"कुरुक्षेत्र": अवतरणों में अंतर
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==कुरुक्षेत्र / Kurukshetra== | {{सूचना बक्सा नगर | ||
|चित्र=Kurukshetra-map.jpg | |||
कुरुक्षेत्र [[हरियाणा]] राज्य का एक | |चित्र का नाम=कुरुक्षेत्र मानचित्र | ||
|विवरण= माना जाता है कि कुरुक्षेत्र में [[महाभारत]] की लड़ाई हुई थी और भगवान [[श्रीकृष्ण]] ने [[अर्जुन]] को [[गीता]] का उपदेश यहीं पर ज्योतीसर नामक स्थान पर दिया था। | |||
कुरुक्षेत्र अम्बाला से 25 मील पूर्व में है। यह एक अति पुनीत स्थल है। इसका इतिहास पुरातन गाथाओं में समा-सा गया है। ऋग्वेद< | |राज्य=[[हरियाणा]] | ||
[[शतपथ ब्राह्मण]]< | |केन्द्र शासित प्रदेश= | ||
|ज़िला=[[कुरुक्षेत्र ज़िला]] | |||
|संस्थापक= | |||
|निर्माण काल= | |||
|स्थापना= | |||
|भौगोलिक निर्देशांक=29° 57′ 56.58″ उत्तर, 76° 50′ 13.22″ पूर्व | |||
|मार्ग स्थिति=कुरुक्षेत्र [[अम्बाला]] से 25 मील पूर्व में है। | |||
|मौसम= | |||
|तापमान= | |||
|प्रसिद्धि= | |||
|क्षेत्रफल=1,530 वर्ग किमी | |||
|ऊँचाई= | |||
|जनसंख्या= | |||
|जनसंख्या घनत्व= | |||
|हवाई अड्डा= | |||
|रेलवे स्टेशन= | |||
|बस अड्डा= | |||
|यातायात= | |||
|भाषा=[[हिंदी]], [[हरियाणवी बोली|हरियाणवी]] | |||
|क्या देखें= | |||
|सावधानी= | |||
|मानचित्र लिंक=[https://maps.google.com/maps?saddr=Kurukshetra,+Haryana,+India&daddr=Delhi+Junction+Railway+Station,+Mori+Gate,+New+Delhi,+Delhi,+India&hl=en&ll=29.97397,77.058105&spn=2.393335,5.410767&sll=29.97397,77.041626&sspn=2.393335,5.410767&geocode=FWhMyQEdyhGVBCk9XciFz0YOOTH0M8rKFegGfw%3BFfNVtQEdR3SaBCmj1Ch2D_0MOTFULn0zlANarw&oq=kuru&mra=ls&t=m&z=8&iwloc=ddw0 गूगल मानचित्र] | |||
|संबंधित लेख= | |||
|पिन कोड=136118 | |||
|एस.टी.डी. कोड=911744 | |||
|वाहन पंजीयन कोड=HR 07 | |||
|शीर्षक 1=धार्मिक मान्यता | |||
|पाठ 1=कहा जाता है कि यहाँ स्थित विशाल तालाब का निर्माण [[महाकाव्य]] महाभारत में वर्णित [[कौरव|कौरवों]] और [[पांडव|पांडवों]] के पूर्वज [[कुरु|राजा कुरु]] ने करवाया था। कुरुक्षेत्र नाम 'कुरु के क्षेत्र' का प्रतीक है। | |||
|शीर्षक 2= | |||
|पाठ 2= | |||
|अन्य जानकारी= कुरुक्षेत्र का पौराणिक महत्त्व अधिक माना जाता है। इसका [[ऋग्वेद]] और [[यजुर्वेद]] में अनेक स्थानो पर वर्णन किया गया है। | |||
|बाहरी कड़ियाँ=[http://kurukshetra.nic.in/ आधिकारिक वेबसाइट] | |||
|अद्यतन= | |||
}} | |||
'''कुरुक्षेत्र''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Kurukshetra'') [[हरियाणा]] राज्य का एक ऐतिहासिक नगर और ज़िला है। यह हरियाणा के उत्तर में स्थित है तथा [[अम्बाला]], यमुना नगर, [[करनाल]] और [[कैथल]] से घिरा हुवा है। माना जाता है कि यहीं [[महाभारत]] की लड़ाई हुई थी और भगवान [[कृष्ण]] ने [[अर्जुन]] को [[गीता]] का उपदेश यहीं पर ज्योतीसर नामक स्थान पर दिया था। यह ज़िला बासमती चावल के उत्पादन के लिए भी प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि यहाँ स्थित विशाल तालाब का निर्माण [[महाकाव्य]] महाभारत में वर्णित [[कौरव|कौरवों]] और [[पांडव|पांडवों]] के पूर्वज [[कुरु|राजा कुरु]] ने करवाया था। कुरुक्षेत्र नाम 'कुरु के क्षेत्र' का प्रतीक है। कुरुक्षेत्र का पौराणिक महत्त्व अधिक माना जाता है। इसका [[ऋग्वेद]] और [[यजुर्वेद]] में अनेक स्थानो पर वर्णन किया गया है। यहाँ की पौराणिक नदी [[सरस्वती नदी|सरस्वती]] का भी अत्यन्त महत्त्व है। इसके अतिरिक्त अनेक [[पुराण|पुराणों]], [[स्मृतियाँ|स्मृतियों]] और महर्षि [[वेदव्यास]] रचित [[महाभारत]] में इसका विस्तृत वर्णन किया गया हैं। विशेष तथ्य यह है कि कुरुक्षेत्र की पौराणिक सीमा 48 कोस की मानी गई है जिसमें कुरुक्षेत्र के अतिरिक्त कैथल, करनाल, [[पानीपत]] और जिंद का क्षेत्र सम्मिलित हैं। | |||
==पौराणिक उल्लेख== | |||
कुरुक्षेत्र [[अम्बाला]] से 25 मील पूर्व में है। यह एक अति पुनीत स्थल है। इसका इतिहास पुरातन गाथाओं में समा-सा गया है। [[ऋग्वेद]]<ref>ऋग्वेद 10.33.4</ref>में त्रसदस्यु के पुत्र कुरुश्रवण का उल्लेख हुआ है। 'कुरुश्रवण' का शाब्दिक अर्थ है 'कुरु की भूमि में सुना गया या प्रसिद्ध।' [[अथर्ववेद]]<ref>अथर्ववेद 20.127.8</ref>में एक कौरव्य पति (सम्भवत: राजा) की चर्चा हुई है, जिसने अपनी पत्नी से बातचीत की है। ब्राह्मण-ग्रन्थों के काल में कुरुक्षेत्र अति प्रसिद्ध तीर्थ-स्थल कहा गया है। [[शतपथ ब्राह्मण]]<ref>शतपथ ब्राह्मण 4.1.5.13</ref>में उल्लिखित एक गाथा से पता चलता है कि देवों ने कुरुक्षेत्र में एक [[यज्ञ]] किया था जिसमें उन्होंने दोनों अश्विनों को पहले यज्ञ-भाग से वंचित कर दिया था। मैत्रायणी संहिता<ref>मैत्रायणी संहिता 2.1.4, 'देवा वै सत्रमासत्र कुरुक्षेत्रे</ref>एवं [[तैत्तिरीय ब्राह्मण]]<ref>तैत्तिरीय ब्राह्मण 5.1.1, 'देवा वै सत्रमासत तेषां कुरुक्षेत्रं वेदिरासीत्'</ref>का कथन है कि देवों ने कुरुक्षेत्र में सत्र का सम्पादन किया था। इन उक्तियों में अन्तर्हित भावना यह है कि ब्राह्मण-काल में वैदिक लोग यज्ञ-सम्पादन को अति महत्त्व देते थे, जैसा कि ऋग्वेद<ref>ऋग्वेद, 10.90.16</ref>में आया है- <blockquote>'यज्ञेय यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यसन्।'</blockquote> | |||
