"प्रकृति के प्रति -दिनेश सिंह": अवतरणों में अंतर

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नाप कर मौन तिमिर उँचास
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चली,सरि प्राणो में भरे मोद
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सागर से मिलन करे शृंगार
सागर से मिलन करे श्रृंगार
दो प्राण एक हो बने युगल
दो प्राण एक हो बने युगल
कौतूहल उर उदधि अपार
कौतूहल उर उदधि अपार
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07:56, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

यह लेख स्वतंत्र लेखन श्रेणी का लेख है। इस लेख में प्रयुक्त सामग्री, जैसे कि तथ्य, आँकड़े, विचार, चित्र आदि का, संपूर्ण उत्तरदायित्व इस लेख के लेखक/लेखकों का है भारतकोश का नहीं।

भाग-1

प्रकृति अविरल तेरा ये बिम्ब
चूमते अंबर को गिरी श्रंग
श्रंग पर छेड़े पव संगीत
गीत नव गाते विविध विहंग

स्वर्मियों उर्मिल खग दल गान
कही चातक की करुण पुकार
अरे पिक का मदमाता गीत
लग रहा लिया विश्व है जीत

श्रांखला अचलो की अवर्णित
निरुपम हिम सज्जित परिधान
सेज बंकिम विशाल विश्रांत
दे रहा अल्कापुर को मात

थिरकती लहर!सर सरित तड़ाग
बहे इठलाती सुरसरि धार
झील झरनो का स्वर्णिम राग
बहे पव मंद गंध लिए भार

व्रान्त पर उड़ उड़ करते अंक
मधुर चुम्बन ब्रन्दी और बृंद
रसातल में डूबे मकरंद
डूब ज्यों लिखे कवी कोई छंद

ललोहित नभ पर जब दिनमान
कलापी की मृदु रागारुण तान
मधुर कीटों की किंकिड ध्वनि
तरुण निशि पर मंजीर सी भान

शिथिल रजनी का नव संवाद
गगन का तेज अलौकिक शांत
पिये मद सोया जब संसार
मदभरी जगे चांदनी रात

तृप्त वसुधा को करता चाँद
विरह में जलता किसका प्राण
बीतती अपलक जिसकी रात
प्रेम विरहाकुल एक खग जात

शिथिल रजनी का मध्य पहर
सघन बन में जलता एक दीप
नाप कर मौन तिमिर उँचास
कर रहा है तम का परिहास

भाग-2

शरद हँसनी लौट रही है
पंख समेटे अपने लोक
ग्रीष्म इंदिरा,प्रखर ऊषा से
लगा धधकने भू का लोक

लगी पिघलने गिरी खण्डों से
महास्वेत शोभन हिम खण्ड
अचल श्रंग से क्रीड़ा करता
प्रणय गान गाता आखण्ड

चला मिलन को प्रेमाकुल
सरिता से सुख लिए अपार
पुलकित निर्मल जल धारा
अलि प्राणो में भरे नव संचार

चली,सरि प्राणो में भरे मोद
सागर से मिलन करे श्रृंगार
दो प्राण एक हो बने युगल
कौतूहल उर उदधि अपार

मौन प्रकृति विभूति मनोहर
जड़ चेतन जिसके समुदाय
गृह,नक्षत्र और सिंधु, जलद
सुखी चेतना जिसका अप्राय

खड़ा सिंधु तट अलोक निरखता
सागर की लहरें व्यकुलाती
लहरों के उर असीम प्रेम
हर दो पल में मिलने आती

सागर के उर की व्याकुलता
कवि साछात है देख रहा
विस्थापित होकर तटनी से
सागर का धीरज छूट रहा

सागर तट का मृदु चुम्बन कर
प्रातःकाल निकल जाता
दिनकर की अंतिम विभा पूर्व
होकर अधीर चला आता

रजनी के धवल चाँदनी में
जब सोता है जग का प्रदीप्त
तटनी को भरकर बाँहो में
सागर गाता है प्रणय गीत


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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