"कृष्ण और महाभारत": अवतरणों में अंतर

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[[राजसूय यज्ञ]] के समाप्त हो जाने पर [[कृष्ण]] [[युधिष्ठिर]] से आज्ञा लेकर [[द्वारका]] लौट गये। इसके कुछ समय उपरांत [[दुर्योधन]] ने अपने [[शकुनि|मामा शकुनि]] की सहायता से छल द्वारा जुए में [[पांडव|पांडवों]] को हरा दिया और उन्हें इस शर्त पर तेरह वर्ष के लिए निर्वासित कर दिया कि अंतिम वर्ष उन्हें [[अज्ञातवास]] करना पड़ेगा।


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पांडव [[द्रौपदी]] के साथ [[काम्यकवन]] की ओर चले गये। उनके साथ सहानुभूति रखने वाले बहुत से लोग काम्यकवन में पहुँचे, जहाँ पांडव ठहरे थे। भोज, वृष्णि और अंधक-वंशी यादव तथा पंचाल-नरेश [[द्रुपद]] भी उनसे मिले। [[कृष्ण]] को जब यह सब ज्ञात हुआ तो वह शीघ्र पांडवों से मिलने आये। उनकी दशा देख तथा द्रौपदी की आक्रोशपूर्ण प्रार्थना सुन कृष्ण द्रवित हो उठे। उन्होंने द्रौपदी को वचन दिया कि वे पांडवों की सब प्रकार से सहायता करेंगे और उनका राज्य वापस दिलवाएंगे। इसके बाद कृष्ण [[सुभद्रा]] तथा उसके बच्चे [[अभिमन्यु]] को लेकर द्वारका वापस गये। पांडवों ने अज्ञातवास का एक साल [[विराट]] के यहाँ व्यतीत किया। [[कौरव|कौरवों]] ने विराट पर चढ़ाई कर उनके पशु छीन लिये थे, पर पांडवों की सहायता से विराट ने कौरवों पर विजय पाई और अपने पशुओं को लौटा लिया। विराट को अन्त में यह ज्ञात हुआ कि उनके यहाँ पांडव गुप्त रूप से अब तक निवास करते रहे थे। उन्होंने अपनी पुत्री [[उत्तरा]] का विवाह [[अर्जुन]] के पुत्र अभिमन्यु के साथ कर दिया। इस विवाह में अभिमन्यु के मामा कृष्ण, [[बलराम]] भी सम्मिलित हुए।
==महाभारत- द्रोणाभिषेकपर्व, आश्वमेधिकपर्व==
श्री[[कृष्ण]] मंझले भाई थे।  उनके बड़े भाई का नाम [[बलराम]] था जो अपनी भक्ति में ही मस्त रहते थे। उनसे छोटे का नाम 'गद' था।  वे अत्यंत सुकुमार होने के कारण श्रम से दूर भागते थे।  श्रीकृष्ण के बेटे [[प्रद्युम्न]] अपने दैहिक सौंदर्य से मदासक्त थे।  कृष्ण अपने राज्य का आधा धन ही लेते थे, शेष यादववंशी उसका उपभोग करते थे।  श्रीकृष्ण के जीवन में भी ऐसे क्षण आये जब उन्होंने अपने जीवन का असंतोष [[नारद]] के सम्मुख कह सुनाया और पूछा कि यादववंशी लोगों के परस्पर द्वेष तथा अलगाव के विषय में उन्हें क्या करना चाहिए।  नारद ने उन्हें सहनशीलता का उपदेश देकर एकता बनाये रखने को कहा।
<br />(म0भा0, द्रोणाभिषेकपर्व, 11, श्लोक 10-11, शांतिपर्व 81, आश्व मेधिकपर्व,52)
==महाभारत- मौसलपर्व / ब्रह्म पुराण==
[[महाभारत]] युद्ध में [[कौरव|कौरवों]] के संहार के उपरांत [[गांधारी]] ने श्रीकृष्ण को समस्त वंश सहित नष्ट होने का शाप दिया था।  युद्ध के 36 वर्ष उपरांत यादववंशियों में अन्याय और कलह अपने चरम पर पहुंच गया।  श्रीकृष्ण को बार-बार गांधारी के शाप का स्मरण हो आता।  तभी मौसल युद्ध में समस्त यादव, [[वृष्णि संघ|वृष्णि]] तथा [[अंधक संघ|अंधकवंशी]] लोगों का नाश हो गया। श्रीकृष्ण तपस्या में लगे भाई बलराम के पास तपस्या करने के लिए चले गये। बलराम योगयुक्त समाधिस्थ बैठे थे।  कृष्ण ने देखा कि उनके मुंह से एक श्वेत वर्ण का विशालकाय सर्प निकला जिसके एक सहस्त्र फन थे।  वह महासागर की ओर बढ़ गया।  सागर में से तक्षक, अरुण, कुंजर इत्यादि सब ने भगवान अनंत की भांति उसका स्वागत किया।  इस प्रकार बलराम का शरीर-त्याग देखकर कृष्ण पुन: गांधारी के शाप तथा [[दुर्वासा]] के शरीर पर जूठी खीर पुतवाने की बात स्मरण करते रहे, फिर मन, वाणी और इन्द्रियों का निरोध करके [[पृथ्वी]] पर लेट गये।  उसी समय जरा नामक एक भंयकर व्याध मृगों को मारता हुआ वहां पहुंचा। लेटे हुए कृष्ण को मृग समझकर उसने बाण से प्रहार किया जो श्रीकृष्ण को पांव के तलवों में लगा।  पास जाकर उसने कृष्ण को पहचाना तथा क्षमा-याचना की कृष्ण उसे आश्वस्त कर ऊर्ध्वलोक में चले गये।<br />
(म0भा0, मौसलपर्व, अध्याय 04, ब्र0पु0 , 210 से 211 तक)