[[महाभारत]] एवं कुछ [[पुराण|पुराणों]] में कुरुक्षेत्र की सीमाओं के विषय में एक कुछ अशुद्ध श्लोक आया है, यथा- तरन्तु एवं कारन्तुक तथा मचक्रुक (यक्ष की प्रतिमा) एवं रामह्रदों (परशुराम द्वारा बनाये गये तालाबों) के बीच की भूमि कुरुक्षेत्र, समन्तपञ्चक, एवं ब्रह्मा की उत्तरी वेदी है।<ref>तरन्तुकारन्तुकयोर्यदन्तरं रामह्रदानां च मचक्रुकस्य। एतत्कुरुक्षेत्रसमन्तपञ्चकं पितामहस्योत्तरवेदिरुच्यते॥ वनपर्व (83।208), [[शल्य पर्व महाभारत|शल्य पर्व]] (53।24)। [[पद्म पुराण]] (1।27।92) ने 'तरण्डकारण्डकयो:' पाठ दिया है (कल्पतरु, तीर्थ, पृ0 171)। वनपर्व (83।9-15 एवं 200) में आया हे कि भगवान् [[विष्णु]] द्वारा नियुक्त कुरुक्षेत्र के द्वारपालों में एक द्वारपाल था मचक्रक नामक यक्ष। क्या हम प्रथम शब्द को 'तरन्तुक' एवं 'अरन्तुक' में नहीं विभाजित कर सकते? नारदीय पुराण (उत्तर, 65।24) में कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत 'रन्तुक' नामक उपतीर्थ का उल्लेख है (तीर्थप्र0, पृ0 464-465)। [[कनिंघम]] के मत से रत्नुक' थानेसर के पूर्व 4 मील की दूरी पर कुरुक्षेत्र के घेरे के उत्तर-पूर्व में स्थित रतन यक्ष है।</ref> इसका फल यह है कि कुरुक्षेत्र कई नामों से व्यक्त हुआ है, यथा- ब्रह्मसर, रामह्रद, समन्तपञ्चक, विनशन, सन्निहती।<ref>तीर्थप्रकाश, पृ0 463</ref>कुरुक्षेत्र की सीमा के लिए देखिए कनिंघम<ref>आर्क्यालाजिकल सर्वे रिपोर्टस, जिल्द 14, पृ0 86-106</ref>, जिन्होंने टिप्पणी की है कि कुरुक्षेत्र अम्बाला के दक्षिण 30 मीलों तक तथा पानीपत के उत्तर 40 मीलों तक विस्तृत है। प्राचीन काल में वैदिक लोगों की संस्कृति एवं कार्य-कलापों का केन्द्र कुरुक्षेत्र था। क्रमश: वैदिक लोग पूर्व एवं दक्षिण की ओर बढ़े और [[गंगा नदी|गंगा]]-यमुना के देश में फैल गये तथा आगे चलकर विदेह (या [[मिथिला]]) भारतीय संस्कृति का केन्द्र हो गया | |||
[[चित्र:Krishna-Arjuna.jpg|thumb|250px|left|[[महाभारत]] के युद्ध में [[अर्जुन]] को समझाते हुये [[श्रीकृष्ण]]]] | |||
==वैदिक संस्कृति== | ==वैदिक संस्कृति== | ||
कुरुक्षेत्र ब्राह्मणकाल में वैदिक संस्कृति का केन्द्र था और वहाँ विस्तार के साथ यज्ञ अवश्य सम्पादित होते रहे होंगे। इसी से इसे धर्मक्षेत्र कहा गया और देवों को देवकीर्ति इसी से प्राप्त हुई कि उन्होंने धर्म (यज्ञ, तप आदि) का पालन किया था और कुरुक्षेत्र में सत्रों का सम्पादन किया था। कुछ ब्राह्मण-ग्रन्थों में आया है कि बह्लिक प्रातिपीय नामक एक कौरव्य राजा था। तैत्तिरीय ब्राह्मण< | कुरुक्षेत्र ब्राह्मणकाल में वैदिक संस्कृति का केन्द्र था और वहाँ विस्तार के साथ [[यज्ञ]] अवश्य सम्पादित होते रहे होंगे। इसी से इसे धर्मक्षेत्र कहा गया और देवों को देवकीर्ति इसी से प्राप्त हुई कि उन्होंने धर्म (यज्ञ, तप आदि) का पालन किया था और कुरुक्षेत्र में सत्रों का सम्पादन किया था। कुछ ब्राह्मण-ग्रन्थों में आया है कि बह्लिक प्रातिपीय नामक एक कौरव्य राजा था। तैत्तिरीय ब्राह्मण<ref>तैत्तिरीय ब्राह्मण, 18.4.1</ref>में आया है कि [[कुरु]]-[[पांचाल]] शिशिर-काल में पूर्व की ओर गये, पश्चिम में वे ग्रीष्म ऋतु में गये जो सबसे बुरी ऋतु है। [[ऐतरेय ब्राह्मण]] का उल्लेख अति महत्त्वपूर्ण है। [[सरस्वती देवी|सरस्वती]] ने कवष मुनि की रक्षा की थी और जहाँ वह दौड़ती हुई गयी उसे परिसरक कहा गया।<ref>ऐतरेय ब्राह्मण 8.1 या 2.19</ref>एक अन्य स्थान पर ऐतरेय ब्राह्मण<ref>ऐतरेय ब्राह्मण, 35।4=7।30</ref>में आया है कि उसके काल में कुरुक्षेत्र में 'न्यग्रोध' को 'न्युब्ज' कहा जाता था। ऐतरेय ब्राह्मण ने कुरुओं एवं पंचालों के देशों का उल्लेख वश-उशीनरों के देशों के साथ किया है।<ref>ऐतरेय ब्राह्मण, 38.3=8.14</ref>तैत्तिरीय आरण्यक<ref>तैत्तिरीय आरण्यक, 5.1.1</ref>में गाथा आयी है कि देवों ने एक सत्र किया और उसके लिए कुरुक्षेत्र वेदी के रूप में था।<ref>देवा वै सत्रमासत। ... तेषां कुरुक्षेत्रे वेदिरासीत्। तस्यै खाण्डवो दक्षिणार्ध आसीत्। तूर्ध्नमुत्तरार्ध:। परीणज्जधनार्ध:। मरव उत्कर:॥ तैत्तिरीय आरण्यक (तैत्तिरीय आरण्यक 5.1.1) क्या 'तूर्घ्न' 'स्त्रुघ्न' का प्राचीन रूप है? 'स्त्रुघ्न' या आधुनिक 'सुध' जो प्राचीन [[यमुना नदी|यमुना]] पर है, थानेश्वर से 40 मील एवं सहारनपुर से उत्तर-पश्चिम 10 मील पर है।</ref> उस वेदी के दक्षिण ओर खाण्डव था, उत्तरी भाग तूर्घ्न था, पृष्ठ भाग परीण था और मरु (रेगिस्तान) उत्कर (कूड़ा वाल गड्ढा) था। इससे प्रकट होता है कि खाण्डव, तूर्घ्न एवं परीण कुरुक्षेत्र के सीमा-भाग थे और मरु जनपद कुरुक्षेत्र से कुछ दूर था। अवश्वलायन<ref>अवश्वलायन, 12.6</ref>, लाट्यायन<ref>लाट्यायन, 10.15</ref>एवं कात्यायन<ref>कात्यायन, 24.6.5</ref>के श्रौतसूत्र [[ताण्ड्य ब्राह्मण]] एवं अन्य ब्राह्मणों का अनुसरण करते हैं और कई ऐसे तीर्थों का वर्णन करते हैं जहाँ सारस्वत सत्रों का सम्पादन हुआ था, यथा प्लक्ष प्रस्त्रवर्ण (जहाँ से [[सरस्वती नदी|सरस्वती]] निकलती है), सरस्वती का वैतन्धव-ह्रद; कुरुक्षेत्र में परीण का स्थल, कारपचव देश में बहती यमुना एवं त्रिप्लक्षावहरण का देश। | ||
==सन्दर्भ== | ==सन्दर्भ== | ||
*[[छान्दोग्य उपनिषद]]< | *[[छान्दोग्य उपनिषद]]<ref>छान्दोग्य उपनिषद, 1.10.1</ref>में उस उषस्ति चाक्रायण की गाथा आयी है जो कुरु देश में तुषारपात होने से अपनी युवा पत्नी के साथ इभ्य-ग्राम में रहने लगा था और भिक्षाटन करके जीविका चलाता था। | ||
*निरुक्त< | *निरुक्त<ref>निरुक्त, 2.10</ref>ने व्याख्या उपस्थित की है कि [[ॠग्वेद]]<ref>ॠग्वेद, 10.98.5 एवं 7</ref>में उल्लिखित देवापि एवं शन्तनु ऐतिहासिक व्यक्ति थे और कुरु के राजा ऋष्टिषेण के पुत्र थे। | ||
*[[पाणिनि]]< | *[[पाणिनि]]<ref>पाणिनि, 4.1.151 एवं 4.1.172</ref>ने व्युत्पत्ति की है कि 'कुरु' से 'कौरव्य' बना है; पहले का अर्थ है 'राजा' और दूसरे का 'अपत्य'। | ||
*महाभारत ने कुरुक्षेत्र की महत्ता के विषय में बहुधा उल्लेख किया है। इसमें आया है कि सरस्वती के दक्षिण एवं दृषद्वती के उत्तर की भूमि कुरुक्षेत्र में थी और जो लोग उसमें निवास करते थे मानों स्वर्ग में रहते थे।<ref>दक्षिणेन सरस्वत्या दृषद्वत्युत्तरेण च। ये वसन्ति कुरुक्षेत्रे ते वसन्ति त्रिविष्टपे॥ [[वन पर्व महाभारत|वन पर्व]] (वन पर्व, 83.3, 204-205)।</ref> | *महाभारत ने कुरुक्षेत्र की महत्ता के विषय में बहुधा उल्लेख किया है। इसमें आया है कि सरस्वती के दक्षिण एवं दृषद्वती के उत्तर की भूमि कुरुक्षेत्र में थी और जो लोग उसमें निवास करते थे मानों स्वर्ग में रहते थे।<ref>दक्षिणेन सरस्वत्या दृषद्वत्युत्तरेण च। ये वसन्ति कुरुक्षेत्रे ते वसन्ति त्रिविष्टपे॥ [[वन पर्व महाभारत|वन पर्व]] (वन पर्व, 83.3, 204-205)।</ref> | ||
