प कहानियाँ जो बहुत ही अद्भुत एवं रोमांचक है शायद ही आप जानते हों। तो आइये आपको सिनेमा के जन्म की एक दास्तान सुनाते हैं...
आरंभिक काल से ही मनुष्य एक जिज्ञासु प्राणी रहा है। मानवता के विकास के क्रम में आज जो भी उपलब्धियां हैं सब जिज्ञासा के फलस्वरूप ही प्राप्त हुई हैं।मनुष्य ने जिज्ञासा के शमन के क्रम में जिन आविष्करो को पाया सिनेमा भी उन्हीं में से एक खोज है। सिनेमा निश्चित ही मनुष्य की वैज्ञानिक जिज्ञासा की देन है लेकिन इसे भी विभिन्न पड़ावों से होकर गुजरना पड़ा। कैमरे की तकनीकी एवं फोटोग्राफी के आविष्कार के बिना सिनेमा का जन्म ना होता। इसलिए सिनेमा के जन्म को समझने के लिए फोटोग्राफी को समझना अत्यंत आवश्यक है। कैमरे एवं फोटोग्राफी की कहानी भी ख़ासी पुरानी है- तकरीबन शताब्दियों में फैली हुयी। सिनेमा की तरह ही इसका भी आविष्कार एक सतत प्रक्रिया एवं कई वैज्ञानिकों के प्रयास का परिणाम है।
कैमरे एवं फोटोग्राफी का जन्म फ़्रांस में हुआ। फ़्रांस की सरकार ने 7 जनवरी 1839 एक सार्वजनिक घोषणा करके फ्रेंच चित्रकार लुई द’दागुएरा को फोटोग्राफी के आविष्कारक के रूप में मान्यता दी थी। लेकिन फिर भी यह किसी का व्यक्तिगत आविष्कार न होकर एक अत्यंत लंबी प्रक्रिया का परिणाम था। इसी तरह कैमरे के आविष्कार का श्रेय भी कई लोग नाइसफोर नाइप्स को देते है। निःसन्देह इसके डब्बा कैमरे के माड़ल को सामने रखकर उसमें क्रमशः और सुधार तथा तकनीकी परिष्कार करते-करते बहुत सारे वैज्ञानिकों के महत्वपूर्ण योगदान के बाद फ्रैंक और हीडैक ने मिलकर दो लेंसो वाला प्रथम आधुनिक कैमरा बनाया।
फोटोग्राफी एवं कैमरे के विकास क्रम जिसमे कैमरा, लेंस, स्थिर चित्र, स्थिर चित्र का निगेटिव प्राप्त करना, निगेटिव से स्थायी चित्र प्राप्त करने का बहुत लंबा इतिहास है। फिर भी फोटोग्राफी के विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान अमेरिका के एक पादरी रेवरेंड हन्नीबल विल्लिस्टन गुडविल का भी रहा। इसने 1898 में रोल फिल्म बनाई। जैसा कि इसका इस्तेमाल आज भी कैमरों में होता है लेकिन बहुत न्यून स्तर पर। इसका महत्व इसलिए है की रोल फिल्म के बिना चलचित्र कैमरों की कल्पना ही नहीं की जा सकती जो सिनेमा के आधारभूत तत्वों में से एक है। कैमरा, फोटोग्राफी एवं चित्रों के स्थिर दृश्यांकन के बाद चित्रों में गति पैदा करने का प्रयास जारी था। ये अलग बात है कि बड़ी सफलता देर से मिली। 16वीं सदी में कैमरे की खोज को लेकर कई प्रयोग चल रहे थे। जादुई लालटेन का अस्तित्व इन्ही प्रयोगों का परिणाम था।
शुरुआती दौर में चित्रों में गतिशीलता लाने के लिए विभिन्न तरीके प्रयोग में लाये जाते रहे। प्रारम्भिक अवस्था में काँच की पट्टी पर चित्र अंकित कर उसे एक विशेष उपकरण के सामने लगाकर पीछे से लालटेन लगा दी जाती थी, इस प्रकार एक धुंधला चित्र परदे पर दिखाई देने लगता था। लालटेन ही वह आधारभूत उपकरण है जिससे वैज्ञानिकों ने फिल्म प्रॉजेक्टर का विकास किया। इसके बाद गतिशील ड्रम तथा डिस्क द्वारा भी चित्रों में गतिशीलता पैदा करने की कोशिश कि गयी जो सफल रही।