==महाभारत- उद्योगपर्व==
इसके उपरांत [[विराट नगर]] में सभा हुई और उसमें विचार किया गया कि कौरवों से पांडवों का समझौता किस प्रकार कराया जाय। बलराम ने कहा कि [[शकुनि]] का इस झगड़े में कोई दोष नहीं था; [[युधिष्ठिर]] उसके साथ जुआ खेलने ही क्यों गये? हाँ, यदि किसी प्रकार संधि हो जाय तो अच्छा है। [[सात्यकि]] और द्रुपद को बलराम की ये बाते अच्छी नहीं लगी। कृष्ण ने द्रुपद के कथन की पुष्टि करते हुए कहा कि कौरव अवश्य दोषी है। [[चित्र:Krishna-and-Arjuna.jpg|thumb|300px|left|[[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] तथा [[अर्जुन]]]] अतं में सर्वसम्मति से यह तय हुआ कि संधि के लिए किसी योग्य व्यक्ति को [[दुर्योधन]] के पास भेजा जाय। द्रुपद ने अपने पुरोहित को इस काम के लिए भेजा। कृष्ण इस सभा में सम्मिलित होने के बाद द्वारका चले गये। संधि की बात तब न हो सकी। दुर्योधन पांडवों को पाँच गाँव तक देने को राजी न हुआ। अब युद्ध अनिवार्य जानकर दुर्योधन और अर्जुन दोनों श्रीकृष्ण से सहायता प्राप्त करने के लिए [[द्वारका]] पहुँचे। नीतिज्ञ कृष्ण ने पहले दुर्योधन से पूछा कि तुम मुझे लोगे या मेरी सेना को? दुर्योधन ने तत्काल सेना मांगी। कृष्ण ने अर्जुन को वचन दिया कि वह उसके सारथी बनेंगे और स्वयं शस्त्र न ग्रहण करेंगे।
[[अभिमन्यु]] तथा [[उत्तरा]] के विवाह के उपरांत उपस्थित मित्र तथा संबंधियों ने मन्त्रणा की कि तेरह वर्ष पूर्ण होने पर भी [[कौरव]] आधा राज्य दे देंगे, ऐसा नहीं प्रतीत होता, अत: एक दूत [[दुर्योधन]] के पास भेजना चाहिए ताकि उसके विचार पता चले और दूसरी ओर सेना-संचय प्रारंभ करना चाहिए।  निश्चय के अनुसार [[अर्जुन]] कृष्ण के पास युद्ध में सहायता मांगने के लिए पहुंचा।  इससे पूर्व वहां दुर्योधन पहुंच चुका था। कृष्ण सो रहे थे।  दुर्योधन सिरहाने  की ओर के आसन पर बैठा था- अर्जुन पांव की ओर खड़ा रहा।  कृष्ण ने उठकर पहले अर्जुन को देखा फिर दुर्योधन को दोनों सहायता के लिए आये थे।  एक पहले आया था, दूसरा पहले देखा गया था।  अत: कृष्ण ने एक को सेना देने का तथा दूसरे को स्वयं बिना हथियार उठाए सहायता करने का निश्चय किया।  अर्जुन कृष्ण को पाकर तथा दुर्योंधन सेना पाकर प्रसन्न हो गये।<br />
(म0भा0, उद्योगपर्व , अध्याय 1 से 7)
{{महाभारत}}


