जैन दर्शन का उद्भव और विकास
उद्भव
जैनश्रुत के 12वें अंग दृष्टिवाद में जैन दर्शन और न्याय के उद्गम बीज प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं।
- आचार्य भूतबली और पुष्पदन्त द्वारा निबद्ध 'षट्खंडागम'[1] में, जो दृष्टिवाद अंग का ही अंश है, 'सिया पज्जत्ता', 'सिया अपज्जता', 'मणुस अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया', 'अखंखेज्जा[2] 'जैसे 'सिया' (स्यात्) शब्द और प्रश्नोत्तरी शैली को लिए प्रचुर वाक्य पाए जाते हैं।
- 'षट्खंडागम' के आधार से रचित आचार्य कुन्दकुन्द के 'पंचास्तिकाय', 'प्रवचनसार' आदि आर्ष ग्रन्थों में भी उनके कुछ और अधिक उद्गमबीज मिलते हैं।[3] 'सिय अत्थिणत्थि उहयं', 'जम्हा' जैसे युक्ति प्रवण वाक्यों एवं शब्द प्रयोगों द्वारा उनमें प्रश्नोत्तर पूर्वक विषयों को दृढ़ किया गया है।
- श्वेताम्बर परम्परा में मान्य[4] आगमों में भी जैन दर्शन और जैन न्याय के बीज मिलते हैं। उनमें अनेक जगह से केणट्ठेणं भंते एवमुच्चई जीवाणं, भंते किं सासया असासया? गोयमा। जीवा सिय सासया सिय असासया। गोयमा। दव्वट्ठयाए सासया भवट्ठयाए असासया। जैसे तर्क गर्भ प्रश्नोत्तर प्राप्त होते हैं।
- 'सिया' या 'सिय' प्राकृत शब्द हैं, जो संस्कृत के 'स्यात्' शब्द के पर्यायवाची है। और कथंचिदर्थबोधक हैं तथा स्याद्वाददर्शन एवं स्याद्वादन्याय के प्रदर्शक हैं। द्वादशांग में अन्तिम दृष्टिवाद अंग का जो स्वरूप दिया गया है, उसमें बतलाया गया है।[5] कि जिसमें विविध दृष्टियों-वादियों की मान्यताओं का प्ररूपण और उनकी समीक्षा है वह दृष्टिवाद है। यह समीक्षा हेतुओं एवं युक्तियों के बिना संभव नहीं है।
- इससे स्पष्ट जान पड़ता है कि जैन दर्शन और जैन न्याय का उदृगम दृष्टिवाद-अंगश्रुत से हुआ है।
- जैन मनीषी यशोविजय[6] ने भी लिखा है कि 'स्याद्वादार्थों दृष्टिवादार्णवोत्थ:' अर्थात् स्याद्वादार्थ-जैन दर्शन और जैन न्याय दृष्टिवादरूप अर्णव (समुद्र) से उत्पन्न हुए हैं। यहाँ यशोविजय ने दृष्टिवाद को अर्णव (समुद्र) बतलाकर उसकी विशालता, गंभीरता और महत्ता को प्रकट किया है तथा स्याद्वाद का उद्भव उससे प्रतिपादित किया है। यथार्थ में स्याद्वाददर्शन और स्याद्वादन्याय ही जैन दर्शन एवं जैनन्याय हैं।
- आचार्य समन्तभद्र ने सभी तीर्थंकरों को 'स्याद्वादी' कहकर उनके उपदेश को बहुत स्पष्ट रूप में स्याद्वाद-न्याय, जिसमें दर्शन भी अंतर्भूत है, बतलाया है।[7] उनके उत्तरवर्ती अकलंकदेव[8] तो कहते हैं कि ऋषभ से लेकर महावीर पर्यन्त सभी तीर्थंकर स्याद्वादी-स्याद्वाद के उपदेशक हैं। आचार्य समन्तभद्र, अकलंक, यशोविजय के सिवाय सिद्धसेन[9], विद्यानंद[10] और हरिभद्र जैसे दार्शनिकों एवं तार्किकों ने भी स्याद्वाददर्शन और स्याद्वाद न्याय को जैन दर्शन और जैन न्याय प्रतिपादित किया है। यह संभव है कि वैदिक और बौद्ध दर्शनों एवं न्यायों का विकास जैन दर्शन और जैन न्याय के विकास में प्रेरक हुआ हो तथा उनकी क्रमिक शास्त्र रचना जैन दर्शन और जैन न्याय की क्रमिक शास्त्ररचना में बलप्रद हुई हो। समकालीनों में ऐसा आदान-प्रदान या प्रेरणा-ग्रहण स्वाभाविक है, जिसे नकारा नहीं जा सकता।
विकास
काल की दृष्टि से उनके विकास को तीन कालखंडों में विभक्त किया जा सकता है और उन कालखंडों के नाम निम्न प्रकार रखे जा सकते हैं :-
- आदिकाल अथवा समन्तभद्र-काल (ई. 200 से ई. 650)।
- मध्यकाल अथवा अकलंक-काल (ई. 650 से ई. 1050)।
- उत्तरमध्ययुग (अन्त्यकाल) अथवा प्रभाचन्द्र-काल (ई. 1050 से 1700)।
आदिकाल अथवा समन्तभद्र-काल
- जैन दर्शन के विकास का आरम्भ यों तो आचार्य कुन्दकुन्द[11] से उपलब्ध होने लगता है। उनके पंचास्तिकाय, प्रवचनसार आदि प्राकृत ग्रन्थों में दर्शन के बीज प्राप्त हैं। भगवती सूत्र[12], स्थानांगसूत्र[13] आदि अनेक स्थल में भी दर्शन की चर्चायें मिलती[14] हैं। गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्र[15] में, जो जैन संस्कृत वाङमय का आद्यसूत्र ग्रन्थ है, सिद्धान्त के साथ दर्शन और न्याय का भी अच्छा प्ररूपण है।
- आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने उस आरम्भ को आगे बढ़ाया और बहुत स्पष्ट किया है। उनकी उपलब्ध पांच कृतियों में चार कृतियाँ हैं सो तीर्थंकरों के स्तवनरूप में होने पर भी उनमें दर्शन और न्याय के प्रचुर उपकरण पाये जाते हैं, जो प्राय: उनसे पूर्व अप्राप्य हैं। उन्होंने इनमें एकान्तवादों का निराकरण करके अनेकान्त और स्याद्वाद की प्रस्थापना की है। उनकी वे चार कृतियाँ हैं-
- आप्तमीमांसा (देवागम),
- युक्त्यनुशासन,
- स्वयम्भू और देवनन्दि पूज्यपाद
- जिनशतक।
- इनमें उन्होंने स्याद्वाद और सप्रभङ्गनय का सुन्दर एवं प्रौढ़ संस्कृत में प्रतिपादन किया है, जो उस प्राचीन जैन संस्कृत-वाङमय में पहली बार मिलता है। प्रतीत होता है कि समन्तभद्र ने भारतीय दार्शनिक एवं तार्किक क्षेत्र में जैन दर्शन और जैन न्याय के युग प्रवर्तक का कार्य किया है। उनसे पूर्व जैन संस्कृति के प्राणभूत 'स्याद्वाद' को प्राय: आगम रूप ही प्राप्त था और उसका आगमिक विषयों के निरूपण में ही उपयोग किया जाता था तथा सीधी-सादी एवं सरल विवेचना की जाती थी। जैसा कि हम 'सिया', 'सिय' के सन्दर्भ में पहले देख आये हैं। उसके समर्थन में विशेष युक्तिवाद की आवश्यकता नहीं समझी जाती थी। परन्तु समन्तभद्र के काल में उसकी आवश्यकता बढ़ गई, क्योंकि ई. 2री, 3री शताब्दी का समय भारतवर्ष के दार्शनिक इतिहास में अपूर्व क्रांति का था। इस समय विभिन्न दर्शनों में अनेक प्रभावशाली दार्शनिक हुए हैं।
