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[[चित्र:Seated-Rishabhanath-Jain-Museum-Mathura-38.jpg|thumb|250px|[[ॠषभनाथ तीर्थंकर|आसनस्थ ऋषभनाथ]]<br /> Seated Rishabhanatha<br /> [[जैन संग्रहालय मथुरा|राजकीय जैन संग्रहालय]], [[मथुरा]]]]
 
[[चित्र:Seated-Rishabhanath-Jain-Museum-Mathura-38.jpg|thumb|250px|[[ॠषभनाथ तीर्थंकर|आसनस्थ ऋषभनाथ]]<br /> Seated Rishabhanatha<br /> [[जैन संग्रहालय मथुरा|राजकीय जैन संग्रहालय]], [[मथुरा]]]]
*तीर्थ का अर्थ जिसके द्वारा संसार समुद्र तरा जाए,पार किया जाए और वह अहिंसा धर्म है। इस विषय में जिन्होंने प्रवर्तन किया, उपदेश दिया, उन्हें तीर्थंकर कहा गया है।
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*तीर्थंकर 24 माने गए है।
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'''तीर्थंकर''' शब्द का [[जैन धर्म]] में बड़ा ही महत्त्व है। 'तीर्थ' का अर्थ है, जिसके द्वारा संसार समुद्र तरा जाए, पार किया जाए और वह अहिंसा धर्म है। जैन धर्म में उन 'जिनों' एवं महात्माओं को तीर्थंकर कहा गया है, जिन्होंने प्रवर्तन किया, उपदेश दिया और असंख्य जीवों को इस संसार से 'तार'<ref>उद्धार करना</ref> दिया।
*[[जैन]] धर्म में चौबीस तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार प्रसिद्ध है-
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जैन धर्म में 24 तीर्थंकर माने गए हैं। उन चौबीस तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार प्रसिद्ध हैं-
 
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#[[ॠषभनाथ तीर्थंकर]],  
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इन 24 तीर्थंकरों ने अपने-अपने समय में धर्ममार्ग से च्युत हो रहे जन-समुदाय को संबोधित किया और उसे धर्ममार्ग में लगाया। इसी से इन्हें धर्ममार्ग और मोक्षमार्ग का नेता तीर्थ प्रवर्त्तक 'तीर्थंकर' कहा गया है। [[जैन]] सिद्धान्त के अनुसार 'तीर्थंकर' नाम की एक पुण्य<ref>प्रशस्त</ref> कर्म प्रकृति है। उसके उदय से तीर्थंकर होते और वे तत्त्वोपदेश करते हैं। आचार्य विद्यानंद ने स्पष्ट कहा है<ref>ऋषभादिमहावीरान्तेभ्य: स्वात्मोपलब्धये। धर्मतीर्थंकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनम:॥ अकलंक, लघीयस्त्रय, 1</ref> कि 'बिना तीर्थंकरत्वेन नाम्ना नार्थोपदेशना' अर्थात बिना तीर्थंकर-पुण्यनामकर्म के तत्त्वोपदेश संभव नहीं है।<ref>आप्तपरीक्षा, कारिका 16</ref>
  
*इन 24 तीर्थंकरों ने अपने-अपने समय में धर्ममार्ग से च्युत हो रहे जन समुदाय को संबोधित किया और उसे धर्ममार्ग में लगाया।
 
*इसी से इन्हें धर्म मार्ग-मोक्ष मार्ग का नेता तीर्थ प्रवर्त्तक-तीर्थंकर कहा गया है।
 
*जैन सिद्धान्त के अनुसार 'तीर्थंकर' नाम की एक पुण्य (प्रशस्त) कर्म प्रकृति है। उसके उदय से तीर्थंकर होते और वे तत्त्वोपदेश करते हैं।
 
*आचार्य विद्यानंद ने स्पष्ट कहा है<ref>ऋषभादिमहावीरान्तेभ्य: स्वात्मोपलब्धये। धर्मतीर्थंकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनम:॥ अकलंक, लघीयस्त्रय, 1</ref> कि 'बिना तीर्थंकरत्वेन नाम्ना नार्थोपदेशना' अर्थात बिना तीर्थंकर-पुण्यनामकर्म के तत्त्वोपदेश संभव नहीं है।<ref>आप्तपरीक्षा, कारिका 16</ref>
 
 
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06:06, 26 फ़रवरी 2012 का अवतरण

तीर्थंकर शब्द का जैन धर्म में बड़ा ही महत्त्व है। 'तीर्थ' का अर्थ है, जिसके द्वारा संसार समुद्र तरा जाए, पार किया जाए और वह अहिंसा धर्म है। जैन धर्म में उन 'जिनों' एवं महात्माओं को तीर्थंकर कहा गया है, जिन्होंने प्रवर्तन किया, उपदेश दिया और असंख्य जीवों को इस संसार से 'तार'[1] दिया।

जैन धर्म में 24 तीर्थंकर माने गए हैं। उन चौबीस तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार प्रसिद्ध हैं-

  1. ॠषभनाथ तीर्थंकर,
  2. अजितनाथ
  3. सम्भवनाथ
  4. अभिनन्दन
  5. सुमतिनाथ
  6. पदमप्रभु
  7. सुपार्श्वनाथ
  8. चन्द्रप्रभ
  9. पुष्पदन्त
  10. शीतलनाथ
  11. श्रेयांसनाथ
  12. वासुपूज्य
  13. विमलनाथ
  14. अनन्तनाथ
  15. धर्मनाथ
  16. शांतिनाथ
  17. कुन्थुनाथ
  18. अरनाथ
  19. मल्लिनाथ
  20. मुनिसुब्रत
  21. अरिष्टनेमि
  22. नेमिनाथ तीर्थंकर
  23. पार्श्वनाथ तीर्थंकर
  24. वर्धमान महावीर

इन 24 तीर्थंकरों ने अपने-अपने समय में धर्ममार्ग से च्युत हो रहे जन-समुदाय को संबोधित किया और उसे धर्ममार्ग में लगाया। इसी से इन्हें धर्ममार्ग और मोक्षमार्ग का नेता तीर्थ प्रवर्त्तक 'तीर्थंकर' कहा गया है। जैन सिद्धान्त के अनुसार 'तीर्थंकर' नाम की एक पुण्य[2] कर्म प्रकृति है। उसके उदय से तीर्थंकर होते और वे तत्त्वोपदेश करते हैं। आचार्य विद्यानंद ने स्पष्ट कहा है[3] कि 'बिना तीर्थंकरत्वेन नाम्ना नार्थोपदेशना' अर्थात बिना तीर्थंकर-पुण्यनामकर्म के तत्त्वोपदेश संभव नहीं है।[4]

वीथिका


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उद्धार करना
  2. प्रशस्त
  3. ऋषभादिमहावीरान्तेभ्य: स्वात्मोपलब्धये। धर्मतीर्थंकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनम:॥ अकलंक, लघीयस्त्रय, 1
  4. आप्तपरीक्षा, कारिका 16

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