- प्रारम्भिक दौर के सिनेमा से संबन्धित कुछ प्रमुख उपकरण है-
जोएट्रोप
ब्रिटेन के वैज्ञानिक विलियम हार्नर ने जोएट्रोप नामक अद्भुत उपकरण की खोज की। ये एक कटोरिनुमा यंत्र था जो गोलाई में घूम सकता था। इसके दीवारों पर छोटे-छोटे छिद्र बने होते थे। इसमे अंदर की सतह पर एक नियमित दूरी पर चित्र अंकित होते थे। इसे घुमाने पर एवं छिद्रों से देखने पर चित्रों में गति का भ्रम होता था।
प्रक्सिनोस्कोप
इसकी खोज चार्ल्स एमिले रोनाल्ड द्वारा फ़्रांस में की गई। लेकिन लुमिएर बंधुओं के फोटोग्राफिक फिल्म आने के बाद इसकी मांग खत्म हो गयी।
म्यूटोस्कोप
इसमे फ्लैप बुक की तरह 850 के क़रीब कार्ड्स लगे होते थे इन कार्डों पर अंकित चित्रों में एक क्रमिक गतिशीलता होती थी। बाहर लगे एक हंडल के द्वारा इसे चलाने पर इसके कार्ड एक-एक कर लेंस के सामने से गुजरते थे जिन्हें देखने पर चित्रों में एक समान गति का आभास होता था। ये कार्ड क़रीब एक मिनट फिल्मों की तरह चलते थे।
उपरोक्त सभी उपकरण विज्ञान के एक विशेष नियम के तहत कारी करते थे जिसे persistance ofvision कहा जाता है।इस सिद्धान्त के तहत एक छवि के आँखों के सामने से हटाने के बाद कुछ समय तक उसका बिम्ब आँखों में बना रहता है इसी प्रक्रिया में स्थिर छवियों की एक क्रमिक श्रृंखला को एक निश्चित गति देने पर छवियाँ गतिशील दिखाई देने लगती है।
एक अद्भुत जिज्ञासा
ये क़िस्सा इस तरह है कि अमेरिकी रईसों के बीच उन दिनो ये बहस गर्म थी कि घोड़ा जब दौड़ता है तो क्या कभी ऐसी स्थिति आती है की घोड़े के चारों पैर हवा में होते है? कुछ लोग कहते थे कि हाँ ऐसा होता है पर कुछ लोग इसे नकार दिया करते थे। कैलिफोर्निया के गवर्नर लीलेंड स्टेंफोर्ड ने 1872 में ये जानने की कोशिश की और इन्ही के प्रयासों के फलस्वरूप ही इस पर प्रयोग शुरू हुआ। गवर्नर ने सैनफ्रान्सिस्को के फोटोग्राफर एडवर्ड मेब्रिज को इस काम की ज़िम्मेदारी सौपी। मेब्रिज ने कोशिश की लेकिन वह सफल नही हुआ। क्योंकि शुरुआत में लिए गए चित्र इतने धुंधले और अस्पष्ट थे की कुछ अनुमान नही लगाया जा सकता था। इसी बात पर 25 हजार डॉलर की शर्त लग गई और एडवर्ड मेब्रिज इस शर्त को भुला नही पाया। पाँच साल के कड़े संघर्ष के बाद उसने एक एंजीनियर की मदद से एक नया प्रयोग किया। एंजीनियर ने एक कतार में 24 कैमरे लगाए और सबको बिजली के तार से जोड़ दिया। बटन दबाने पर बिजली प्रवाहित होती थी जिससे प्रत्येक कैमरे के शटर उसी क्रम में खुलते और बंद होते थे। अब ज़रूरत इस बात की थी कि घोड़े द्वारा दौड़ते हुए प्रभावित क्षेत्र में प्रवेश करने तथा कैमरों को संचालित करने का प्रथम क्षण समान हो। बटन दबाते ही घोड़े के गति के साथ साथ विद्युत प्रवाहित होने के कारण सभी कैमरे एक के बाद एक स्पष्ट छायाचित्र लेने में सफल हो सके। इसीलिए कैमरे उस क्षणांश को पकड़ सके जब घोड़े के चारों पैर हवा में थे। और इस स्थिति को मनुष्य की आँख पूरी कोशिश के बाद भी नहीं देख पाती थी। मेब्रिज ने इसे अपने आविष्कार के रूप में पंजीकृत करवाया।