- यद्यपि महावीर और बुद्ध के अहिंसापूर्ण उपदेशों से यज्ञप्रधान वैदिक परम्परा का प्रभाव बहुत क्षीण हो गया था और श्रमण- जैन तथा बौद्ध परम्परा का, जो अहिंसा, तप, त्याग और ध्यान पर बल देती थी, प्रभाव प्राय: सर्वत्र फैल गया था। किन्तु कुछ शताब्दियों के पश्चात् वैदिक संस्कृति का पुन: प्रभाव बढ़ गया और वैदिक विद्वानों द्वारा श्रमण-परम्परा के उक्त अहिंसादि सिद्धांतों की आलोचना एवं खंडन आरंभ हो गया था। फलत: बौद्ध परम्परा में अश्वघोष, मातृचेट , नागार्जुन, बसुबिंदु आदि विद्वानों तथा जैन परम्परा में कुन्दकुन्द, गृद्धपिच्छ, प्रभृति मनीषियों का उद्भव हुआ। इन्होंने अपने सिद्धांतों का संपोषण, प्रतिष्ठापन करने के साथ ही वैदिक विद्वानों की आलोचनां का उत्तर भी दिया तथा उनके हिंसापूर्ण क्रियाकांड का खंडन किया। बाद को वैदिक परम्परा में कणाद, जैमिनि, अक्षपाद, वादरायण आदि महा-उद्योगी प्राज्ञ हुए और उन्होंने अपने सिद्धांतों का समर्थन तथा श्रमण विद्वानों के खंडन-मंडन का जवाब दिया।
- यद्यपि वैदिक परम्परा वैशेषिक, मीमांसा, न्याय, वेदान्त, सांख्य आदि अनेक शाखाओं में विभाजित थी और उनके भी परस्पर खंडन-मंडन आलोचन-प्रत्यालोचन चलता था। किन्तु श्रमणों और श्रमण सिद्धान्तों के विरुद्ध (खण्डन में) सब एक थे और सभी अपने सिद्धान्तों का आधार प्राय: वेद को मानते थे। इसी दार्शनिक उठापटक में ईश्वर-कृष्ण, विन्ध्यवासी, वात्स्यायन, असंग, वसुबन्धु आदि विद्वान् दोनों परम्पराओं में आविर्भूत हुए और उन्होंने स्वपक्ष के समर्थन एवं परपक्ष के खंडन के लिए अनेक शास्त्रों की रचना की। इस तरह वह समय सभी दर्शनों का अखाड़ा बन गया था। सभी दार्शनिक एक दूसरे को परास्त करने में लगे थे। इस सबका आभास इस काल के रचे एवं उपलब्ध दार्शनिक साहित्य से होता है।
दार्शनिक जगत् को आचार्य समन्तभद्र का अवदान
- इसी समय जैन परम्परा में दक्षिण भारत में महामनीषी समन्तभद्र का उदय हुआ, जो उनकी उपलब्ध कृतियों से प्रतिभाशाली और तेजस्वी पांडित्य से युक्त प्रतीत होते हैं। उन्होंने उक्त दार्शनिकों के संघर्ष को देखा और अनुभव किया कि परस्पर के आग्रह से वास्तविक तत्त्व लुप्त हो रहा है। सभी दार्शनिक अपने अपने पक्षाग्रह के अनुसार तत्त्व का प्रतिपादन करते हैं। कोई तत्त्व को मात्र भाव अस्तित्वरूप, कोई अभाव नास्तित्वरूप, कोई अद्वैत एकरूप, कोई द्वैत अनेकरूप, कोई अपृथक् अभेदरूप आदि मान रहा है। जो तत्त्व वस्तु का एक-एक अंश है, उसका समग्र नहीं है। इस सबकी झलक हमें उनकी 'आप्तमीमांसा' में मिलती है। उसमें उन्होंने इन सभी एकान्त मान्यताओं को प्रस्तुत कर स्याद्वाद से उनका समन्वय कर उन सभी को स्वीकार किया है।
- भाव[16]वादी का मत था[17] कि तत्त्व[18]भावरूप ही है, अभावरूप नहीं- 'सर्वं सर्वत्र विद्यते'- सब सब जगह है। न प्रागभाव है, न प्रध्वंसाभाव है, न अन्योन्याभाव है, न अत्यंताभाव है।
- इसके विपरीत[19]वादी का कथन[20]था कि अभावरूप ही तत्त्व है। शून्य के सिवाय कुछ नहीं है। न प्रमाण है और न प्रमेय है।
- अद्वैतवादी प्रतिपादन करता था[21] कि तत्त्व एक ही है, अनेक का प्रतिभास माया विजृम्भित अथवा अविद्योपकल्पित है। अद्वैतवादी भी एक नहीं थे, वे भिन्न भिन्न रूप में त व का प्ररूपण करते थे। कोई एक मात्र ब्रह्म का कथन करते थे। कोई मात्र ज्ञान का, कोई मात्र बाह्यार्थ का और कोई शब्दमात्र का निरूपण करते थे।
- द्वैतवादी[22] इसका विरोध करके तत्त्व को द्वैत (अनेक) बतलाते थे। वैशेषिक तत्त्व को सात पदार्थ (द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, अभाव) रूप, नैयायिक 16 पदार्थ (प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रह स्थान) रूप, सांख्य 25 (पुरुष, प्रकृति, महान, अहंकार, 16 का गण, 5 ज्ञानेन्द्रिय, 5 कर्मेन्द्रिय, 1 मत, 5 तन्मात्राएं तथा इन 5 तन्मात्राओं से उत्पन्न 5 भूत -1. आकाश, 2. वायु, 3. अग्नि, 4. जल, 5. पृथ्वी) रूप कहते थे।
- अनित्यवादी[23] कहते थे कि वस्तु प्रति समय नष्ट हो रही है, कोई भी स्थिर नहीं है। अन्यथा जन्म, मरण, विनाश, अभाव, परिवर्तन आदि नहीं हो सकते, जो स्पष्ट दिखाई देते हैं और बतलाते हैं कि वस्तु अनित्य है, नित्य नहीं है।
- नित्यवादी का कहना था[24] कि यदि वस्तु अनित्य होता तो उसके नाश हो जाने पर यह संपूर्ण जगत् और वस्तुएं फिर दिखाई नहीं देतीं। एक व्यक्ति, जो बाल्य, युवा और वार्धक्य में अन्वयरूप से विद्यमान रहता है, स्थायी नहीं रह सकता। अत: वस्तु नित्य है।
- इस तरह भेद-अभेदवाद, अपेक्षा-अनपेक्षावाद, हेतु-अहेतुवाद, देव-पुरुषार्थवाद आदि एक-एक वाद (पक्ष) को माना जाता था और परस्पर में संघर्ष होता था।[25]
- यद्यपि श्रमण और श्रमणेतरों के वादों की चर्चा जैन परम्परा के दृष्टिवाद एवं भगवती सूत्र[26] और सूत्रकृतांग[27] में तथा बौद्ध परम्परा के त्रिपिटकों[28] में भी उपलब्ध होती है। किन्तु वह उतने प्रबल रूप में नहीं हैं, जितने सशक्त रूप में समन्तभद्र के काल में वह उभरकर आई। इसी से समन्तभद्र ने इन प्रचलित वादों का स्पष्ट और कुछ विस्तार से कथन करते हुए उन वादों में दोष प्रदर्शित किये तथा उन सभी को स्याद्वाद द्वारा स्वीकार किया। उन्होंने किसी के पक्ष को मिथ्या बतलाकर तिरस्कृत नहीं किया। अपितु उन्हें वस्तु का अपना एक-एक अंश बताया, क्योंकि वस्तु अनंतधर्मा है।[29] जो उसके जिस धर्म को देखेगा वही धर्म उसे उस समय दिखाई देगा, ऐसी स्थिति में द्रष्टा को यह विवेक रखना आवश्यक है कि वह वस्तु को उतना ही न मान बैठे। विवक्षित धर्म की अपेक्षा उसका दर्शन और कथन सही होने पर भी अविवक्षित, किन्तु विद्यमान अन्य धर्मों की अस्वीकृति होने से वह मिथ्या है अत: एक-एक अंश को मिथ्या नहीं कहा जा सकता। मिथ्या तभी है जब वह इतर का तिरस्कार करता है[30]।
- आचार्य समन्तभद्र ने विपक्ष के सभी उक्त विरोधी पक्ष-युगनों में स्याद्वाद द्वारा सप्तभंगी (सप्तवाक्यनय) की विशद योजना करके उनके आपसी संघर्षों को जहाँ शमन करने की दृष्टि प्रदान की वहाँ उन्होंने को जहाँ शमन करने की दृष्टि प्रदान की वहाँ उन्होंने पक्षाग्रहशून्य विचार-सरणिकी समन्वयवादी दृष्टि भी प्रस्तुत की। यही दृष्टि स्याद्वाद है, जो परम्परा से उन्हें प्राप्त थी। स्याद्वाद में सभी पक्षों (वादों) का समादर एवं समावेश है। एकान्त दृष्टियों (एकान्तवादों) में अपनी-अपनी ही मान्यता का आग्रह होने से उनमें अन्य (विरोधी) पक्षों का न समादर है और न समावेश है।