कृष्ण व अर्जुन के साथ [[इन्द्रप्रस्थ]] आ गये। [[कृष्ण]] के आने पर पांडवों ने फिर एक सभा की और निश्चय किया कि एक बार संधि का और प्रयत्न किया जाय। युधिष्ठिर ने अपना मत प्रकट करते हुए कहा- 'हम पाँच भाइयों को [[अविस्थल]], वृकस्थल, माकन्दी, वरणावर्त और एक कोई अन्य गांव निर्वाह मात्र के लिए चाहिए। इतने पर ही हम मान जायेंगे, अन्यथा युद्ध के लिए प्रस्तुत होना पड़ेगा।' उनके इस कथन का समर्थन के लिए अन्य लोगों को प्रस्तुत होना पड़ेगा। उनके इस कथन का समर्थन अन्य लोगों ने किया भी। यह तय हुआ कि इस बार संधि का प्रस्ताव लेकर कृष्ण कौरवों के पास जायें। कृष्ण संधि कराने को बहुत इच्छुक थे। उन्होंने दुर्योधन की सभा में जाकर उसे समझाया और कहा कि केवल पाँच गाँव पांडवों को देकर झगड़ा समाप्त कर दिया जाय। परंतु अभिमानी दुर्योधन ने स्पष्ट कह दिया कि बिना युद्ध के वह पांडवों को सुईं की नोंक के बराबर भी ज़मीन न देगा।
==महाभारत युद्ध==
इस प्रकार [[कृष्ण]] भी संधि कराने में असफल हुए। अब युद्ध अनिवार्य हो गया। दोनों पक्ष अपनी-अपनी सेनाएँ तैयार करने लगे। इस भंयकर युद्धाग्नि में इच्छा या अनिच्छा से आहुति देने को प्राय: सारे भारत के शासक शामिल हुए। पांडवों की ओर मध्यदेश, पंचाल, चेदि, कारूश, पश्चिमी मगध, काशी और कंशल के राजा हुए। सौराष्ट्र-गुजरात के वृष्णि यादव भी पांडवों के पक्ष में रहे। कृष्ण, युयंधान और सात्यकि इन यादवों के प्रमुख नेता थे। ब्रजराम यद्यपि कौरवों के पक्षपाती थे, तो भी उन्होंने कौरव-पांडव युद्ध में भाग लेना उचित न समझा और वे तीर्थ-पर्यटन के लिए चले गये। कौरवों की ओर [[शूरसेन जनपद |शूरसेन]] के यादव तथा महिष्मति, अवंति, विदर्भ और निषद देश के यादव हुए। इनके अतिरिक्त पूर्व में बंगाल, आसाम, उड़ीसा तथा उत्तर-पश्चिम एवं पश्चिम भारत के राजा और वत्स देश के शासक कौरवों की ओर रहे। इस प्रकार मध्यदेश का अधिकांश, गुजरात और सौराष्ट्र का बड़ा भाग पांडवों की ओर था और प्राय: सारा पूर्व, उत्तर-पश्चिम और पश्चिमी विंध्य [[कौरव|कौरवों]] की तरफ। [[पांडव|पांडवों]] की कुल सेना सात अक्षौहिणी तथा कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी थी।
[[चित्र:Lord-Krishnas-Vishvarupa.jpg|thumb|300px|left|[[अर्जुन]] को विश्वरूप दिखाते [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]]]]
दोनों ओर की सेनाएं युद्ध के लिए तैयार हुई। [[कृष्ण]], [[धृष्टद्युम्न]] तथा [[सात्यकि]] ने पांडव-सैन्य की व्यूह-रचना की। [[कुरुक्षेत्र]] के प्रसिद्ध मैदान में दोनों सेनाएं एक-दूसरे के सामने आ डटीं। [[अर्जुन]] के सारथी कृष्ण थे। युद्धस्थल में अपने परिजनों आदि को देखकर अर्जुन के चित्त में विषाद उत्पन्न हुआ और उसने युद्ध करने से इंकार कर दिया। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को '[[गीता]]' के निष्काम कर्मयोग का उपदेश दिया और अपने विश्वरूप के दर्शन कराकर उसकी भ्रांति दूर की। अब अर्जुन युद्ध के लिए पूर्णतया प्रस्तुत हो गया। [[महाभारत]] के युद्ध में शंख का भी अत्यधिक महत्त्व था। शंखनाद के साथ युद्ध प्रारंभ होता था। जिस प्रकार प्रत्येक रथी सेनानायक का अपना ध्वज होता था, उसी प्रकार प्रमुख योद्धाओं के पास अलग-अलग शंख भी होते थे। भीष्मपर्व के अंतर्गत 'गीता उपपर्व' के प्रारंभ में विविध योद्धाओं के नाम दिए गए हैं। कृष्ण के शंख का नाम 'पांचजन्य' था, अर्जुन का 'देवदत्त', [[युधिष्ठिर]] का 'अनंतविजय', [[भीम]] का 'पौण्ड', [[नकुल]] का 'सुघोष' और [[सहदेव]] का 'मणिपुष्पक'।