इसी क्रम में एडवर्ड मेब्रिज ने एक लालटेन की खोज की, जो उसकी उपरोक्त खोज जिसे galloping horse कहते थे, को परदे पर दिखाती थी। मेब्रिज ने इसे गतिशील वस्तुओं को छायांकित करने और दर्शाने की पद्धति के नाम से 1882 में पंजीकृत करवाया। इसी एमिले रोनाल्ड के उपकरण प्रक्सिनोस्कोप के माध्यम से पेरिस के एक हाल में उपरोक्त चित्रों का प्रदर्शन किया गया। मानव की जिज्ञासा के फलस्वरूप अनजाने में ही एक बहुत बड़ा आविष्कार हो गया। सिनेमा के उद्भव में यह बड़ा कदम साबित हुया।
इसी क्रम में सन 1891 में इंग्लैंड के एक युवा एंजिनियर विलियम डिक्सन जो एडीसन की कंपनी में काम करता था, एक अद्भुत यंत्र काइनेटोस्कोप का आविष्कार किया जिसे थामस अल्वा एडीसन ने अपने नाम से पंजीकृत करा लिया। काइनेटोस्कोप एक बक्सेनुमा यंत्र होता था जिससे आँख लगाकर देखने पर अंदर की रील पर स्थिर चित्र गति से चलते थे। तेज़ीसे बदलतों तस्वीरों को देखकर वास्तविक गति का भ्रम होता था। दरअसल 1888 में एडवर्ड मेब्रिज ने अपने प्रयोग का खुलासा न्यू जर्सी शहर में एक संगोष्ठी में कर दिया था। अब काइनेटोग्राफ एवं काइनेटोस्कोप नामक यंत्रों में विलियम डिक्सन ने उसके सिद्धांतो का ही प्रयोग किया था। काइनेटोग्राफ एक प्रकार का कैमरा होता है। इसी उपकरण के माध्यम से फिल्म पट्टी पर चित्र अंकित किए जाते हैं और काइनेटोस्को के माध्यम से उसका प्रदर्शन होता था। इस यंत्र के माध्यम से एक समय में केवल एक व्यक्ति ही फिल्म देख सकता था। क्योंकि इसके द्वारा चित्रों का प्रक्षेपण परदे पर संभव नहीं था। दरअसल इन तमाम आविष्कारों से गुजरते हुये ही intermitant motion mechanism यानि ‘सविराम गति का नियम’ नामक सिद्धान्त विकसित हुआ। इसकी खोज फ़्रांस के लुमिएर बंधुओं के द्वारा की गयी थी। इस सिद्धान्त के तहत किसी भी दृश्य का आगे बढ़ाने से पहले पूरी तरह ठहर जाना आवश्यक है। फिल्मांकन एवं फिल्म प्रक्षेपण के समय प्रत्येक फ्रेम का आगे बढ़ाने से पहले पूरी तरह ठहर जाना आवश्यक होता है। तभी कैमरे द्वारा फिल्मांकन संभव हो पता है तथा हम परदे पर प्रक्षेपित बिम्ब को आत्मसात कर पाते है।
इन सारे सिद्धांतों, उपकरणों, एवं प्रयोगों को तब मंजिल मिली जब लुमिएर बंधुओं ने उपरोक्त सिद्धान्त पर आधारित अपने सिनेमटोग्राफ नामक यंत्र का पंजीकरण करवाया। सिनेमेटोग्राफ एक अद्भुत यंत्र था। यह एक डब्बेनुमा मशीन थी जिसके मुख्य रूप से तीन भाग थे। कैमरा, लैब एवं प्रॉजेक्टर। एक तरफ कैमरा होता था जिससे फिल्म पट्टी पर दृश्यंकन किया जाता था फिर यह फिल्म पट्टी स्वचालित तरीके से