समन्तभद्र की यह अनोखी, किन्तु सही अहिंसक दृष्टि भारतीय दार्शनिकों, विशेषकर उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों के लिए मार्गदर्शन सिद्ध हुई। सिद्धसेन, श्रीदत्त, पात्रस्वामी, अकलंकदेव, हरिभद्र, विद्यानन्द, वादीभसिंह आदि तार्किकों ने उनका पूरा अनुगमन किया है। सम्भवत: इसी कारण उन्हें इस कलि युग में स्याद्वादतीर्थप्रभावक[31], स्याद्वादाग्रणी[32] आदि रूप में स्मरण किया गया है और श्रद्धापूर्वक उनका गुणगान किया गया है।
- समन्तभद्र से पूर्व आगमों में स्याद्वाद और सप्तभङगी का निर्देश अवश्य मिलता है। किन्तु वह बहुत कम और आगमिक विषयों के निरूपण में है। पर उन दोनों का जितना विशद, विस्तृत और व्यावहारिक प्रतिपादन समन्तभद्र की कृतियों में[33] उपलब्ध है, उतना उनसे पूर्व नहीं है। समन्तभद्र ने स्याद्वाद द्वारा सप्तभंगनयों (सात उत्तर वाक्यों) से 44 अनेकान्तरूप वस्तु की व्यवस्था का विधान किया और उस विधान को व्यावहारिक भी बनाया।[34] उदाहरण के लिए हम उनके आप्तमीमांसागत भाववाद और अभाववाद के समन्वय को यहाँ प्रस्तुत करते हैं।[35] इन्हें सप्तभंगी नय व्यवस्था भी कहते हैं। यहाँ सप्तभंगी की दार्शिनक विवेचना प्रस्तुत है—
स्यादस्ति
स्यात् (कथंचित्) वस्तु भावरूप ही है, क्योंकि वह स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव से वैसी ही प्रतीत होती है। यदि उसे परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव से भी भावरूप माना जाये, तो 'न' का व्यवहार अर्थात् अभाव का व्यवहार कहीं भी नहीं हो सकेगा। फलत: प्रागभाव के अभाव हो जाने पर वस्तु अनादि (अनुत्पन्न) प्रध्वंसाभाव के अभाव में अनन्त (विनाशका अभावशाश्वत विद्यमान), अन्योन्याभाव के अभाव में सब सबरूप (परस्पर भेद का अभाव) और अत्यन्ताभाव के अभाव में स्वरूप रहित (अपने-अपने प्रातिस्विक् रूप की हानि) रूप हो जायेगी। जब कि वस्तु उत्पन्न होती है, नष्ट होती है, परस्पर भिन्न रहती है और अपने-अपने स्वरूप को लिए हुए है। अत: वस्तु स्वरूपचतुष्टय की अपेक्षा से भावरूप ही है।
स्यात् नास्ति
स्यात् (कथंचित्) वस्तु अभावरूप ही है, क्योंकि वह परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा से वैसा ही अवगत होती है। यदि उसे सर्वथा (स्व और पर दोनों से) अभावरूप ही स्वीकार किया जाये, तो विधि (सद्भाव) रूप में होने वाले ज्ञान और वचन वे समस्त व्यवहार लुप्त हो जाएंगे और उस स्थिति में समस्त जगत् अन्ध (ज्ञान के अभाव में अज्ञानी) तथा मूक (वचन के अभाव में गूँगा) हो जायेगा, क्योंकि (शून्य) वाद में न ज्ञेय है, न उसे जानने वाला ज्ञान है, न अभिधेय है और न उसे कहने वाला वचन है। ये सभी (चारों) भाव (सद्भाव) रूप हैं। इस तरह वस्तु को सर्वथा अभाव (शून्य) मानने पर न ज्ञान-ज्ञेय का और न वाच्य-वाचक का व्यवहार हो सकेगा- कोई व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अत: वस्तु पर चतुष्टय से अभावरूप ही है।
स्यादस्ति-नास्ति
वस्तु कथंचित् उभयरूप ही है, क्योंकि क्रमश: दोनों विवक्षाएं होती हैं। ये दोनों विवक्षाएं तभी संभव हैं जब वस्तु कथंचित दोनों रूप हो। अन्यथा वे दोनों विवक्षाएं क्रमश: भी संभव नहीं है।
स्यात् अवक्तव्य
वस्तु कथंचित् अवक्तव्य ही है, क्योंकि दोनों को एक साथ कहा नहीं जा सकता। एक बार में उच्चरित एक शब्द एक ही अर्थ (वस्तु धर्म-भाव या अभाव) का बोध कराता है, अत: एक साथ दोनों विवक्षाओं के होने पर वस्तु को कह न सकने से वह अवक्तव्य ही है। इन चार भंगों को दिखलाकर वचन की शक्यता और अशक्यता के आधार पर समन्तभद्र ने अपुनरुक्त तीन भंग और बतलाकर सप्तभंगी संयोजित की है। वे तीन भंग ये है[36]
स्यात् अस्ति अवक्तव्य अर्थात् वस्तु कथंचित् भाव और अवक्तव्य ही है।
स्यात् नास्ति अवक्तव्य अर्थात् वस्तु कथंचित् अभाव और अवक्तव्य ही है।
स्यात् अस्ति च नास्ति च अवक्तव्य अर्थात् वस्तु कथंचित भाव, अभाव और अवक्तव्य ही है।
- इन 7 से ही वस्तु की सही-सही व्यवस्था होती है। वास्तव में ये सात भंग सात उत्तरवाक्य[37] हैं। जो प्रश्नकर्ता के सात प्रश्नों के उत्तर हैं। उसके सात प्रश्नों का कारण उसकी सात जिज्ञासायें हैं, उन सात जिज्ञासाओं का कारण उसके सात संदेह हैं और उन सात संदेहों का भी कारण वस्तुनिष्ठ सात धर्म (1. सत्, 2. असत, 3. उभय, 4. अवक्तव्यत्व, 5. सत्वक्तव्यत्व, 6. असत्वक्तव्यत्व और 7. सत्वासत्वावक्तव्यत्व) हैं। ये सात धर्म वस्तु में स्वभावत: हैं, और स्वभाव में तर्क नहीं होता।[38]
- इस तरह समन्तभद्र ने भाव और अभाव के पक्षों में होने वाले आग्रह को समाप्त कर दोनों को सम्यक बतलाया तथा उन्हें वस्तु के अपने वास्तविक धर्म निरूपित किया।
इसी प्रकार उन्होंने द्वैत-अद्वैत (एकानेक), नित्य-अनित्य भेद-अभेद-अपेक्षा-अनपेक्षा, हेतुवाद-अहेतुवाद, पुण्य-पाप आदि युगलों के एक-एक पक्ष को लेकर होने वाले वादियों के विवाद को समाप्त करते हुए दोनों को सत्य बतलाया। दोनों को ही वस्तुधर्म निरूपित किया। उन्होंने युक्तिपूर्वक कहा[39] कि वस्तु को सर्वथा अद्वैत (एक) मानने पर क्रिया-कारक का भेद, पुण्य-पाप का भेद, लोक-परलोक का भेद, बंध-मोक्ष का भेद, स्त्री-पुरुष का भेद आदि लोक प्रसिद्ध अनेकत्व का व्यवहार नहीं बन सकेगा, जो यथार्थ है, मिथ्या नहीं है। इसी तरह वस्तु को सर्वथा अनेक स्वीकार करने पर कर्ता ही फल भोक्ता होता है और जिसे बंध होता है उसे ही मोक्ष (बंध से छूटना) होता है, आदि व्यवस्था भी नहीं बन सकेगी। इसी प्रकार वस्तु को सर्वथा उभय, सर्वथा अवक्तव्य मानने पर भी लोक व्यवस्था समाप्त हो जाएगी। अत: वस्तु कथंचित एक ही है क्योंकि उसका सभी गुणों और पर्यायों में अन्वय (एकत्व) पाया जाता है। वस्तु कथंचित् अनेक ही है क्योंकि वह उन गुणों और पर्यायों से अविष्कभूत है। आगे यहाँ भी भाव और अभाव की तरह अद्वैत और द्वैत में तीसरे आदि 5 भंगों की और योजना करके सप्तभंगनय से वस्तु को समन्तभद्र ने अनेकान्त सिद्ध किया है।
- नित्य-अनित्य आदि एकान्त मान्यताओं में भी सप्तभंगी पद्धति से समन्वय किया है। उन सभी को वास्तविक बतलाकर वस्तु को नित्य अनित्य की अपेक्षा अनेकान्तात्मक प्रकट किया