*[[वामन पुराण]]<ref>वामन पुराण, 86।6</ref>में कुरुक्षेत्र को ब्रह्मावर्त कहा गया है। वामन पुराण के अनुसार सरस्वती एवं [[दृषद्वती]] के बीच का देश कुरु-जागल था। किन्तु मनु<ref>मनु, 2.17.18</ref>ने [[ब्रह्मावर्त]] को वह देश कहा है जिसे ब्रह्मदेव ने सरस्वती एवं दृषद्वती नामक पवित्र नदियों के मध्य में बनाया था। ब्रह्मर्षिदेश वह था जो पवित्रता में थोड़ा कम और कुरुक्षेत्र, [[मत्स्य]], पंचाल एवं [[शूरसेन]] से मिलकर बना था। इन वचनों से प्रकट होता है कि आर्यावर्त में ब्रह्मावर्त सर्वोत्तम देश था और कुरुक्षेत्र भी बहुत अंशों में इसके समान ही था।<ref>सरस्वतीदृषद्वत्योरन्तरं कुरुजांगलम्। वामन पुराण (22.47); सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम्। तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्त प्रचक्षते॥ कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पञ्चाला: शूरसेनका:॥ एष ब्रह्मर्षिदेशों वै ब्रह्मावर्तादनन्तर:॥ मनु (2.17 एवं 19)। | |||
*[[वामन पुराण]]< | युग-युग में देशों के विस्तार में अन्तर पड़ता रहा है। पंचाल दक्षिण एवं उत्तर में विभाजित था। बुद्ध-काल में पंचाल की राजधानी [[कन्नौज]] थी। शूरसेन देश की राजधानी थी [[मथुरा]]। 'अनन्तर' का अर्थ है 'थोड़ा कम' या 'किसी से न तो मध्यम या न भिन्न'। नारदीय पुराण <>उत्तर, 64।6<>।</ref> हमने यह भी देख लिया है कि ब्राह्मण-काल में अत्यन्त पुनीत नदी सरस्वती कुरुक्षेत्र से होकर बहती थी और जहाँ यह मरुभूमि में अन्तर्हित हो गयी थी उसे '[[विनशन]]' कहा जाता था और वही भी एक तीर्थस्थल था। | ||
युग-युग में देशों के विस्तार में अन्तर पड़ता रहा है। पंचाल दक्षिण एवं उत्तर में विभाजित था। बुद्ध-काल में पंचाल की राजधानी [[कन्नौज]] थी। शूरसेन देश की राजधानी थी [[मथुरा]]। 'अनन्तर' का अर्थ है 'थोड़ा कम' या 'किसी से न तो मध्यम या न भिन्न'। नारदीय पुराण <>उत्तर, 64।6<>।</ref> हमने यह भी देख लिया है कि ब्राह्मण-काल में अत्यन्त पुनीत नदी सरस्वती कुरुक्षेत्र से होकर बहती थी और जहाँ यह मरुभूमि में अन्तर्हित हो गयी थी उसे 'विनशन' कहा जाता था और वही भी एक तीर्थस्थल था। | |||
==यज्ञिय वेदी== | ==यज्ञिय वेदी== | ||
आरम्भिक रूप में कुरुक्षेत्र [[ब्रह्मा]] की यज्ञिय वेदी कहा जाता था, आगे चलकर इसे समन्तपञ्चक कहा गया, जबकि [[परशुराम]] ने अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध में क्षत्रियों के रक्त से पाँच कुण्ड बना डाले, जो पितरों के आशीर्वचनों से कालान्तर में पाँच पवित्र जलाशयों में परिवर्तित हो गये। आगे चलकर यह भूमि कुरुक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हुई जब कि [[संवरण]] के पुत्र राजा कुरु ने सोने के हल से सात कोस की भूमि जोत डाली।<ref>आद्यैषा ब्रह्मणो वेदिस्ततो रामहृदा: स्मृता:। कुरुणा च यत: कृष्टं कुरुक्षेत्रं तत: स्मृतम्॥ वामन पुराण (22.59-60)। वामन पुराण (22.18-20) के अनुसार ब्रह्मा की पाँच वेदियाँ ये हैं- | आरम्भिक रूप में कुरुक्षेत्र [[ब्रह्मा]] की यज्ञिय वेदी कहा जाता था, आगे चलकर इसे समन्तपञ्चक कहा गया, जबकि [[परशुराम]] ने अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध में क्षत्रियों के रक्त से पाँच कुण्ड बना डाले, जो पितरों के आशीर्वचनों से कालान्तर में पाँच पवित्र जलाशयों में परिवर्तित हो गये। आगे चलकर यह भूमि कुरुक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हुई जब कि [[संवरण]] के पुत्र राजा कुरु ने सोने के हल से सात कोस की भूमि जोत डाली।<ref>आद्यैषा ब्रह्मणो वेदिस्ततो रामहृदा: स्मृता:। कुरुणा च यत: कृष्टं कुरुक्षेत्रं तत: स्मृतम्॥ वामन पुराण (22.59-60)। वामन पुराण (22.18-20) के अनुसार ब्रह्मा की पाँच वेदियाँ ये हैं- | ||
# समन्तपञ्चक (उत्तरा) | |||
# [[प्रयाग]] (मध्यमा) | |||
# गयाशिर (पूर्वा) | |||
# विरजा (दक्षिणा) एवं | |||
# पुष्कर (प्रतीची)। | |||
'स्यमन्तपंचक' शब्द भी आया है। (वामन पुराण 22.20 एवं पद्म पुराण 4.17.7) [[विष्णु पुराण]] (विष्णु पुराण, 4.19.74-77) के मत से कुरु की वंशावलीयों है- 'अजमीढ-ऋक्ष-संवरण-कुरु' एवं 'य इदं धर्मक्षेत्रं चकार'।</ref> | 'स्यमन्तपंचक' शब्द भी आया है। (वामन पुराण 22.20 एवं पद्म पुराण 4.17.7) [[विष्णु पुराण]] (विष्णु पुराण, 4.19.74-77) के मत से कुरु की वंशावलीयों है- 'अजमीढ-ऋक्ष-संवरण-कुरु' एवं 'य इदं धर्मक्षेत्रं चकार'।</ref> | ||
==इन्द्र से वर== | ==इन्द्र से वर== | ||
कुरु नामक राजा के नाम पर ही 'कुरुक्षेत्र' नाम पड़ा है। कुरु ने [[इन्द्र]] से वर माँगा था कि वह भूमि, जिसे उसने जोता था, धर्मक्षेत्र कहलाये और जो लोग वहाँ स्नान करें या मरें वे महापुण्यफल पायें।<ref>यावदेतन्मया कृष्टं धर्मक्षेत्रं तदस्तु व:। स्नातानां च मृतानां च महापुण्यफलं त्विह॥ वामन पुराण (वामन पुराण, 22.33-34) मिलाइए [[शल्य पर्व महाभारत]] (शल्यपर्व, 53.13-14 | कुरु नामक राजा के नाम पर ही 'कुरुक्षेत्र' नाम पड़ा है। कुरु ने [[इन्द्र]] से वर माँगा था कि वह भूमि, जिसे उसने जोता था, धर्मक्षेत्र कहलाये और जो लोग वहाँ स्नान करें या मरें वे महापुण्यफल पायें।<ref>यावदेतन्मया कृष्टं धर्मक्षेत्रं तदस्तु व:। स्नातानां च मृतानां च महापुण्यफलं त्विह॥ वामन पुराण (वामन पुराण, 22.33-34) मिलाइए [[शल्य पर्व महाभारत]] (शल्यपर्व, 53.13-14</ref> [[कौरव|कौरवों]] एवं [[पाण्डव|पाण्डवों]] का युद्ध यहीं हुआ था। [[गीता|भगवद्गीता]] के प्रथम श्लोक में 'धर्मक्षेत्र' शब्द आया है। [[वायु पुराण]]<ref>वायु पुराण, 7.93</ref>एवं [[कूर्म पुराण]]<ref>कूर्म पुराण, 2.20.33 एवं 37.36-37</ref> में आया है कि [[श्राद्ध]] के लिए कुरुजांगल एक योग्य देश है। सातवीं शताब्दी में [[हुएनसांग]] ने इस देश की चर्चा की है जिसकी राजधानी स्थाण्वीश्वर (आधुनिक थानेसर, जो कुरुक्षेत्र का केन्द्र है) थी और जो धार्मिक पुण्य की भूमि के लिए प्रसिद्ध था। वन पर्व <ref >वन पर्व, 129.2</ref>एवं वामन पुराण <ref>वामन पुराण, 22.15-16</ref>में कुरुक्षेत्र का विस्तार पाँच योजन [[व्यास]] में कहा गया है।<ref>वेदी प्रजापतेरेषा समन्तात्पञ्चयोजना। कुरोर्वै यज्ञशीलस्य क्षेत्रमेतन्महात्मन:॥ वनपर्व 9.129.22); समाजगाम च पुनर्ब्रह्मणो वेदिमुत्तराम्। समन्तपरंचकं नाम धर्मस्थानमनुत्तमम्॥ आ समन्ताद्योजनानि पञ्च पञ्च च सर्वत:॥ वामन पुराण (22.15-16)। [[नारद पुराण]](उत्तर, 64.20)में आया है- 'पञ्चयोजनविस्तारं दयासत्यक्षमोद्गमम्। स्यमन्तपञ्चकं तावत्कुरुक्षेत्रमुदाहृतम्॥'</ref> | ||