अठारह दिन तक यह महाभीषण संग्राम होता रहा। देश का अपार जन-धन इसमें स्वाहा हो गया। कौरवों के शक्तिशाली सेनापति [[भीष्म]], [[द्रोण]], कर्ण, [[शल्य]] आदि धराशायी हो गये। अठारहवें दिन [[दुर्योधन]] मारा गया और महाभारत युद्ध की समाप्ति हुई। यद्यपि पांडव इस युद्ध में विजयी हुए, पर उन्हें शांति न मिल सकी। चारों ओर उन्हें क्षोभ और निराशा दिखाई पड़ने लगी। श्रीकृष्ण ने शरशैय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह से युधिष्ठिर को उपदेश दिलवाया। फिर [[हस्तिनापुर]] में राज्याभिषेक-उत्सव सम्पन्न करा कर वे [[द्वारका]] लौट गये। पांडवों ने कुछ समय बाद एक [[अश्वमेध यज्ञ]] किया और इस प्रकार वे भारत के चक्रवर्ती सम्राट घोषित हुए। कृष्ण भी इस यज्ञ में सम्मिलित हुए और फिर द्वारका वापस चले गये। यह कृष्ण की अंतिम हस्तिनापुर यात्रा थी। अब वे वृद्ध हो चुके थे। महाभारत-संग्राम में उन्हें जो अनवरत परिश्रम करना पड़ा, उसका भी उनके स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।