है।[40] उन्होंने सयुक्तिक प्रतिपादन किया है कि अपने विरोधी के निषेधक 'सर्वथा' (एकान्त) के आग्रह को छोड़कर उस (विरोधी) के संग्राहक 'स्यात्' (कथंचित) के वचन से तत्त्व का निरूपण करना चाहिए। इस प्रकार के निरूपण अथवा स्वीकार में वस्तु और उसके सभी धर्म सुरक्षित रहते हैं। एक-एक पक्ष तो सत्यांशों को ही निरूपित या स्वीकार करते हैं, संपूर्ण सत्य को नहीं। संपूर्ण सत्य का निरूपण तो तभी संभव है जब सभी पक्षों को आदर दिया जाए, उनका लोप, तिरस्कार, निषेध या उपेक्षा (अस्वीकार) न किया जाए। समन्तभद्र ने[41] स्पष्ट घोषणा की कि 'निरपेक्ष इतर तिरस्कार पक्ष सम्यक नहीं है, सापेक्ष-इतर संग्राहक पक्ष ही सम्यक (सत्य प्रतिपादक) है।
- श्रवणवेलगोला के शिलालेखों और उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों के समुल्लेखों आदि से अवगत होता है कि समन्तभिद्र ने अपने समय में प्रचलित एकांतवादों का स्याद्वाद द्वारा अपनी कृतियों में ही समन्वय नहीं किया, अपितु भारत के पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर के सभी देशों तथा नगरों में पदयात्रा करके वादियों से शास्त्रार्थ भी किये और उन एकान्तवादों के विवाद भी स्याद्वाद से समाप्त किये। उदाहरण के लिए श्रवणवेलगोला का एक शिलालेख नं0 54 यहाँ दे रहे हैं[42]:-
पूर्वं पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता
पश्चान्मालव-सिधु ठक्कविषये कांचीपुरे वैदिशे।
प्राप्तोहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं
वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम्॥
इस पद्य मं समन्तभद्र अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि राजन्! मैंने सबसे पहले पाटलिपुत्र (पटना) नगर में भेरी बजाई, उसके बाद मालव, सिन्धु ठक्क (पंजाब) देश, कांचीपुर (कांजीवरम) और वैदिश (विदिशा) में बाद के लिए वादियों का आहूत किया और अब करहाटक (कोल्हापुर) में, जहाँ विद्याभिमानी बहुत वादियों का गढ़ है, सिंह की तरह वाद के लिए विचरता हुआ आया हूँ।'
- वादार्थी के अतिरिक्त वे एक अन्य पद्य में अपना और भी विशेष परिचय देते हुए कहते हैं[43]:-
आचार्योऽहं शृणु कविरहं वादिराट् पंडितोऽहं
दैवज्ञोऽहं जिन भिषगहं मान्त्रिकस्तांत्रिकोऽहम्।
राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलाया-
माज्ञासिद्ध: किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोऽहम्॥
यह परिचय भी समन्तभद्र ने वाद के लिए आयोजित किसी राजसभा में दिया है और कहा है कि 'हे राजन्! मैं आचार्य हूँ, मैं कवि हूँ, मैं वादिराट् हूँ, मैं पंडित हूँ, मैं देवज्ञ हूँ, मैं भिषग् हूँ, मैं मांत्रिक हूँ, मैं तांत्रिक हूँ, और तो क्या मैं इस समुद्रवलया पृथ्वी पर आज्ञासिद्ध हूँ- जो आदेश दूँ वही होता है तथा सिद्ध सारस्वत भी हूँ- सरस्वती मुझे सिद्ध हैं।'
- समन्तभद्र ने एकान्तवादों को तोड़ा नहीं, जोड़ा है और वस्तु को अनेकान्तस्वरूप सिद्ध किया है।[44] साथ ही प्रमाण का लक्षण[45], उसके भेद, प्रमाण का विषय[46], प्रमाण के फल की व्यवस्था[47], नयलक्षण[48] सप्तभंगी की समस्त वस्तुओं में योजना[49], अनेकान्त में भी अनेकान्त का प्रतिपादन[50], हेतुलक्षण[51] वस्तु का स्वरूप[52], स्याद्वाद की संस्थापना[53], सर्वज्ञ की सिद्धि[54] आदि जैन दर्शन एवं जैन न्याय के आवश्यक अंगों एवं विषयों का भी प्रतिपादन किया, जो उनके पूर्व प्राय: उपलब्ध नहीं होता अथवा बहुत कम प्राप्त होता है। अतएव यह काल जैन दर्शन और जैन न्याय के विकास का आदिकाल है और इस काल को 'समन्तभद्रकाल' कहा जा सकता है, जैसा कि उपरिनिर्दिष्ट उनकी उपलब्धियों से अवगत होता है। नि:संदेह जैन दर्शन और जैन न्याय के लिए किया गया उनका यह महाप्रयास है।
- समन्तभद्र के इस कार्य को उनके उत्तरवर्ती श्रीदत्त, पूज्यपाद देवनन्दि, सिद्धसेन, मल्लवादी, सुमति, पात्रस्वामी आदि दार्शनिकों एवं तार्किकों ने अपनी महत्त्वपूर्ण रचनाओं द्वारा अग्रसारित किया। श्रीदत्त ने जो 63 वादियों के विजेता थे[55], जल्प-निर्णय, पूज्यपाद देवनंदि ने[56], सार-संग्रह, सर्वार्थसिद्धि, सिद्धसेन ने सन्मति, मल्लवादी ने द्वादशारनयचक्र, सुमतिदेव ने सन्मतिटीका और पात्रस्वामी ने त्रिलक्षणकदर्शन जैसी तार्किक कृतियों को रचा है। दुर्भाग्य से जल्पनिर्णय, सारसंग्रह, सन्मति टीका और त्रिलक्षणकदर्शन आज उपलब्ध नहीं है, केवल उनके ग्रंथों में तथा शिलालेखों में उल्लेख पाए जाते हैं। सिद्धसेन का सन्मति तर्क और मल्लवादी का द्वादशारनयचक्र उपलब्ध हैं, जो समंतभद्र की कृतियों के आभारी हैं।
- इस काल में और भी दर्शन एवं न्याय के ग्रंथ रचे गये होंगे, और जो आज हमें उपलब्ध नहीं हैं। बौद्ध, वैदिक और जैन शास्त्र भंडारों का अभी पूरी तरह अन्वेषण नहीं हुआ। अन्वेषण होने पर कोई ग्रंथ उनमें उपलब्ध हो जाए, यह संभव है। पहले अश्रुत एवं दुर्लभ 'सिद्धिविनिश्चय', 'प्रमाण-संग्रह', जैसे अनेक ग्रंथ कुछ दशक पूर्व प्राप्त हुए और अब वे भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुके हैं। जैन साधुओं में धर्म और दर्शन के ग्रंथों को रचने की प्रवृत्ति रहती थी। बौद्ध दार्शनिक शांतरक्षित[57] और उनके साक्षात शिष्य कमलशील ने[58] क्रमश: तत्वसंग्रह तथा उसकी टीका में जैन तार्किकों के तर्कग्रंथों के उद्धरण प्रस्तुत करके उनकी विस्तृत आलोचना की है। परन्तु वे ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं हैं।[59] इस तरह हम देखते हैं कि इस आदिकाल अथवा समंतभद्रकाल[60] में जैन दर्शन और जैन न्याय की एक योग्य एवं उत्तम भूमिका बन चुकी थी।
मध्यकाल अथवा अकलंक-काल
यह काल ई. सन् 650 से ई. सन् 1050 तक माना जाता है। इस काल के आरंभ में उक्त भूमिका पर जैन दर्शन और जैन न्याय का उत्तुंग एवं सर्वांगपूर्ण महान् प्रासाद जिस कुशल एवं तीक्ष्णबुद्धि तार्किक-शिल्पी ने खड़ा किया वह है सूक्ष्म प्रज्ञ-अकलंकदेव।
