सात्विक गीत बड़े मंहगे हैं -दिनेश सिंह

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ये खग तेरा गान खो गया कहीं कलम से
झरनो की झंकार खो गयी कहीं कलम से
तेरी सुधि में गीत कहाँ मिलते सस्ते है
सात्विक गीत बड़े मंहगे हैं

देखो कविते उपवन गीतों का मुरझाया है
बादल का वो अमर राग खोया खोया है
एक सूरत पर सारे रस आकर ठहरे हैं
सात्विक गीत बड़े मंहगे हैं

अब मकरन्दों का स्पन्दन भी हीन हुआ
अरविंदों के नवल गन्ध भी छिर्ण हुआ
अब तितली के पंखों के गान कहाँ मिलते है
सात्विक गीत बड़े मंहगे हैं

गीतों में सौंदर्य कहाँ शायन-प्रभात का
कही लुप्त रस हुआ श्यामा के गीतों का
नयी नवेली सोनजुही के गीत नहीं है
सात्विक गीत बड़े मंहगे हैं

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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