मशीन के निचले हिस्से में जाती थी जहां लैब स्थित होता था, वहाँ से विकसित होकर मशीन के दूसरे ओर जाकर स्वतः ही प्रॉजेक्टर में लग जाती थी। यहीं से इसे परदे पर प्रक्षेपित किया जाता था। यह इतना बड़ा आविष्कार था कि झटके से सिनेमा को एक दिशा मिल गयी। इसी के आविष्कार के साथ ही सिनेमा देखना एक सामूहिक अनुभव में बदक गया, इसके पहले लोग एडीसन के काइनेटोस्कोप में अकेले ही झांक कर फिल्म देखने का मज़ा लेते थे। लुमिएर बंधुओं के सिनैमैटोग्राफ से एक जन समूह एक साथ, एक ही समय तथा एक ही स्थान पर एकत्र होकर फिल्म देख सकता था।
सिनेमटोग्राफ का प्रथम सार्वजनिक प्रदर्शन 28 दिसम्बर 1895 को ग्रांड कैफे नामक होटल में फ़्रांस में किया गया। होटल का एक कमर जिसका नाम indian sallon था प्रदर्शन से पूर्व ही खचाखच भर गया इस प्रदर्शन में लुमिएर बंधुओं ने अपनी 10 छोटी फिल्मों का प्रदर्शन किया।
लुमिएर बंधुओं की 10 फिल्में हैं-
- La Sortie de l'Usine Lumière à Lyon (literally, "the exit from the Lumière factory in Lyon", or, under its more common English title, Workers Leaving the Lumiere Factory), 46 seconds
- Le Jardinier (l'Arroseur Arrosé) ("The Gardener," or "The Sprinkler Sprinkled"), 49 seconds
- Le Débarquement du Congrès de Photographie à Lyon ("the disembarkment of the Congress of Photographers in Lyon"), 48 seconds
- La Voltige ("Horse Trick Riders"), 46 seconds
- La Pêche aux poissons rouges ("fishing for goldfish"), 42 seconds
- Les Forgerons ("Blacksmiths"), 49 seconds
- Repas de bébé ("Baby's Breakfast" (lit. "baby's meal")), 41 seconds
- Le Saut à la couverture ("Jumping Onto the Blanket"), 41 seconds
- La Places des Cordeliers à Lyon ("Cordeliers Square in Lyon"—a street scene), 44 seconds
- La Mer (Baignade en mer) ("the sea [bathing in the sea]"), 38 seconds
इन प्रदर्शनों के माध्यम से लोगों ने किसी घटना को दोबारा घटित होते देखने के अनुभव लिया, क्योंकि ये सारी फिल्में सच्ची घटनाओं को फिल्मांकित करके बनाई गयी थी। इनमें कोई छेड़-छाड़ नहीं किया गया था। मजेदार बात ये है की ये सभी डाक्यूमेंटरी ही थी। इस प्रदर्शन के बाद लुमिएर बंधु इसके व्यावसायिक प्रदर्शन करने लगे और देश-विदेश में इसका प्रचार होने लगा। लुमिएर बंधुओं की विस्तारवादी रणनीति के आगे एडीसन का काईनेटोस्कोप असफल साबित हुआ। मगर दिलचस्प बात यह है कि अगर सफल हो जाता तो सिनेमा का दूसरा रूप हमारे सामने होता। तब सिनेमा एक वैयक्तिक अनुभव बनकर रह जाता बनिस्वत सामूहिक अनुभव के।
- श्रीकृष्ण पांडेय
महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय
वर्धा, महाराष्ट्र
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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