- अकलंकदेव के काल में भी आचार्य समंतभद्र से अधिक दार्शनिक मुठभेड़ थी। एक ओर शब्दाद्वैतवादी भृतहरि, प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिल, न्यायनिष्णात नैयायिक उद्योतकर आदि वैदिक विद्वान् जहाँ अपने-अपने पक्षों पर आरूढ़ थे, वहीं दूसरी ओर धर्मकीर्ति, उनके तर्कपटु शिष्य एवं समर्थ व्याख्याकार प्रज्ञाकर, धर्मोत्तर, कर्णकगोमि जैसे बौद्ध मनीषी भी अपनी मान्यताओं पर आग्रहबद्ध थे। शास्त्रार्थों और शास्त्रों के निर्माण की पराकाष्ठा थी। प्रत्येक दार्शनिक का प्रयत्न था कि जिस किसी तरह वह अपने पक्ष को सिद्ध करे और परपक्ष का निराकरण कर अपनी विजय प्राप्त करे। इसके अतिरिक्त परपक्ष को असद्प्रकारों से तिरस्कृत एवं पराजित किया जाता है। विरोधी को 'पशु', 'अह्नीक', 'जड़मति' जैसे अभद्र शब्दों का प्रयोग तो सामान्य था। यह काल जहाँ तर्क के विकास का मध्याह्न माना जाता है वहाँ इस काल में दर्शन और न्याय का बड़ा उपहास भी हुआ है। तत्त्व के संरक्षण के लिए छल, जाति, निग्रहस्थान जैसे असद साधनों का खुलकर प्रयोग करना और उन्हें स्वपक्षसिद्धि का साधन एवं शास्त्रार्थ का अंग मानना इस काल की देन बन गई थी।[61] क्षणिकवाद, नैरात्मवाद, शून्यवाद, शब्दाद्वैत-ब्रह्माद्वैत, विज्ञानाद्वैत आदि वादों का पुरज़ोर समर्थन इस काल में किया गया और कट्टरता से विपक्ष का निरास किया गया। सूक्ष्मदृष्टि अकलंक इस समग्र स्थिति का अध्ययन किया तथा सभी दर्शनों का गहरा एवं सूक्ष्म अभ्यास किया। तत्कालीन शिक्षा केन्द्रों- कांची, नालन्दा आदि विश्वविद्यालयों में प्रछन्न वेष में तत्त्वत्शास्त्रों का अध्ययन किया।
- समन्तभद्र द्वारा पुन: स्थापित स्याद्वाद और अनेकान्त को ठीक तरह से न समझने के कारण दिङ्नाग, धर्मकीर्ति आदि बौद्ध विद्वानों तथा उद्योतकर, कुमारिल आदि वैदिक मनीषियों ने अपनी एकान्त दृष्टि का समर्थन करते हुए स्याद्वाद और अनेकान्त की समीक्षा की अकलंक ने उनका उत्तर देने के लिए महाप्रयास करके दो अपूर्व कार्य किए।
- एक तो स्याद्वाद और अनेकान्त पर विपक्ष द्वारा किए गए आक्षेपों का सबल जवाब दिया।[62]
- दूसरा कार्य उन्होंने जैन दर्शन और जैन न्याय के चार महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का सृजन किया, जिनमें उन्होंने न केवल अनेकान्त और स्याद्वाद पर किए गए आक्षेपों का उत्तर दिया, अपितु उन सभी एकान्तपक्षों में दूषण भी प्रदर्शित किए तथा उनका अनेकान्त दृष्टि से समन्वय भी किया। उनके वे दोनों कार्य इस प्रकार हैं-
दूषणोद्धार
आप्तमीमांसा में समन्तभद्र ने आप्त की सर्वज्ञता और उनके उपदेश-स्याद्वाद (श्रुत) की सहेतुक सिद्धि की है।[63] दोनों में साक्षात (प्रत्यक्ष) और असाक्षात (परोक्ष) का भेद बतलाते हुए उन्होंने दोनों को सर्वतत्त्वप्रकाशक कहा है[64]। आप्त (अरहंत) और उनके उपदेश (स्याद्वाद) दोनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनमें अन्तर इतना ही है कि जहाँ आप्त वक्ता है वहाँ स्याद्वाद उनका वचन है। यदि वक्ता प्रमाण है तो उसका वचन भी प्रमाण माना जाता है। आप्तमीमांसा में 'अर्हत्' को युक्तिपुरस्सर आज्ञा-सिद्ध किया है। वचन ही में से वह भी प्रमाण है।
- मीमांसक कुमारिल को यह सह्य नहीं हुआ, क्योंकि वे किसी पुरुष को सर्वज्ञ स्वीकार नहीं करते। अतएव समन्तभद्र द्वारा मान्य 'अर्हत्' की सर्वज्ञता पर कुमारिल आपत्ति करते हुए कहते हैं[65]:-
एवं यै: केवलज्ञानमिन्द्रियाधनपेक्षिण:।
सूक्ष्मातीतादिविषयं जीवस्य परिकल्पितम्।
नर्ते तदागमात्सिद्ध्येन्न च तेनागमो विना॥
'जो सूक्ष्म तथा अतीत आदि विषयक अतीन्द्रिय केवलज्ञान जीव (पुरुष) के माना जाता है। वह आगम के बिना सिद्ध नहीं होता और आगम उसके बिना संभव नहीं, इस प्रकार दोनों में अन्योन्याश्रय दोष होने से न अर्हत् सर्वज्ञ हो सकता है और न उनका आगम (स्याद्वाद) ही सिद्ध हो सकता है।' यह 'अर्हत्' की सर्वज्ञता और उनके स्याद्वाद पर कुमारिल का एक साथ आक्षेप है। समन्तभद्र के उत्तरवर्ती जैन तार्किक आचार्य अकलंक ने कुमारिल के इस आक्षेप का जवाब देते हुए कहा हैं[66]:-
एवं यत्केवलज्ञानमनुमानविजृम्भितम्।
नर्ते तदागमात् सिद्ध्येन्न च तेन विनाऽऽगम:।
सत्यमर्थबलादेव पुरुषातिशयो मत:।
प्रभव: पौरुषेयोऽस्य प्रबन्धेऽनादिरिष्यते॥
- 'यह सत्य है कि अनुमान द्वारा सिद्ध केवलज्ञान (सर्वज्ञता) आगम के बिना और आगम केवलज्ञान के बिना सिद्ध नहीं होता, तथापि उनमें अन्योन्याश्रय नहीं है, क्योंकि पुरुषातिशय (केवलज्ञान) को अर्थबल (प्रतीतिवश) से माना जाता है। दोनों (केवलज्ञान और आगम) का प्रबन्ध (प्रवाह) बीजांकुर प्रबन्ध की तरह अनादि माना गया है। अत: उनमें अन्योन्याश्रय है। अतएव 'अर्हत्' की सर्वज्ञता और उनका उपदेश स्याद्वाद दोनों ही युक्तसिद्ध हैं।'
- समन्तभद्र ने जो अनुमान[67] से सर्वज्ञता (केवलज्ञान) की सिद्धि की है और जिसका कुमारिल ने उक्त प्रकार से आपत्ति उठाकर खण्डन किया है, अकलंकदेव ने उसी का बहुत विशदता के साथ सहेतुक उत्तर दिया है तथा सर्वज्ञता (केवलज्ञान) और आगम (स्याद्वाद) में बीजांकुर सन्तति की तरह अनादि प्रवाह बतलाया है।
- बौद्ध तार्किक धर्मकीर्ति ने भी स्याद्वाद पर निम्न प्रकार से आक्षेप किया है[68]:-
एतेनैव यत्किंचिदयुक्तमश्लीलमाकुलम्।
प्रलपन्ति प्रतिक्षिप्तं तदप्येकान्तसम्भवात्॥
- 'कपिल मत के खण्डन से ही अयुक्त, अश्लील और आकुल जो 'किंचित्' (स्यात्) का प्रलाप है वह खण्डित हो जाता है, क्योंकि वह भी एकान्त सम्भव है।' यहाँ धर्मकीर्ति ने स्पष्टतया समन्तभद्र के 'सर्वथा एकान्त के त्यागपूर्वक किंचित् के विधानरूप' स्याद्वाद लक्षण[69] का खण्डन किया है। समन्तभद्र से पूर्व जैन दर्शन में स्याद्वाद का इस प्रकार से लक्षण उपलब्ध नहीं होता। उनके पूर्ववर्ती आचार्य कुन्दकुन्द ने सप्तभंगों के नाम तो दिये हैं परन्तु स्याद्वाद की उन्होंने कोई परिभाषा अंकित नहीं की। यहाँ धर्मकीर्ति द्वारा खण्डन में प्रयुक्त 'तदप्येकान्त सम्भवात्' पद भी ध्यान देने योग्य है, जिससे ध्वनित होता है कि उनके समक्ष सर्वथा एकान्त के त्याग रूप स्याद्वाद की वह मान्यता रही है, जो 'किंचित्', 'कथाचित्' के विधान द्वारा व्यक्त की जाती थी, उसी का खण्डन धर्मकीर्ति ने 'तदप्येकान्तसम्भवात्'- वह भी एकान्त संभव है जैसे शब्दों द्वारा किया है। धर्मकीर्ति के इस आक्षेप का उत्तर समन्तभद्र के उत्तरवर्ती अकलंकदेव ने निम्न प्रकार दिया:-