==कुरुक्षेत्र की महत्ता== | ==कुरुक्षेत्र की महत्ता== | ||
महाभारत एवं पुराणों में वर्णित कुरुक्षेत्र की महत्ता के विषय में हम यहाँ सविस्तर नहीं लिख सकते। वन पर्व< | महाभारत एवं पुराणों में वर्णित कुरुक्षेत्र की महत्ता के विषय में हम यहाँ सविस्तर नहीं लिख सकते। वन पर्व<ref>वन पर्व, 83.1-2</ref>में आया है कि कुरुक्षेत्र के सभी लोग पापमुक्त हो जाते हैं और वह भी जो सदा ऐसा कहता है- 'मैं कुरुक्षेत्र को जाऊँगा और वहाँ रहूँगा।'<ref>ततो गच्छेत राजेन्द्र कुरुक्षेत्रमभिष्टुतम्। पापेभ्यो विप्रमुच्यन्ते तद्गता: सर्वजन्तव:॥ कुरुक्षेत्रं गमिष्यामि कुरुक्षेत्रे वसाम्यहम्। य एवं सततं ब्रूयात् सर्वपापै: प्रमुच्यते॥ वनपर्व (83.1-2)। टीकाकार नीलकण्ठ ने एक विचित्र व्युत्पत्तिदी है। (वनपर्व 83.6)- 'कुत्सितं रौतीतिकुरु पापं तस्य क्षेपणात् त्रायते इति कुरुक्षेत्रं पापनिवर्तकं ब्रह्मोपलब्धिस्थानत्वाद् ब्रह्मसदनम्।' 'सम्यक् अन्तोयेषु क्षत्रियाणां ते समन्ता रामकृतरुधिरोदह्रदा:, तेषां पञ्चकं समन्तपञ्चकम्।' देखिए तीर्थप्र0 (पृ0 463)।</ref> इस विश्व में इससे बढ़कर कोई अन्य पुनीत स्थल नहीं है। यहाँ तक कि यहाँ की उड़ी हुई धूलि के कण पापी को परम पद देते हैं।' यहाँ तक कि गंगा की भी तुलना कुरुक्षेत्र से की गयी है।<ref>कुरुक्षेत्रसमा गंगा, वनपर्व 85.88</ref>नारदीय पुराण<ref>नारदीय पुराण, 2.64.23-24</ref>में आया है कि ग्रहों, नक्षत्रों एवं तारागणों को कालगति से (आकाश से) नीचे गिर पड़ने का भय है, किन्तु वे, जो कुरुक्षेत्र में मरते हैं पुन: [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] पर नहीं गिरते, अर्थात् वे पुन: जन्म नहीं लेते।<ref>ग्रहनक्षत्रताराणां कालेन पतनाद् भयम। कुरुक्षेत्रमृतानां तु न भूय: पतनं भवेत्॥ नारदीय पुराण (उत्तर, 2।64।23-24), वामन पुराण (33।16)।</ref> | ||
==तीर्थों का उल्लेख== | ==तीर्थों का उल्लेख== | ||
यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि वनपर्व ने 83वें अध्याय में सरस्वती तट पर एवं कुरुक्षेत्र में कतिपय तीर्थों का उल्लेख किया है, किन्तु ब्राह्मणों एवं श्रौतसूत्रों में उल्लिखित तीर्थों से उनका मेल नहीं खाता, केवल 'विनशन'< | यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि वनपर्व ने 83वें अध्याय में [[सरस्वती नदी|सरस्वती]] [[तट]] पर एवं कुरुक्षेत्र में कतिपय [[तीर्थ|तीर्थों]] का उल्लेख किया है, किन्तु [[ब्राह्मण ग्रंथ|ब्राह्मणों]] एवं [[श्रौतसूत्र|श्रौतसूत्रों]] में उल्लिखित तीर्थों से उनका मेल नहीं खाता, केवल 'विनशन'<ref>वनपर्व 83.11</ref>एवं 'सरक'<ref>जो [[ऐतरेय ब्राह्मण]] का सम्भवत: परिसरक है</ref>के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। इससे यह प्रकट होता है कि वनपर्व का सरस्वती एवं कुरुक्षेत्र से संबन्धित उल्लेख श्रौतसूत्रों के उल्लेख से कई शताब्दियों के पश्चात् का है। [[नारदीय पुराण]]<ref>उत्तर, अध्याय 65</ref>ने कुरुक्षेत्र के लगभग 100 तीर्थों के नाम दिये हैं। इनका विवरण देना यहाँ सम्भव नहीं है, किन्तु कुछ के विषय में कुछ कहना आवश्यक है। पहला तीर्थ है ब्रह्मसर जहाँ राजा कुरु संन्यासी के रूप में रहते थे।<ref>वनपर्व 83।85, वामन पुराण 49।38-41, नारदीय पुराण, उत्तर 65.95</ref>ऐंश्येण्ट जियाग्राफी ऑफ इण्डिया<ref>पृ0 334-335</ref>में आया है कि यह सर 3546 फुट (पूर्व से पश्चिम) लम्बा एवं उत्तर से दक्षिण 1900 फुट चौड़ा था। | ||
==युद्ध== | |||
वामन पुराण< | ==कुरुक्षेत्र युद्ध== | ||
[[वामन पुराण]]<ref>वामन पुराण, 25.50-55</ref>ने सविस्तार वर्णन किया है और उसका कथन है कि यह आधा योजन विस्तृत था। चक्रतीर्थ सम्भवत: वह स्थान है जहाँ [[कृष्ण]] ने [[भीष्म]] पर आक्रमण करने के लिए चक्र उठाया था।<ref>वामन पुराण 42.5, 57।89 एवं 89.3</ref>व्यासस्थली थानेसर के दक्षिण-पश्चिम 17 मील दूर आधुनिक स्थली है जहाँ व्यास ने पुत्र की हानि पर मर जाने का प्रण किया था।<ref>वनपर्व 84.96; नारदीय पुराण, उत्तरार्ध 65.83 एवं पद्म पुराण 1.26.90-91</ref>अस्थिपुर<ref>पद्म पुराण, आदि, 27।62</ref>थानेसर के पश्चिम और औजसघाट के दक्षिण है, जहाँ पर महाभारत में मारे गये योद्धा जलाये गये थे। कनिंघम<ref>आर्क्यालॉजिकल सर्वे रिपोर्टस आफ इण्डिया, जिल्द 2, पृ0 219</ref>के मत से चक्रतीर्थ अस्थिपुर ही है और [[अलबेरूनी]] के काल में यह कुरुक्षेत्र में एक प्रसिद्ध तीर्थ था। | |||
==तीर्थ-स्थल एवं वन== | ==तीर्थ-स्थल एवं वन== | ||
पृथूदक, जो सरस्वती पर था, वनपर्व< | पृथूदक, जो सरस्वती पर था, वनपर्व<ref>वनपर्व, 83.142-149</ref>द्वारा प्रशंसित है-'लोगों का कथन है कि कुरुक्षेत्र पुनीत है, सरस्वती कुरुक्षेत्र से पुनीततर है, सरस्वती नदी से उसके (सरस्वती के) तीर्थ-स्थल अधिक पुनीत हैं और पृथूदक इन सभी सरस्वती के तीर्थों से उत्तम है। पृथूदक से बढ़कर कोई अन्य तीर्थ नहीं है'।<ref>वनपर्व 83।147; शान्तिपर्व152.11; पद्म पुराण, आदि 27.33, 34, 36 एवं कल्प0 तीर्थ, पृ0 180-181, पुण्यमाहु नान्यत्तीर्थ कुरुद्वह॥ (वनपर्व 83.147)। वामन पुराण (22.44) का कथन है- 'तस्यैव मध्ये बहुपुण्ययुक्तं पृथूदकं पापहरं शिवं च। पुण्या नदी प्राङमुखतां प्रथाता जलौघयुक्तस्य सुता जलाढ्या॥'</ref> शल्यपर्व<ref>शल्यपर्व, 39.33-34</ref>में आया है कि जो भी कोई पुनीत वचनों का पाठ करता हुआ सरस्वती के: कुरुक्षेत्रं कुरुक्षेत्रात्सरस्वती। सरस्वत्याश्च तीर्थानि तीर्थेभ्यश्च पृथूदकम्॥ पृथूदकात्तीर्थतमं उत्तरी तट पर पृथूदक में प्राण छोड़ता है, दूसरे दिन से मृत्यु द्वारा कष्ट नहीं पाता।<ref>अर्थात् वह जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है</ref>वामन पुराण<ref>वामन पुराण, 39.20 एवं 23</ref>ने इसे ब्रह्मयोनितीर्थ कहा है। पृथूदक आज का पेहोवा है जो थानेसर से 14 मील पश्चिम करनाल ज़िले में है।<ref>देखिए एपिग्रैफिया इण्डिका, जिल्द 1, पृ0 184</ref> | ||
वामन पुराण< | वामन पुराण<ref>वामन पुराण, 34.3</ref>एवं नारदीय पुराण<ref>उत्तर 65.4-7</ref>में कुरुक्षेत्र के सात वनों का उल्लेख है, यथा- | ||
*काम्यक | *काम्यक | ||