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12:01, 7 अक्टूबर 2016 के समय का अवतरण

कृष्ण विषय सूची
संक्षिप्त परिचय
कृष्ण और महाभारत
अन्य नाम वासुदेव, मोहन, द्वारिकाधीश, केशव, गोपाल, नंदलाल, बाँके बिहारी, कन्हैया, गिरधारी, मुरारी, मुकुंद, गोविन्द, यदुनन्दन, रणछोड़ आदि
अवतार सोलह कला युक्त पूर्णावतार (विष्णु)
वंश-गोत्र वृष्णि वंश (चंद्रवंश)
कुल यदुकुल
पिता वसुदेव
माता देवकी
पालक पिता नंदबाबा
पालक माता यशोदा
जन्म विवरण भाद्रपद, कृष्ण पक्ष, अष्टमी
समय-काल महाभारत काल
परिजन रोहिणी (विमाता), बलराम (भाई), सुभद्रा (बहन), गद (भाई)
गुरु संदीपन, आंगिरस
विवाह रुक्मिणी, सत्यभामा, जांबवती, मित्रविंदा, भद्रा, सत्या, लक्ष्मणा, कालिंदी
संतान प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, सांब
विद्या पारंगत सोलह कला, चक्र चलाना
रचनाएँ 'गीता'
शासन-राज्य द्वारिका
संदर्भ ग्रंथ 'महाभारत', 'भागवत', 'छान्दोग्य उपनिषद'।
मृत्यु पैर में तीर लगने से।
संबंधित लेख कृष्ण जन्म घटनाक्रम, कृष्ण बाललीला, गोवर्धन लीला, कृष्ण बलराम का मथुरा आगमन, कंस वध, कृष्ण और महाभारत, कृष्ण का अंतिम समय

राजसूय यज्ञ के समाप्त हो जाने पर कृष्ण युधिष्ठिर से आज्ञा लेकर द्वारका लौट गये। इसके कुछ समय उपरांत दुर्योधन ने अपने मामा शकुनि की सहायता से छल द्वारा जुए में पांडवों को हरा दिया और उन्हें इस शर्त पर तेरह वर्ष के लिए निर्वासित कर दिया कि अंतिम वर्ष उन्हें अज्ञातवास करना पड़ेगा।

पांडव द्रौपदी के साथ काम्यकवन की ओर चले गये। उनके साथ सहानुभूति रखने वाले बहुत से लोग काम्यकवन में पहुँचे, जहाँ पांडव ठहरे थे। भोज, वृष्णि और अंधक-वंशी यादव तथा पंचाल-नरेश द्रुपद भी उनसे मिले। कृष्ण को जब यह सब ज्ञात हुआ तो वह शीघ्र पांडवों से मिलने आये। उनकी दशा देख तथा द्रौपदी की आक्रोशपूर्ण प्रार्थना सुन कृष्ण द्रवित हो उठे। उन्होंने द्रौपदी को वचन दिया कि वे पांडवों की सब प्रकार से सहायता करेंगे और उनका राज्य वापस दिलवाएंगे। इसके बाद कृष्ण सुभद्रा तथा उसके बच्चे अभिमन्यु को लेकर द्वारका वापस गये। पांडवों ने अज्ञातवास का एक साल विराट के यहाँ व्यतीत किया। कौरवों ने विराट पर चढ़ाई कर उनके पशु छीन लिये थे, पर पांडवों की सहायता से विराट ने कौरवों पर विजय पाई और अपने पशुओं को लौटा लिया। विराट को अन्त में यह ज्ञात हुआ कि उनके यहाँ पांडव गुप्त रूप से अब तक निवास करते रहे थे। उन्होंने अपनी पुत्री उत्तरा का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के साथ कर दिया। इस विवाह में अभिमन्यु के मामा कृष्ण, बलराम भी सम्मिलित हुए।