ज्ञात्वा विज्ञप्तिमात्रं परमपि च बहिर्भासिभावप्रवादं,
चक्रे लोकानुरोधान् पुनरपि सकलं नेति तत्त्वं प्रपेदे।
न ज्ञाता तस्य तस्मिन् न च फलमपरं ज्ञायते नापि किंचित्,
इत्यश्लीलं प्रमत्त: प्रलपति जडधीराकुलं व्याकुलाप्त:॥
- 'कोई बौद्ध विज्ञप्तिमात्र तत्त्वको[70] मानते हैं, कोई बाह्य पदार्थ के सद्भाव को स्वीकार करते हैं तथा कोई इन दोनों को लोकदृष्टि से अंगीकार करते हैं और कोई कहते हैं कि न बाह्य तत्त्व है, न आभ्यन्तर तत्त्व है, न उनको जानने वाला है और न उसका अन्य फल है, ऐसा विरुद्ध प्रलाप करते हैं, उन्हें अश्लील, उन्मत्त, जड़बुद्धि, आकुल और आकुलताओं से व्याप्त कहा जाना चाहिए।' अकलंक ने स्याद्वाद पर किये गये धर्मकीर्ति के आक्षेप का 'सेर को सवा सेर' जैसा सबल उत्तर दिया है।
- एक दूसरी जगह 'अनेकान्त' (स्याद्वाद के वाच्य) पर भी धर्मकीर्ति उपहास पूर्वक आक्षेप करते हैं[71]:-
सर्वस्ययरूपत्वे तद्विशेषनिराकृते:।
चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्रं नाभिधावति॥
- 'यदि सब पदार्थ उभय रूप – अनेकान्तात्मक हैं, तो उनमें कुछ भेद न होने से किसी को 'दही खा' कहने पर वह ऊँट को खाने के लिए क्यों नहीं दौड़ता।' यहाँ धर्मकीर्ति ने जिस उपहास एवं व्यंग्य के साथ अनेकान्त की खिल्ली उड़ाई है, अकलंकदेव ने भी उसी उपहास के साथ धर्मकीर्ति को उत्तर दिया है[72]:-
दध्युष्ट्रादेरभेदत्व- प्रसंगादेकचोदनम्।
पूर्वपक्षमविज्ञाय दूषकोपि विदूषक:॥
सुगतोऽपि मृगो जातो मृगोऽपि सुगत: स्मृत:।
तथापि सुगतो बन्द्यो मृग: खाद्यो यथेष्यते॥
तथा वस्तुबलादेव भेदाभेदव्यवस्थिते:।
चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्रमभिधावति॥
- 'दही और ऊँट को एक बतलाकर दोष' देना धर्मकीर्ति का पूर्वपक्ष (अनेकान्त) को न समझना है और वे दूषक (दूषण प्रदर्शक) होकर भी विदूषक-दूषक नहीं, उपहास के ही पात्र हैं, क्योंकि सुगत भी पूर्व पर्याय में मृग थे और वह मृग भी सुगत हुआ, फिर भी सुगत वंदनीय और मृग भक्षणीय कहा गया है और इस तरह सुगत एवं मृग में पर्यायभेद से जिस प्रकार क्रमश: वंदनीय एवं भक्षणीय की भेद-व्यवस्था तथा एकचित्तसंतान की अपेक्षा से उनमें अभेद व्यवस्था की जाती है, उसी प्रकार वस्तुबल (प्रतीतिवश) से सभी पदार्थों में भेद और अभेद दोनों की व्यवस्था है। अत: किसी को 'दही खा' कहने पर वह ऊँट को खाने के लिए क्यों दौड़ेगा, क्योंकि सत् सामान्य की अपेक्षा उसे उनमें अभेद होने पर भी पर्याय (पृथक्-पृथक् प्रत्यय के विषय) की अपेक्षा से उनमें स्पष्टतया भेद है। संज्ञा-भेद भी है। एक का नाम दही है और दूसरे का नाम ऊँट है, तब जिसे दही खाने को कहा वह दही ही खायेगा, ऊँट को नहीं, क्योंकि दही भक्षणीय है, ऊँट भक्षणीय नहीं। जैसे सुगत वन्दनीय एवं मृग भक्षणीय है। यही वस्तु-व्यवस्था है। भेदाभेद (अनेकान्त) तो वस्तु का स्वरूप है, उसका अपलाप नहीं किया जा सकता।
- यहाँ अकलंक ने धर्मकीर्ति के आक्षेप का शालीन उपहासपूर्वक, किन्तु चुभने वाला करारा उत्तर दिया है। यह विदित है कि बौद्ध परम्परा में आप्त रूप से मान्य सुगत पूर्वजन्म में मृग थे, उस समय वे मांसभक्षियों के भक्ष्य थे। किन्तु जब वही पूर्ण पर्याय का मृग मरकर सुगत हुआ तो वह वंदनीय हो गया। इस प्रकार एकचित्त संतान की अपेक्षा उनमें अभेद है और मृग तथा सुगत इन दो पूर्वापर अवस्थाओं की दृष्टि से उनमें भेद है। इसी तरह जगत् की प्रत्येक वस्तु प्रत्यक्षदृष्ट भेदाभेद (अनेकान्त) को लिए हुए है। कोई वस्तु इस स्याद्वाद मुद्राकिंत अनेकान्त की अवहेलना नहीं कर सकती। इस तरह अकलंकदेव ने विभिन्न वादियों द्वारा स्याद्वाद और अनेकान्त पर आरोपित दूषणो का सयुक्तिक परिहार किया।
नव निर्माण
आचार्य अकलंकदेव का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य यह है कि जैन दर्शन और जैन न्याय के जिन आवश्यक तत्त्वों का विकास और प्रतिष्ठा उनके समय तक नहीं हो सकी थी, उनका उन्होंने विकास एवं प्रतिष्ठा की। इसके हेतु उन्होंने दर्शन और न्याय के निम्न चार महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया[73]-
- न्याय-विनिश्चय (स्वोपज्ञवृत्ति सहित)
- सिद्धि-विनिश्चय (स्वोपज्ञवृत्ति सहित)
- प्रमाण-संग्रह (स्वोपज्ञवृत्ति सहित)
- लघीयस्त्रय (स्वोपज्ञवृत्ति समन्वित)
- बौद्ध परम्परा में धर्मकीर्ति ने बौद्धदर्शन और बौद्धन्याय को प्रमाणवार्तिक एवं प्रमाणविनिश्चय जैसे कारिकात्मक ग्रन्थों के रूप में निबद्ध किया है उसी तरह अकलंकदेव ने भी ये चारों ग्रन्थ कारिकात्मक रूप में रचे हैं। न्याय-विनिश्चय में 430, सिद्धिविनिश्चय में 367, प्रमाणसंग्रह में 87 और लघीयस्त्रय में 78 कारिकाएं हैं चारों ग्रंथों की कुल कारिकाएं 962 हैं। प्रत्येक कारिका सूत्रात्मक, बहर्थगर्भ और गम्भीर है। चारों ग्रन्थ अत्यन्त क्लिष्ट और दुरूह हैं। इन चारों पर उनकी स्वोपज्ञवृत्तियों के अलावा वैदुष्यपूर्ण व्याख्याएं भी लिखी गयी हैं।
- न्यायविनिश्चय ग्रन्थ पर स्याद्वादविद्यापति आचार्य वादिराज[74] ने न्यायविनिश्चयालंकार अपरनाम न्यायविनिश्चयविवरण, सिद्धिविनिश्चय पर तार्किकशिरोमणि आचार्य बृहदनन्तवीर्य[75] ने सिद्धिविनिश्चयालंकार तथा इन्होंने ही प्रमाणसंग्रह पर प्रमाण संग्रहभाष्य और आचार्य माणिक्यनन्दि[76] के शिष्य आचार्य प्रभाचन्द्र[77] ने लघीयस्त्रय पर लघीयस्त्रयालंकार अपरनाम न्यायकुमुदचन्द्र नाम की विस्तृत एवं प्रौढ़ टीकाएं लिखी हैं। इनमें प्रमाण संग्रहभाष्य अनुपलब्ध है। शेष तीनों टीकाएं उपलब्ध हैं और अपने मूल के साथ प्रकाशित हैं। प्रमाण संग्रहभाष्य का उल्लेख स्वयं अनन्तवीर्य ने सिद्धिविनिश्चयालंकार में अनेक स्थलों पर किया है।[78] इससे प्रतीत होता है कि वह अधिक विस्तृत एवं महत्त्वपूर्ण व्याख्या रही है।