*अदितिवन | *अदितिवन | ||
*व्यासवन | *व्यासवन | ||
*फलकीवन | *[[फलकीवन]] | ||
*सूर्यवन | *सूर्यवन | ||
*मधुवन एवं | *मधुवन एवं | ||
*सीतावन।< | *सीतावन।<ref>देखिए आर्क्यालाजिकल सर्वे रिपोर्टस फॉर इण्डिया, जिल्द 14, पृ0 90-91</ref> | ||
==सात नदियाँ== | ==सात नदियाँ== | ||
शल्यपर्व< | शल्यपर्व<ref>अध्याय 38</ref>में कहा गया है कि संसार सात सरस्वतियों द्वारा घिरा हुआ है, यथा- सुप्रभा<ref>पुष्कर में, जहाँ ब्रह्मा ने एक महान् यज्ञ करते समय उसका स्मरण किया था</ref>, कांचनाक्षी<ref>नैमिष वन में</ref>, [[विशाला]]<ref>गया देश में गय द्वारा आवाहित की हुई</ref>, मनोरमा<ref>उत्तर कोसल में औद्दालक के यज्ञ में</ref>, सुरेणु<ref>ऋषभ द्वीप में कुरु के यज्ञ में</ref>, [[ओधवती नदी|ओधवती]]<ref>कुरुक्षेत्र में वसिष्ठ द्वारा कही गयी</ref>एवं विमलोदा।<ref>जब ब्रह्मा ने हिमालय में पुन: यज्ञ किया</ref>वामन पुराण<ref>वामन पुराण, 34.68</ref>में सरस्वती के सम्बन्ध में सात नदियाँ अति पवित्र कही गयी हैं<ref>यद्यपि 9 के नाम आधे हैं</ref>यथा- | ||
*सरस्वती | *[[सरस्वती नदी|सरस्वती]] | ||
*वैतरणी | *वैतरणी | ||
*आपगा | *[[आपगा नदी|आपगा]] | ||
*गंगा-मन्दाकिनी | *[[गंगा]]-[[मन्दाकिनी नदी|मन्दाकिनी]] | ||
*मधुस्त्रवा | *[[मधुस्त्रवा]] | ||
*अम्बुनदी | *अम्बुनदी | ||
*कौशिकी | *[[कौशिकी नदी|कौशिकी]] | ||
*दृषद्वती एवं | *[[दृषद्वती नदी|दृषद्वती]] एवं | ||
* | *[[हिरण्यवती नदी|हिरण्यवती]]। | ||
कुरुक्षेत्र को सन्निहती या सन्निहत्या भी कहा गया है।< | कुरुक्षेत्र को सन्निहती या सन्निहत्या भी कहा गया है।<ref>देखिए तीर्थों की सूची</ref>वामन पुराण<ref>वामन पुराण, 32.3-4</ref>का कथन है कि सरस्वती प्लक्ष वृक्ष से निकलती है और कई पर्वतों को छेदती हुई [[द्वैतवन]] में प्रवेश करती है। इस [[पुराण]] में [[मार्कण्डेय]] द्वारा की गयी सरस्वती की प्रशस्ति भी दी हुई है। अलबरुनी<ref>सचौ, जिल्द 1, पृ0 261</ref>का कथन है कि सोमनाथ से एक बाण-निक्षेप की दूरी पर सरस्वती समुद्र में मिल जाती है। एक छोटी, किन्तु पुनीत नदी सरस्वती महीकण्ठ नाम की पहाड़ियों से निकलती है और [[पालनपुर]] के उत्तर-पूर्व होती हुई सिद्धपुर एवं पाटन को पार करती कई मीलों तक पृथ्वी के अन्दर बहती है और [[कच्छ के रन]] में प्रवेश कर जाती है।<ref>बम्बई गजेटियर, जिल्द 5, पृ0 283, कुरुक्षेत्र के तीर्थों की सूची के लिए देखिए, ए.एस. आर. ऑफ इण्डिया (जिल्द 14, पृ0 17-106)।</ref> | ||
==पौराणिक कथा== | ==पौराणिक कथा== | ||
कुरु ने जिस क्षेत्र को बार-बार जोता था, उसका नाम कुरुक्षेत्र पड़ा। कहते हैं कि जब कुरु बहुत मनोयोग से इस क्षेत्र की जुताई कर रहे थे तब [[इन्द्र]] ने उनसे जाकर इस परिश्रम का कारण पूछा। कुरु ने कहा-'जो भी व्यक्ति यहाँ मारा जायेगा, वह पुण्य लोक में जायेगा।' इन्द्र उनका परिहास करते हुए स्वर्गलोक चले गये। ऐसा अनेक बार हुआ। इन्द्र ने देवताओं को भी बतलाया। देवताओं ने इन्द्र से कहा-'यदि संभव हो तो कुरु को अपने अनुकूल कर लो अन्यथा यदि लोग वहां यज्ञ करके हमारा भाग दिये बिना स्वर्गलोक चले गये तो हमारा भाग नष्ट हो जायेगा।' तब इन्द्र ने पुन: कुरु के पास जाकर कहा-'नरेश्वर, तुम व्यर्थ ही कष्ट कर रहे हो। यदि कोई भी पशु, पक्षी या मनुष्य निराहार रहकर अथवा युद्ध करके यहाँ मारा जायेगा तो स्वर्ग का भागी होगा।' कुरु ने यह बात मान ली। यही स्थान [[समंतपंचक|समंत-पंचक]] अथवा प्रजापति की उत्तरवेदी कहलाता है। <ref>महाभारत, शल्यपर्व, अध्याय 53</ref> | |||
==टीका | |||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | |||
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कुरुक्षेत्र
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विवरण | माना जाता है कि कुरुक्षेत्र में महाभारत की लड़ाई हुई थी और भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश यहीं पर ज्योतीसर नामक स्थान पर दिया था। |
राज्य | हरियाणा |
ज़िला | कुरुक्षेत्र ज़िला |
भौगोलिक निर्देशांक | 29° 57′ 56.58″ उत्तर, 76° 50′ 13.22″ पूर्व |
मार्ग स्थिति | कुरुक्षेत्र अम्बाला से 25 मील पूर्व में है। |
क्षेत्रफल | 1,530 वर्ग किमी |
भाषा | हिंदी, हरियाणवी |
गूगल मानचित्र | |
पिन कोड | 136118 |
एस.टी.डी. कोड | 911744 |
वाहन पंजीयन कोड | HR 07 |
धार्मिक मान्यता | कहा जाता है कि यहाँ स्थित विशाल तालाब का निर्माण महाकाव्य महाभारत में वर्णित कौरवों और पांडवों के पूर्वज राजा कुरु ने करवाया था। कुरुक्षेत्र नाम 'कुरु के क्षेत्र' का प्रतीक है। |
अन्य जानकारी | कुरुक्षेत्र का पौराणिक महत्त्व अधिक माना जाता है। इसका ऋग्वेद और यजुर्वेद में अनेक स्थानो पर वर्णन किया गया है। |
बाहरी कड़ियाँ | आधिकारिक वेबसाइट |
कुरुक्षेत्र (अंग्रेज़ी: Kurukshetra) हरियाणा राज्य का एक ऐतिहासिक नगर और ज़िला है। यह हरियाणा के उत्तर में स्थित है तथा अम्बाला, यमुना नगर, करनाल और कैथल से घिरा हुवा है। माना जाता है कि यहीं महाभारत की लड़ाई हुई थी और भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश यहीं पर ज्योतीसर नामक स्थान पर दिया था। यह ज़िला बासमती चावल के उत्पादन के लिए भी प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि यहाँ स्थित विशाल तालाब का निर्माण महाकाव्य महाभारत में वर्णित कौरवों और पांडवों के पूर्वज राजा कुरु ने करवाया था। कुरुक्षेत्र नाम 'कुरु के क्षेत्र' का प्रतीक है। कुरुक्षेत्र का पौराणिक महत्त्व अधिक माना जाता है। इसका ऋग्वेद और यजुर्वेद में अनेक स्थानो पर वर्णन किया गया है। यहाँ की पौराणिक नदी सरस्वती का भी अत्यन्त महत्त्व है। इसके अतिरिक्त अनेक पुराणों, स्मृतियों और महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत में इसका विस्तृत वर्णन किया गया हैं। विशेष तथ्य यह है कि कुरुक्षेत्र की पौराणिक सीमा 48 कोस की मानी गई है जिसमें कुरुक्षेत्र के अतिरिक्त कैथल, करनाल, पानीपत और जिंद का क्षेत्र सम्मिलित हैं।
पौराणिक उल्लेख