इसके उपरांत विराट नगर में सभा हुई और उसमें विचार किया गया कि कौरवों से पांडवों का समझौता किस प्रकार कराया जाय। बलराम ने कहा कि शकुनि का इस झगड़े में कोई दोष नहीं था; युधिष्ठिर उसके साथ जुआ खेलने ही क्यों गये? हाँ, यदि किसी प्रकार संधि हो जाय तो अच्छा है। सात्यकि और द्रुपद को बलराम की ये बाते अच्छी नहीं लगी। कृष्ण ने द्रुपद के कथन की पुष्टि करते हुए कहा कि कौरव अवश्य दोषी है।

श्रीकृष्ण तथा अर्जुन

अतं में सर्वसम्मति से यह तय हुआ कि संधि के लिए किसी योग्य व्यक्ति को दुर्योधन के पास भेजा जाय। द्रुपद ने अपने पुरोहित को इस काम के लिए भेजा। कृष्ण इस सभा में सम्मिलित होने के बाद द्वारका चले गये। संधि की बात तब न हो सकी। दुर्योधन पांडवों को पाँच गाँव तक देने को राजी न हुआ। अब युद्ध अनिवार्य जानकर दुर्योधन और अर्जुन दोनों श्रीकृष्ण से सहायता प्राप्त करने के लिए द्वारका पहुँचे। नीतिज्ञ कृष्ण ने पहले दुर्योधन से पूछा कि तुम मुझे लोगे या मेरी सेना को? दुर्योधन ने तत्काल सेना मांगी। कृष्ण ने अर्जुन को वचन दिया कि वह उसके सारथी बनेंगे और स्वयं शस्त्र न ग्रहण करेंगे।

कृष्ण व अर्जुन के साथ इन्द्रप्रस्थ आ गये। कृष्ण के आने पर पांडवों ने फिर एक सभा की और निश्चय किया कि एक बार संधि का और प्रयत्न किया जाय। युधिष्ठिर ने अपना मत प्रकट करते हुए कहा- 'हम पाँच भाइयों को अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वरणावर्त और एक कोई अन्य गांव निर्वाह मात्र के लिए चाहिए। इतने पर ही हम मान जायेंगे, अन्यथा युद्ध के लिए प्रस्तुत होना पड़ेगा।' उनके इस कथन का समर्थन के लिए अन्य लोगों को प्रस्तुत होना पड़ेगा। उनके इस कथन का समर्थन अन्य लोगों ने किया भी। यह तय हुआ कि इस बार संधि का प्रस्ताव लेकर कृष्ण कौरवों के पास जायें। कृष्ण संधि कराने को बहुत इच्छुक थे। उन्होंने दुर्योधन की सभा में जाकर उसे समझाया और कहा कि केवल पाँच गाँव पांडवों को देकर झगड़ा समाप्त कर दिया जाय। परंतु अभिमानी दुर्योधन ने स्पष्ट कह दिया कि बिना युद्ध के वह पांडवों को सुईं की नोंक के बराबर भी ज़मीन न देगा।