- अकलंकदेव ने इन चारों तर्क ग्रन्थों में अन्य दार्शनिकों की एकान्त मान्यताओं और सिद्धान्तों की कड़ी तथा मर्मस्पर्शी समीक्षा की है। जैन दर्शन में मान्य प्रमाण, नय और निक्षेप के स्वरूप, उनके भेद, विषय तथा प्रमाणफल का विवेचन इनमें विशदतया किया है। इसके अतिरिक्त जैन दृष्टि से किये गये प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष दो भेदों, प्रत्यक्ष के सांव्यावहारिक और मुख्य- इन दो प्रकारों की प्रतिष्ठा, परोक्ष प्रमाण के स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम- इन पांच भेदों में उपमान, अर्थापत्ति, संभव, अभाव आदि अन्य दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत प्रमाणों का अंतर्भाव, सर्वज्ञ की विविध युक्तियों से विशेष सिद्धि, अनुमान के साध्य-साधन अंगों के लक्षण और भेदों का विस्तृत निरूपण, कारण हेतु, पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर आदि अनिवार्य नये हेतओं की प्रतिष्ठा, अन्यथानुपपत्ति के अभाव से एक अकिंचित्कर हेत्वाभास का स्वीकार और उसके भेद रूप से असिद्धादि हेत्वाभासों का प्रतिपादन, जय-पराजय व्यवस्था, दृष्टान्त, धर्मी, वाद, जाति और निग्रहस्थान के स्वरूप आदि का कितना ही नया प्रतिष्ठापन करके जैन दर्शन और जैन न्याय को अकलंकदेव ने न केवल समृद्ध एवं परिपुष्ट किया, अपितु उन्हें भारतीय दर्शनों एवं न्यायों में वह प्रतिष्ठित एवं गौरवपूर्ण स्थान दिलाया, जो बौद्ध दर्शन और बौद्ध न्याय को धर्मकीर्ति ने दिलाया। अत: अकलंक को जैन दर्शन और जैन न्याय के मध्यकाल का प्रतिष्ठाता और इसीलिये उनके इस काल को 'अकलंककाल' कहा जा सकता है।
- अकलंकदेव ने जैन दर्शन और जैन न्याय को जो दिशा दी और उनका जो निर्धारण किया उसी का अनुगमन उत्तरवर्ती प्राय: सभी जैन दार्शनिकों एवं नैयायिकों ने किया है। हरिभद्र, वीरसेन, कुमारनंदि, विद्यानंद, अनंतवीर्यप्रथम, वादिराज, माणिक्यनंदि आदि मध्ययुगीन जैन तार्किकों ने उनके कार्य को आगे बढ़ाया और उसे यशस्वी एवं प्रभावपूर्ण बनाया। उनके गंभीर एवं सूत्रात्मक निरूपण और चिंतन को इन तार्किकों ने अपने ग्रंथों में सुविस्तृत, सुपुष्ट और सुप्रसारित करके बहुत महत्त्व दिया। हरिभद्र की अनेकांतजयपताका, शास्त्रवार्तासमुच्चय, वीरसेन की सिद्धान्त एवं तर्कबहुला ध्वला-जय-धवलाटीकाएँ, वादन्यायविचक्षण, कुमारनंदि का वादन्याय[79], विद्यानंद के आचार्य विद्यानंद महोदय[80], तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, युक्त्यनुशासनालंकार, अनंतवीर्य प्रथम की सिद्धिविनिश्चय टीका व प्रमाणसंग्रहभाष्य, वादिराज के न्याय-विनिश्चय विवरण, प्रमाण-निर्णय और माणिक्यनंदि का परीक्षामुख (आद्य जैन न्यायसूत्र), अकलंक के वाङमय से पूर्णतया प्रभावित एवं उसके आभारी तथा उल्लेखनीय दार्शनिक एवं तार्किक रचनाएं हैं, जिन्हें अकलंककाल (मध्यकाल) की महत्त्वपूर्ण देन कहा जा सकता है।
अन्त्यकाल (मध्य-उत्तरवर्ती) अथवा प्रभाचन्द्रकाल
यह काल जैन दर्शन और जैन न्याय के विकास का अंतिम काल कहा जाता है। इस काल में मौलिक ग्रंन्थों के निर्माण की क्षमता कम हो गई और व्याख्या ग्रंथों का निर्माण मुख्यतया हुआ। यह काल तार्किक ग्रंथों के सफल और प्रभावशाली व्याख्याकार जैन-तार्किक प्रभाचन्द्र से आरंभ होता है। उन्होंने इस काल में अपने पूर्ववर्ती जैन दार्शनिकों एवं तार्किकों का अनुगमन करते हुए जैन दर्शन और जैन न्याय के ग्रंथों पर जो विशालकाय व्याख्या ग्रंथ लिखे हैं वे अतुलनीय हैं। उत्तरकाल में उन जैसे व्याख्या ग्रंथ नहीं लिखे गए। अतएव इस काल को प्रभाचन्द्रकाल कहा गया है। प्रभाचन्द्र ने अकलंकदेव के लघीयस्त्रय पर लघीयस्त्रयालंकार अपरनाम न्यायकुमुदचन्द्र व्याख्या लिखी है।
- न्यायकुमुदचन्द्र वस्तुत: न्याय रूपी कुमुदों को विकसित करने वाला चन्द्र है। इसमें प्रभाचन्द्र ने अकलंक के लघीयस्त्रय की कारिकाओं और उसकी स्वोपज्ञवृत्ति तथा उनके दुरूह पदवाक्यादिकों की विशद एवं विस्तृत व्याख्या तो की ही है, किन्तु प्रसंगोपात्त विविध तार्किक चर्चाओं द्वारा अनेक अनुद्घाटित तथ्यों एवं विषयों पर भी नया प्रकाश डाला था। इसी तरह उन्होंने अकलंक के वाङमय-मंथन से प्रसूत माणिक्यनंदि के आद्य जैन न्यायसूत्र परीक्षामुख पर, जिसे 'न्यायविद्यामृत' कहा गया है[81] परीक्षामुखालंकार अपरनाम प्रमेयकमलमार्तण्ड नाम की प्रमेयबहुला एवं तर्कगर्भा व्याख्या रची है। इसमें भी प्रमाचन्द्र ने अपनी तर्कपूर्ण प्रतिभा का पूरा उपयोग किया है। परीक्षामुख के प्रत्येक सूत्र का विस्तृत एवं विशद व्याख्यान किया है। इसके साथ ही अनेक शंकाओं का सयुक्तिक समाधान प्रस्तुत किया है। मनीषियों को यह व्याखा ग्रन्थ इतना प्रिय है कि वे जैन दर्शन और जैन न्याय संबंधित प्रश्नों के समाधान के लिए इसे बड़ी रुचि से पढ़ते हैं और अपने समाधान प्राप्त कर लेते हैं। वस्तुत: प्रभाचन्द्र के ये दोनों व्याख्या ग्रन्थ मूल जैसे ही हैं, जो उनकी तर्कणा और यश को प्रसृत करते हैं।[82]
- आचार्य प्रभाचन्द्र के कुछ ही काल बाद अभयदेव ने सिद्धसेन के सन्मतिसूत्र पर विस्तृत सन्मतितर्क टीका लिखी है। यह टीका अनेकान्त और स्याद्वाद पर विशेष प्रकाश डालती है। देवसूरि का स्याद्वादरत्नाकर अपरनाम प्रमाण नयतत्त्वालोकालंकार टीका भी उल्लेखनीय है। ये दोनों व्याख्याएँ प्रभाचन्द्र की उपर्युक्त दोनों व्याख्याओं से प्रभावित एवं उनकी आभारी है। प्रभाचन्द्र की तर्कपद्धति और शैली इन दोनों में परिलक्षित है।
- इन व्याख्याओं के सिवाय इस काल में लघु अनंतवीर्य ने परीक्षामुख पर मध्यम परिणाम की परीक्षामुखवृत्ति अपरनाम प्रमेयरत्नमाला की रचना की है। यह वृत्ति मूलसूत्रों का तो व्याख्यान करती ही है, सृष्टिकर्त्ता जैसे वादग्रस्त विषयों पर भी अच्छा एवं विशद प्रकाश डालती है। लघीयस्त्रय पर लिखी अभयचन्द्र की लघीयस्त्रयतात्पर्यवृत्ति, हेमचन्द्र की प्रमाणमीमांसा, मल्लिषण सूरि की स्याद्वादमंजरी, आशाधर का प्रमेयरत्नाकर, भावसेन का विश्वतत्त्वप्रकाश, अजितसेन की न्यायमणिदीपिका, अभिनव-धर्मभूषणयति की न्यायदीपिका, नरेन्द्रसेन की प्रमाणप्रमेयकलिका, विमलदास की सप्तभंगीतरंगिणी, चारुकीर्ति के अर्थप्रकाशिका तथा प्रमेयरत्नालंकार, यशोविजय के अष्टसहस्रीविवरण, जैनतर्कभाषा और ज्ञानबिन्दु इस काल के उल्लेखनीय दार्शनिक एवं तार्किक महान् ग्रन्थ हैं।