कुरुक्षेत्र अम्बाला से 25 मील पूर्व में है। यह एक अति पुनीत स्थल है। इसका इतिहास पुरातन गाथाओं में समा-सा गया है। ऋग्वेद[1]में त्रसदस्यु के पुत्र कुरुश्रवण का उल्लेख हुआ है। 'कुरुश्रवण' का शाब्दिक अर्थ है 'कुरु की भूमि में सुना गया या प्रसिद्ध।' अथर्ववेद[2]में एक कौरव्य पति (सम्भवत: राजा) की चर्चा हुई है, जिसने अपनी पत्नी से बातचीत की है। ब्राह्मण-ग्रन्थों के काल में कुरुक्षेत्र अति प्रसिद्ध तीर्थ-स्थल कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण[3]में उल्लिखित एक गाथा से पता चलता है कि देवों ने कुरुक्षेत्र में एक यज्ञ किया था जिसमें उन्होंने दोनों अश्विनों को पहले यज्ञ-भाग से वंचित कर दिया था। मैत्रायणी संहिता[4]एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण[5]का कथन है कि देवों ने कुरुक्षेत्र में सत्र का सम्पादन किया था। इन उक्तियों में अन्तर्हित भावना यह है कि ब्राह्मण-काल में वैदिक लोग यज्ञ-सम्पादन को अति महत्त्व देते थे, जैसा कि ऋग्वेद[6]में आया है-
'यज्ञेय यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यसन्।'
महाभारत एवं कुछ पुराणों में कुरुक्षेत्र की सीमाओं के विषय में एक कुछ अशुद्ध श्लोक आया है, यथा- तरन्तु एवं कारन्तुक तथा मचक्रुक (यक्ष की प्रतिमा) एवं रामह्रदों (परशुराम द्वारा बनाये गये तालाबों) के बीच की भूमि कुरुक्षेत्र, समन्तपञ्चक, एवं ब्रह्मा की उत्तरी वेदी है।[7] इसका फल यह है कि कुरुक्षेत्र कई नामों से व्यक्त हुआ है, यथा- ब्रह्मसर, रामह्रद, समन्तपञ्चक, विनशन, सन्निहती।[8]कुरुक्षेत्र की सीमा के लिए देखिए कनिंघम[9], जिन्होंने टिप्पणी की है कि कुरुक्षेत्र अम्बाला के दक्षिण 30 मीलों तक तथा पानीपत के उत्तर 40 मीलों तक विस्तृत है। प्राचीन काल में वैदिक लोगों की संस्कृति एवं कार्य-कलापों का केन्द्र कुरुक्षेत्र था। क्रमश: वैदिक लोग पूर्व एवं दक्षिण की ओर बढ़े और गंगा-यमुना के देश में फैल गये तथा आगे चलकर विदेह (या मिथिला) भारतीय संस्कृति का केन्द्र हो गया
वैदिक संस्कृति
कुरुक्षेत्र ब्राह्मणकाल में वैदिक संस्कृति का केन्द्र था और वहाँ विस्तार के साथ यज्ञ अवश्य सम्पादित होते रहे होंगे। इसी से इसे धर्मक्षेत्र कहा गया और देवों को देवकीर्ति इसी से प्राप्त हुई कि उन्होंने धर्म (यज्ञ, तप आदि) का पालन किया था और कुरुक्षेत्र में सत्रों का सम्पादन किया था। कुछ ब्राह्मण-ग्रन्थों में आया है कि बह्लिक प्रातिपीय नामक एक कौरव्य राजा था। तैत्तिरीय ब्राह्मण[10]में आया है कि कुरु-पांचाल शिशिर-काल में पूर्व की ओर गये, पश्चिम में वे ग्रीष्म ऋतु में गये जो सबसे बुरी ऋतु है। ऐतरेय ब्राह्मण का उल्लेख अति महत्त्वपूर्ण है। सरस्वती ने कवष मुनि की रक्षा की थी और जहाँ वह दौड़ती हुई गयी उसे परिसरक कहा गया।[11]एक अन्य स्थान पर ऐतरेय ब्राह्मण[12]में आया है कि उसके काल में कुरुक्षेत्र में 'न्यग्रोध' को 'न्युब्ज' कहा जाता था। ऐतरेय ब्राह्मण ने कुरुओं एवं पंचालों के देशों का उल्लेख वश-उशीनरों के देशों के साथ किया है।[13]तैत्तिरीय आरण्यक[14]में गाथा आयी है कि देवों ने एक सत्र किया और उसके लिए कुरुक्षेत्र वेदी के रूप में था।[15] उस वेदी के दक्षिण ओर खाण्डव था, उत्तरी भाग तूर्घ्न था, पृष्ठ भाग परीण था और मरु (रेगिस्तान) उत्कर (कूड़ा वाल गड्ढा) था। इससे प्रकट होता है कि खाण्डव, तूर्घ्न एवं परीण कुरुक्षेत्र के सीमा-भाग थे और मरु जनपद कुरुक्षेत्र से कुछ दूर था। अवश्वलायन[16], लाट्यायन[17]एवं कात्यायन[18]के श्रौतसूत्र ताण्ड्य ब्राह्मण एवं अन्य ब्राह्मणों का अनुसरण करते हैं और कई ऐसे तीर्थों का वर्णन करते हैं जहाँ सारस्वत सत्रों का सम्पादन हुआ था, यथा प्लक्ष प्रस्त्रवर्ण (जहाँ से सरस्वती निकलती है), सरस्वती का वैतन्धव-ह्रद; कुरुक्षेत्र में परीण का स्थल, कारपचव देश में बहती यमुना एवं त्रिप्लक्षावहरण का देश।
सन्दर्भ
- छान्दोग्य उपनिषद[19]में उस उषस्ति चाक्रायण की गाथा आयी है जो कुरु देश में तुषारपात होने से अपनी युवा पत्नी के साथ इभ्य-ग्राम में रहने लगा था और भिक्षाटन करके जीविका चलाता था।
- निरुक्त[20]ने व्याख्या उपस्थित की है कि ॠग्वेद[21]में उल्लिखित देवापि एवं शन्तनु ऐतिहासिक व्यक्ति थे और कुरु के राजा ऋष्टिषेण के पुत्र थे।
- पाणिनि[22]ने व्युत्पत्ति की है कि 'कुरु' से 'कौरव्य' बना है; पहले का अर्थ है 'राजा' और दूसरे का 'अपत्य'।
- महाभारत ने कुरुक्षेत्र की महत्ता के विषय में बहुधा उल्लेख किया है। इसमें आया है कि सरस्वती के दक्षिण एवं दृषद्वती के उत्तर की भूमि कुरुक्षेत्र में थी और जो लोग उसमें निवास करते थे मानों स्वर्ग में रहते थे।[23]
- वामन पुराण[24]में कुरुक्षेत्र को ब्रह्मावर्त कहा गया है। वामन पुराण के अनुसार सरस्वती एवं दृषद्वती के बीच का देश कुरु-जागल था। किन्तु मनु[25]ने ब्रह्मावर्त को वह देश कहा है जिसे ब्रह्मदेव ने सरस्वती एवं दृषद्वती नामक पवित्र नदियों के मध्य में बनाया था। ब्रह्मर्षिदेश वह था जो पवित्रता में थोड़ा कम और कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पंचाल एवं शूरसेन से मिलकर बना था। इन वचनों से प्रकट होता है कि आर्यावर्त में ब्रह्मावर्त सर्वोत्तम देश था और कुरुक्षेत्र भी बहुत अंशों में इसके समान ही था।[26] हमने यह भी देख लिया है कि ब्राह्मण-काल में अत्यन्त पुनीत नदी सरस्वती कुरुक्षेत्र से होकर बहती थी और जहाँ यह मरुभूमि में अन्तर्हित हो गयी थी उसे 'विनशन' कहा जाता था और वही भी एक तीर्थस्थल था।
यज्ञिय वेदी
आरम्भिक रूप में कुरुक्षेत्र ब्रह्मा की यज्ञिय वेदी कहा जाता था, आगे चलकर इसे समन्तपञ्चक कहा गया, जबकि परशुराम ने अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध में क्षत्रियों के रक्त से पाँच कुण्ड बना डाले, जो पितरों के आशीर्वचनों से कालान्तर में पाँच पवित्र जलाशयों में परिवर्तित हो गये। आगे चलकर यह भूमि कुरुक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हुई जब कि संवरण के पुत्र राजा कुरु ने सोने के हल से सात कोस की भूमि जोत डाली।[27]
इन्द्र से वर