महाभारत युद्ध

इस प्रकार कृष्ण भी संधि कराने में असफल हुए। अब युद्ध अनिवार्य हो गया। दोनों पक्ष अपनी-अपनी सेनाएँ तैयार करने लगे। इस भंयकर युद्धाग्नि में इच्छा या अनिच्छा से आहुति देने को प्राय: सारे भारत के शासक शामिल हुए। पांडवों की ओर मध्यदेश, पंचाल, चेदि, कारूश, पश्चिमी मगध, काशी और कंशल के राजा हुए। सौराष्ट्र-गुजरात के वृष्णि यादव भी पांडवों के पक्ष में रहे। कृष्ण, युयंधान और सात्यकि इन यादवों के प्रमुख नेता थे। ब्रजराम यद्यपि कौरवों के पक्षपाती थे, तो भी उन्होंने कौरव-पांडव युद्ध में भाग लेना उचित न समझा और वे तीर्थ-पर्यटन के लिए चले गये। कौरवों की ओर शूरसेन के यादव तथा महिष्मति, अवंति, विदर्भ और निषद देश के यादव हुए। इनके अतिरिक्त पूर्व में बंगाल, आसाम, उड़ीसा तथा उत्तर-पश्चिम एवं पश्चिम भारत के राजा और वत्स देश के शासक कौरवों की ओर रहे। इस प्रकार मध्यदेश का अधिकांश, गुजरात और सौराष्ट्र का बड़ा भाग पांडवों की ओर था और प्राय: सारा पूर्व, उत्तर-पश्चिम और पश्चिमी विंध्य कौरवों की तरफ। पांडवों की कुल सेना सात अक्षौहिणी तथा कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी थी।

अर्जुन को विश्वरूप दिखाते श्रीकृष्ण

दोनों ओर की सेनाएं युद्ध के लिए तैयार हुई। कृष्ण, धृष्टद्युम्न तथा सात्यकि ने पांडव-सैन्य की व्यूह-रचना की। कुरुक्षेत्र के प्रसिद्ध मैदान में दोनों सेनाएं एक-दूसरे के सामने आ डटीं। अर्जुन के सारथी कृष्ण थे। युद्धस्थल में अपने परिजनों आदि को देखकर अर्जुन के चित्त में विषाद उत्पन्न हुआ और उसने युद्ध करने से इंकार कर दिया। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को 'गीता' के निष्काम कर्मयोग का उपदेश दिया और अपने विश्वरूप के दर्शन कराकर उसकी भ्रांति दूर की। अब अर्जुन युद्ध के लिए पूर्णतया प्रस्तुत हो गया। महाभारत के युद्ध में शंख का भी अत्यधिक महत्त्व था। शंखनाद के साथ युद्ध प्रारंभ होता था। जिस प्रकार प्रत्येक रथी सेनानायक का अपना ध्वज होता था, उसी प्रकार प्रमुख योद्धाओं के पास अलग-अलग शंख भी होते थे। भीष्मपर्व के अंतर्गत 'गीता उपपर्व' के प्रारंभ में विविध योद्धाओं के नाम दिए गए हैं। कृष्ण के शंख का नाम 'पांचजन्य' था, अर्जुन का 'देवदत्त', युधिष्ठिर का 'अनंतविजय', भीम का 'पौण्ड', नकुल का 'सुघोष' और सहदेव का 'मणिपुष्पक'।

अठारह दिन तक यह महाभीषण संग्राम होता रहा। देश का अपार जन-धन इसमें स्वाहा हो गया। कौरवों के शक्तिशाली सेनापति भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य आदि धराशायी हो गये। अठारहवें दिन दुर्योधन मारा गया और महाभारत युद्ध की समाप्ति हुई। यद्यपि पांडव इस युद्ध में विजयी हुए, पर उन्हें शांति न मिल सकी। चारों ओर उन्हें क्षोभ और निराशा दिखाई पड़ने लगी। श्रीकृष्ण ने शरशैय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह से युधिष्ठिर को उपदेश दिलवाया। फिर हस्तिनापुर में राज्याभिषेक-उत्सव सम्पन्न करा कर वे द्वारका लौट गये। पांडवों ने कुछ समय बाद एक अश्वमेध यज्ञ किया और इस प्रकार वे भारत के चक्रवर्ती सम्राट घोषित हुए। कृष्ण भी इस यज्ञ में सम्मिलित हुए और फिर द्वारका वापस चले गये। यह कृष्ण की अंतिम हस्तिनापुर यात्रा थी। अब वे वृद्ध हो चुके थे। महाभारत-संग्राम में उन्हें जो अनवरत परिश्रम करना पड़ा, उसका भी उनके स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।



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