- अंतिम तीन तार्किकों ने अपनी रचनाओं में नव्यन्यायशैली को भी अपनाया है, जो गंगेश उपाध्याय[83] से उद्भूत हुआ और पिछले तीन-चार दशक तक अध्ययन-अध्यापन में विद्यमान रहा। इसके बाद जैन दर्शन और जैन न्याय का कोई मौलिक या व्याख्या ग्रंथ लिखा गया हो, यह अज्ञात है। फलत: उत्तरकाल में जैन दर्शन और जैन न्याय का प्रवाह अवरुद्ध हो गया। यही स्थिति अन्य भारतीय दर्शनों एवं न्याय क्षेत्र की हुई है। उनके अध्ययन-अध्यापन और शास्त्रप्रणयन की जो प्राचीन परम्परा (पद्धति) थी क्रमश: ह्रास होता गया। किन्तु अब इन विधाओं का पुन: विकास आवश्यक है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवती 2-8, तित्थोगा0 801, सत्तरिसयठाण 327 तथा पं. दलसुख मालवणिया, आगमयुग का जैन दर्शन, पृ0 26, 27, सन्मति ज्ञानपीठ आ0 संस्क0 1966
- ↑ भूतबलि-पुष्पदन्त, षट्खण्डागम 1/1/79, धव0 पु0 1, पृ0 219
- ↑ भूतबलि-पुष्पदन्त, षट्खण्डागम, 1/2/50, धव0 पु0 3, पृ0 262
- ↑ भगवतीसूत्र 7, 2, 273 आदि
- ↑ कुन्दकुन्द, पंचास्तिकाय, गा0 13, 14
- ↑ अकलंक, त0 वा0, 1/20/12, पृ0 74, भा0ज्ञानपीठ संस्क0 1944
- ↑ यशोविजय, अष्टसहस्रीटीका, पृ0 1
- ↑ समन्तभद्र, स्वयम्भू, सम्भवजिनस्तोत्रश्लोक, 4(14), अरजिनस्तोत्र श्लोक 17(1.2) आप्तमी0 13
- ↑ अकलंक, लघीय0, मंगलपद्य 1
- ↑ द्वात्रिंशका, 1-30, 4-15
- ↑ विद्यानन्द, अष्टसहस्री पृ0 238
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- ↑ कुन्दकुन्द, पंचास्ति0 गा0 9-10
- ↑ पं. दलसुख मालवणिया, आगमयुग का जैन दर्शन, पं. 136, 137
- ↑ विधि
- ↑ तत्त्वार्थसूत्र 1-6, 10,11, 12, 31, 32 तथा 10-5, 6, 7, 8
- ↑ समग्र-समूहवस्तु
- ↑ शून्य
- ↑ आप्तमीमांसा कारिका 9, 10, 11
- ↑ आप्तमीमांसा कारिका,12
- ↑ आप्तमीमांसा कारिका, 24
- ↑ आप्तमीमांसा कारिका, 28
- ↑ आप्तमीमांसा कारिका, 41
- ↑ आप्तमीमांसा कारिका, 37
- ↑ भगवती सूत्र,1-9, 2-5, 59, 9-32 आदि उत्तराध्ययन (अध्ययन 23
- ↑ आप्तमीमांसा कारिका, 61, 69, 73, 76, 88, 89 आदि
- ↑ आगमयुग का जैन दर्शन (वादविद्याखण्ड), पृ0 170, 171
- ↑ आगमयुग का जैन दर्शन (वादविद्याखण्ड), पृ0 170, 171
- ↑ आप्तमीमांसा कारिका, 22।8. आप्तमीमांसा कारिका, 108
- ↑ आप्तमीमांसा कारिका, 14, 23, 34, 56, 57, 59, 60, 71, 72, 75, 78, 83, 91, 96, 98
- ↑ अकलंक, अष्टशती, मंगलपद्य 2
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- ↑ आप्तमीमांसा कारिका, 104, युक्त्यनुशा0 का0 45, स्वयम्भू का0 101, 118 आदि
- ↑ आप्तमीमांसा कारिका, 104, 23
- ↑ आप्तमीमांसा कारिका, 14, 15, 16, 17, 18, 19, 20, 22
- ↑ आप्तमीमांसा कारिका, 9, 10, 11, 12, 13, 14, 20
- ↑ स्वभावोऽतर्कगोचर:
- ↑ आप्तमीमांसा कारिका, 16, अवक्तव्योत्तरा, शेषास्त्रयोभङ्गा स्वहेतुत:
- ↑ डॉ. दरबारी लाला कोठिया, जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परि0, पृ0 173
- ↑ आप्तमीमांसा कारिका, 24,25,26,27,28 से 36
- ↑ आप्तमीमांसा कारिका, 56, 57, 58, 59, 60
- ↑ आप्तमीमांसा कारिका, 108
- ↑ पं. जुगल किशोर मुख्तार, स्वयम्भू. प्रस्तावना, पृ0 94
- ↑ पं. जुगल किशोर मुख्तार, स्वयम्भू., प्रस्तावना, पृ0 103, वीरसेवामन्दिर, दिल्ली, ई. 1951
- ↑ तत्वं त्वनेकान्तमशेषरूपम् युक्त्यनुशा. का. 46
- ↑ स्वयम्भू0 का0 63, आप्तमी0 का0 101
- ↑ आप्तमी0 107, 102, 106, 23
- ↑ आप्तमी0 107, 102, 106, 23
- ↑ आप्तमी0 107, 102, 106, 23
- ↑ आप्तमी0 107, 102, 106, 23।
- ↑ स्वयम्भू 103
- ↑ आप्तमी0 का0 106
- ↑ वही, का0 107
- ↑ आप्तमी0 का0 1-4, 113
- ↑ आप्तमी0 का0 5
- ↑ ई. 7वीं, 8वीं शती
- ↑ त्रिषष्ठेर्वादिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये तत्त्वार्थश्लोक, पृ0 28
- ↑ इन्होंने समन्तभद्र के रत्नकरण्डक श्रावकाचार श्लोक 84, 85, 86 का आधार अपनी सर्वार्थसिद्धि 6-1 की व्याख्या में लिया है।
- ↑ ई. 200 से ई. 650
- ↑ तत्त्वसंग्रह का0 1364 से 1379 तक 16 कारिकाएँ दृष्टव्य है
- ↑ उदाहरण के लिए श्रवणवेलगोला के शिलालेख नं0 54/67 में सुमन्तिदेव के सुमतिसप्तक नाम के एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का उल्लेख है, पर वह अनुपलब्ध है।
- ↑ न्यायसूत्र 1/1/1, 4/2/50, 1/2/2,3,4 आदि का भाष्य व न्या0 वा0
- ↑ न्यायविनिश्चय, का0 1, 412, 413, 372, 373, 374
- ↑ आप्तमी0 का0 5, 113
- ↑ आप्तमी0 का0, 105
- ↑ आप्तमीमांसा कारिका 4, 5, 6
- ↑ मीमांसाश्लोक0, श्लोक 87, 88
- ↑ आप्तमी0 104
- ↑ न्यायविनिश्चय, का0 170
- ↑ अकलंकग्रन्थत्रय, न्यायवि0 का0 412, 413
- ↑ धर्मकीर्ति, प्रमाणवार्तिक 1-182, 183
- ↑ न्यायविनिश्चय, का0 373, 374
- ↑ ई. 1025
- ↑ ई. 850
- ↑ ई. 1028
- ↑ ई. 1043
- ↑ कुमारनन्दिनश्चाहुर्वादन्यायविचक्षणा:- विद्यानन्द, ल0 श्लो0 पृ0 280, तथैवहि कुमारनन्दिभट्टारकेरपि स्ववादन्याये निगदित्वात्तदाह-विद्यानन्द, पत्र परीक्षा पृ0 5, जैन तर्क0 अनु0 पृ0 164 टि0
- ↑ इति चर्चितं प्रमाणसग्रहभाष्ये -'सिद्धि वि0 लिखित पृ0 12 इत्युक्तं प्रमाणसंग्रहालंकारे' वही, पृ0 19,जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र-परिशीलन, पृ0 250 का टिप्पणी, लेखक कृत
- ↑ इसका उल्लेख विद्यानन्द ने त0श्लो0 वा0 पृ0 272, 385, अष्ट सं0 पृ0 289, 290 में किया है, जो वर्तमान में अनुपलब्ध है और जिसका उल्लेख विद्यानन्द से तीन-चार सौ वर्ष बाद होने वाले देवसूरि (13वीं शती) ने भी स्याद्धादरत्नाकर पृ0 249 में किया है।
- ↑ लघु अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला, श्लोक 2, 3
- ↑ लघु अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला, श्लोक 2, 3
- ↑ 12वीं शती
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