कुरु नामक राजा के नाम पर ही 'कुरुक्षेत्र' नाम पड़ा है। कुरु ने इन्द्र से वर माँगा था कि वह भूमि, जिसे उसने जोता था, धर्मक्षेत्र कहलाये और जो लोग वहाँ स्नान करें या मरें वे महापुण्यफल पायें।[28] कौरवों एवं पाण्डवों का युद्ध यहीं हुआ था। भगवद्गीता के प्रथम श्लोक में 'धर्मक्षेत्र' शब्द आया है। वायु पुराण[29]एवं कूर्म पुराण[30] में आया है कि श्राद्ध के लिए कुरुजांगल एक योग्य देश है। सातवीं शताब्दी में हुएनसांग ने इस देश की चर्चा की है जिसकी राजधानी स्थाण्वीश्वर (आधुनिक थानेसर, जो कुरुक्षेत्र का केन्द्र है) थी और जो धार्मिक पुण्य की भूमि के लिए प्रसिद्ध था। वन पर्व [31]एवं वामन पुराण [32]में कुरुक्षेत्र का विस्तार पाँच योजन व्यास में कहा गया है।[33]
कुरुक्षेत्र की महत्ता
महाभारत एवं पुराणों में वर्णित कुरुक्षेत्र की महत्ता के विषय में हम यहाँ सविस्तर नहीं लिख सकते। वन पर्व[34]में आया है कि कुरुक्षेत्र के सभी लोग पापमुक्त हो जाते हैं और वह भी जो सदा ऐसा कहता है- 'मैं कुरुक्षेत्र को जाऊँगा और वहाँ रहूँगा।'[35] इस विश्व में इससे बढ़कर कोई अन्य पुनीत स्थल नहीं है। यहाँ तक कि यहाँ की उड़ी हुई धूलि के कण पापी को परम पद देते हैं।' यहाँ तक कि गंगा की भी तुलना कुरुक्षेत्र से की गयी है।[36]नारदीय पुराण[37]में आया है कि ग्रहों, नक्षत्रों एवं तारागणों को कालगति से (आकाश से) नीचे गिर पड़ने का भय है, किन्तु वे, जो कुरुक्षेत्र में मरते हैं पुन: पृथ्वी पर नहीं गिरते, अर्थात् वे पुन: जन्म नहीं लेते।[38]
तीर्थों का उल्लेख
यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि वनपर्व ने 83वें अध्याय में सरस्वती तट पर एवं कुरुक्षेत्र में कतिपय तीर्थों का उल्लेख किया है, किन्तु ब्राह्मणों एवं श्रौतसूत्रों में उल्लिखित तीर्थों से उनका मेल नहीं खाता, केवल 'विनशन'[39]एवं 'सरक'[40]के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। इससे यह प्रकट होता है कि वनपर्व का सरस्वती एवं कुरुक्षेत्र से संबन्धित उल्लेख श्रौतसूत्रों के उल्लेख से कई शताब्दियों के पश्चात् का है। नारदीय पुराण[41]ने कुरुक्षेत्र के लगभग 100 तीर्थों के नाम दिये हैं। इनका विवरण देना यहाँ सम्भव नहीं है, किन्तु कुछ के विषय में कुछ कहना आवश्यक है। पहला तीर्थ है ब्रह्मसर जहाँ राजा कुरु संन्यासी के रूप में रहते थे।[42]ऐंश्येण्ट जियाग्राफी ऑफ इण्डिया[43]में आया है कि यह सर 3546 फुट (पूर्व से पश्चिम) लम्बा एवं उत्तर से दक्षिण 1900 फुट चौड़ा था।
कुरुक्षेत्र युद्ध
वामन पुराण[44]ने सविस्तार वर्णन किया है और उसका कथन है कि यह आधा योजन विस्तृत था। चक्रतीर्थ सम्भवत: वह स्थान है जहाँ कृष्ण ने भीष्म पर आक्रमण करने के लिए चक्र उठाया था।[45]व्यासस्थली थानेसर के दक्षिण-पश्चिम 17 मील दूर आधुनिक स्थली है जहाँ व्यास ने पुत्र की हानि पर मर जाने का प्रण किया था।[46]अस्थिपुर[47]थानेसर के पश्चिम और औजसघाट के दक्षिण है, जहाँ पर महाभारत में मारे गये योद्धा जलाये गये थे। कनिंघम[48]के मत से चक्रतीर्थ अस्थिपुर ही है और अलबेरूनी के काल में यह कुरुक्षेत्र में एक प्रसिद्ध तीर्थ था।
तीर्थ-स्थल एवं वन
पृथूदक, जो सरस्वती पर था, वनपर्व[49]द्वारा प्रशंसित है-'लोगों का कथन है कि कुरुक्षेत्र पुनीत है, सरस्वती कुरुक्षेत्र से पुनीततर है, सरस्वती नदी से उसके (सरस्वती के) तीर्थ-स्थल अधिक पुनीत हैं और पृथूदक इन सभी सरस्वती के तीर्थों से उत्तम है। पृथूदक से बढ़कर कोई अन्य तीर्थ नहीं है'।[50] शल्यपर्व[51]में आया है कि जो भी कोई पुनीत वचनों का पाठ करता हुआ सरस्वती के: कुरुक्षेत्रं कुरुक्षेत्रात्सरस्वती। सरस्वत्याश्च तीर्थानि तीर्थेभ्यश्च पृथूदकम्॥ पृथूदकात्तीर्थतमं उत्तरी तट पर पृथूदक में प्राण छोड़ता है, दूसरे दिन से मृत्यु द्वारा कष्ट नहीं पाता।[52]वामन पुराण[53]ने इसे ब्रह्मयोनितीर्थ कहा है। पृथूदक आज का पेहोवा है जो थानेसर से 14 मील पश्चिम करनाल ज़िले में है।[54] वामन पुराण[55]एवं नारदीय पुराण[56]में कुरुक्षेत्र के सात वनों का उल्लेख है, यथा-
सात नदियाँ
शल्यपर्व[58]में कहा गया है कि संसार सात सरस्वतियों द्वारा घिरा हुआ है, यथा- सुप्रभा[59], कांचनाक्षी[60], विशाला[61], मनोरमा[62], सुरेणु[63], ओधवती[64]एवं विमलोदा।[65]वामन पुराण[66]में सरस्वती के सम्बन्ध में सात नदियाँ अति पवित्र कही गयी हैं[67]यथा-
कुरुक्षेत्र को सन्निहती या सन्निहत्या भी कहा गया है।[68]वामन पुराण[69]का कथन है कि सरस्वती प्लक्ष वृक्ष से निकलती है और कई पर्वतों को छेदती हुई द्वैतवन में प्रवेश करती है। इस पुराण में मार्कण्डेय द्वारा की गयी सरस्वती की प्रशस्ति भी दी हुई है। अलबरुनी[70]का कथन है कि सोमनाथ से एक बाण-निक्षेप की दूरी पर सरस्वती समुद्र में मिल जाती है। एक छोटी, किन्तु पुनीत नदी सरस्वती महीकण्ठ नाम की पहाड़ियों से निकलती है और पालनपुर के उत्तर-पूर्व होती हुई सिद्धपुर एवं पाटन को पार करती कई मीलों तक पृथ्वी के अन्दर बहती है और कच्छ के रन में प्रवेश कर जाती है।[71]
पौराणिक कथा
कुरु ने जिस क्षेत्र को बार-बार जोता था, उसका नाम कुरुक्षेत्र पड़ा। कहते हैं कि जब कुरु बहुत मनोयोग से इस क्षेत्र की जुताई कर रहे थे तब इन्द्र ने उनसे जाकर इस परिश्रम का कारण पूछा। कुरु ने कहा-'जो भी व्यक्ति यहाँ मारा जायेगा, वह पुण्य लोक में जायेगा।' इन्द्र उनका परिहास करते हुए स्वर्गलोक चले गये। ऐसा अनेक बार हुआ। इन्द्र ने देवताओं को भी बतलाया। देवताओं ने इन्द्र से कहा-'यदि संभव हो तो कुरु को अपने अनुकूल कर लो अन्यथा यदि लोग वहां यज्ञ करके हमारा भाग दिये बिना स्वर्गलोक चले गये तो हमारा भाग नष्ट हो जायेगा।' तब इन्द्र ने पुन: कुरु के पास जाकर कहा-'नरेश्वर, तुम व्यर्थ ही कष्ट कर रहे हो। यदि कोई भी पशु, पक्षी या मनुष्य निराहार रहकर अथवा युद्ध करके यहाँ मारा जायेगा तो स्वर्ग का भागी होगा।' कुरु ने यह बात मान ली। यही स्थान समंत-पंचक अथवा प्रजापति की उत्तरवेदी कहलाता है। [72]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ऋग्वेद 10.33.4
- ↑ अथर्ववेद 20.127.8
- ↑ शतपथ ब्राह्मण 4.1.5.13
- ↑ मैत्रायणी संहिता 2.1.4, 'देवा वै सत्रमासत्र कुरुक्षेत्रे
- ↑ तैत्तिरीय ब्राह्मण 5.1.1, 'देवा वै सत्रमासत तेषां कुरुक्षेत्रं वेदिरासीत्'
- ↑ ऋग्वेद, 10.90.16
- ↑ तरन्तुकारन्तुकयोर्यदन्तरं रामह्रदानां च मचक्रुकस्य। एतत्कुरुक्षेत्रसमन्तपञ्चकं पितामहस्योत्तरवेदिरुच्यते॥ वनपर्व (83।208), शल्य पर्व (53।24)। पद्म पुराण (1।27।92) ने 'तरण्डकारण्डकयो:' पाठ दिया है (कल्पतरु, तीर्थ, पृ0 171)। वनपर्व (83।9-15 एवं 200) में आया हे कि भगवान् विष्णु द्वारा नियुक्त कुरुक्षेत्र के द्वारपालों में एक द्वारपाल था मचक्रक नामक यक्ष। क्या हम प्रथम शब्द को 'तरन्तुक' एवं 'अरन्तुक' में नहीं विभाजित कर सकते? नारदीय पुराण (उत्तर, 65।24) में कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत 'रन्तुक' नामक उपतीर्थ का उल्लेख है (तीर्थप्र0, पृ0 464-465)। कनिंघम के मत से रत्नुक' थानेसर के पूर्व 4 मील की दूरी पर कुरुक्षेत्र के घेरे के उत्तर-पूर्व में स्थित रतन यक्ष है।
- ↑ तीर्थप्रकाश, पृ0 463
- ↑ आर्क्यालाजिकल सर्वे रिपोर्टस, जिल्द 14, पृ0 86-106
- ↑ तैत्तिरीय ब्राह्मण, 18.4.1
- ↑ ऐतरेय ब्राह्मण 8.1 या 2.19
- ↑ ऐतरेय ब्राह्मण, 35।4=7।30
- ↑ ऐतरेय ब्राह्मण, 38.3=8.14
- ↑ तैत्तिरीय आरण्यक, 5.1.1
- ↑ देवा वै सत्रमासत। ... तेषां कुरुक्षेत्रे वेदिरासीत्। तस्यै खाण्डवो दक्षिणार्ध आसीत्। तूर्ध्नमुत्तरार्ध:। परीणज्जधनार्ध:। मरव उत्कर:॥ तैत्तिरीय आरण्यक (तैत्तिरीय आरण्यक 5.1.1) क्या 'तूर्घ्न' 'स्त्रुघ्न' का प्राचीन रूप है? 'स्त्रुघ्न' या आधुनिक 'सुध' जो प्राचीन यमुना पर है, थानेश्वर से 40 मील एवं सहारनपुर से उत्तर-पश्चिम 10 मील पर है।
- ↑ अवश्वलायन, 12.6
- ↑ लाट्यायन, 10.15
- ↑ कात्यायन, 24.6.5
- ↑ छान्दोग्य उपनिषद, 1.10.1
- ↑ निरुक्त, 2.10
- ↑ ॠग्वेद, 10.98.5 एवं 7
- ↑ पाणिनि, 4.1.151 एवं 4.1.172
- ↑ दक्षिणेन सरस्वत्या दृषद्वत्युत्तरेण च। ये वसन्ति कुरुक्षेत्रे ते वसन्ति त्रिविष्टपे॥ वन पर्व (वन पर्व, 83.3, 204-205)।
- ↑ वामन पुराण, 86।6
- ↑ मनु, 2.17.18
- ↑ सरस्वतीदृषद्वत्योरन्तरं कुरुजांगलम्। वामन पुराण (22.47); सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम्। तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्त प्रचक्षते॥ कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पञ्चाला: शूरसेनका:॥ एष ब्रह्मर्षिदेशों वै ब्रह्मावर्तादनन्तर:॥ मनु (2.17 एवं 19)। युग-युग में देशों के विस्तार में अन्तर पड़ता रहा है। पंचाल दक्षिण एवं उत्तर में विभाजित था। बुद्ध-काल में पंचाल की राजधानी कन्नौज थी। शूरसेन देश की राजधानी थी मथुरा। 'अनन्तर' का अर्थ है 'थोड़ा कम' या 'किसी से न तो मध्यम या न भिन्न'। नारदीय पुराण <>उत्तर, 64।6<>।
- ↑ आद्यैषा ब्रह्मणो वेदिस्ततो रामहृदा: स्मृता:। कुरुणा च यत: कृष्टं कुरुक्षेत्रं तत: स्मृतम्॥ वामन पुराण (22.59-60)। वामन पुराण (22.18-20) के अनुसार ब्रह्मा की पाँच वेदियाँ ये हैं-
- समन्तपञ्चक (उत्तरा)
- प्रयाग (मध्यमा)
- गयाशिर (पूर्वा)
- विरजा (दक्षिणा) एवं
- पुष्कर (प्रतीची)।
- ↑ यावदेतन्मया कृष्टं धर्मक्षेत्रं तदस्तु व:। स्नातानां च मृतानां च महापुण्यफलं त्विह॥ वामन पुराण (वामन पुराण, 22.33-34) मिलाइए शल्य पर्व महाभारत (शल्यपर्व, 53.13-14
- ↑ वायु पुराण, 7.93
- ↑ कूर्म पुराण, 2.20.33 एवं 37.36-37
- ↑ वन पर्व, 129.2
- ↑ वामन पुराण, 22.15-16
- ↑ वेदी प्रजापतेरेषा समन्तात्पञ्चयोजना। कुरोर्वै यज्ञशीलस्य क्षेत्रमेतन्महात्मन:॥ वनपर्व 9.129.22); समाजगाम च पुनर्ब्रह्मणो वेदिमुत्तराम्। समन्तपरंचकं नाम धर्मस्थानमनुत्तमम्॥ आ समन्ताद्योजनानि पञ्च पञ्च च सर्वत:॥ वामन पुराण (22.15-16)। नारद पुराण(उत्तर, 64.20)में आया है- 'पञ्चयोजनविस्तारं दयासत्यक्षमोद्गमम्। स्यमन्तपञ्चकं तावत्कुरुक्षेत्रमुदाहृतम्॥'
- ↑ वन पर्व, 83.1-2
- ↑ ततो गच्छेत राजेन्द्र कुरुक्षेत्रमभिष्टुतम्। पापेभ्यो विप्रमुच्यन्ते तद्गता: सर्वजन्तव:॥ कुरुक्षेत्रं गमिष्यामि कुरुक्षेत्रे वसाम्यहम्। य एवं सततं ब्रूयात् सर्वपापै: प्रमुच्यते॥ वनपर्व (83.1-2)। टीकाकार नीलकण्ठ ने एक विचित्र व्युत्पत्तिदी है। (वनपर्व 83.6)- 'कुत्सितं रौतीतिकुरु पापं तस्य क्षेपणात् त्रायते इति कुरुक्षेत्रं पापनिवर्तकं ब्रह्मोपलब्धिस्थानत्वाद् ब्रह्मसदनम्।' 'सम्यक् अन्तोयेषु क्षत्रियाणां ते समन्ता रामकृतरुधिरोदह्रदा:, तेषां पञ्चकं समन्तपञ्चकम्।' देखिए तीर्थप्र0 (पृ0 463)।
- ↑ कुरुक्षेत्रसमा गंगा, वनपर्व 85.88
- ↑ नारदीय पुराण, 2.64.23-24
- ↑ ग्रहनक्षत्रताराणां कालेन पतनाद् भयम। कुरुक्षेत्रमृतानां तु न भूय: पतनं भवेत्॥ नारदीय पुराण (उत्तर, 2।64।23-24), वामन पुराण (33।16)।
- ↑ वनपर्व 83.11
- ↑ जो ऐतरेय ब्राह्मण का सम्भवत: परिसरक है
- ↑ उत्तर, अध्याय 65
- ↑ वनपर्व 83।85, वामन पुराण 49।38-41, नारदीय पुराण, उत्तर 65.95
- ↑ पृ0 334-335
- ↑ वामन पुराण, 25.50-55
- ↑ वामन पुराण 42.5, 57।89 एवं 89.3
- ↑ वनपर्व 84.96; नारदीय पुराण, उत्तरार्ध 65.83 एवं पद्म पुराण 1.26.90-91
- ↑ पद्म पुराण, आदि, 27।62
- ↑ आर्क्यालॉजिकल सर्वे रिपोर्टस आफ इण्डिया, जिल्द 2, पृ0 219
- ↑ वनपर्व, 83.142-149
- ↑ वनपर्व 83।147; शान्तिपर्व152.11; पद्म पुराण, आदि 27.33, 34, 36 एवं कल्प0 तीर्थ, पृ0 180-181, पुण्यमाहु नान्यत्तीर्थ कुरुद्वह॥ (वनपर्व 83.147)। वामन पुराण (22.44) का कथन है- 'तस्यैव मध्ये बहुपुण्ययुक्तं पृथूदकं पापहरं शिवं च। पुण्या नदी प्राङमुखतां प्रथाता जलौघयुक्तस्य सुता जलाढ्या॥'
- ↑ शल्यपर्व, 39.33-34
- ↑ अर्थात् वह जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है
- ↑ वामन पुराण, 39.20 एवं 23
- ↑ देखिए एपिग्रैफिया इण्डिका, जिल्द 1, पृ0 184
- ↑ वामन पुराण, 34.3
- ↑ उत्तर 65.4-7
- ↑ देखिए आर्क्यालाजिकल सर्वे रिपोर्टस फॉर इण्डिया, जिल्द 14, पृ0 90-91
- ↑ अध्याय 38
- ↑ पुष्कर में, जहाँ ब्रह्मा ने एक महान् यज्ञ करते समय उसका स्मरण किया था
- ↑ नैमिष वन में
- ↑ गया देश में गय द्वारा आवाहित की हुई
- ↑ उत्तर कोसल में औद्दालक के यज्ञ में
- ↑ ऋषभ द्वीप में कुरु के यज्ञ में
- ↑ कुरुक्षेत्र में वसिष्ठ द्वारा कही गयी
- ↑ जब ब्रह्मा ने हिमालय में पुन: यज्ञ किया
- ↑ वामन पुराण, 34.68
- ↑ यद्यपि 9 के नाम आधे हैं
- ↑ देखिए तीर्थों की सूची
- ↑ वामन पुराण, 32.3-4
- ↑ सचौ, जिल्द 1, पृ0 261
- ↑ बम्बई गजेटियर, जिल्द 5, पृ0 283, कुरुक्षेत्र के तीर्थों की सूची के लिए देखिए, ए.एस. आर. ऑफ इण्डिया (जिल्द 14, पृ0 17-106)।
- ↑ महाभारत, शल्यपर्व, अध्याय 53
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