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*इस पर प्रभाचन्द्र ने 'प्रमेयकमलमार्त्तण्ड', लघुअनन्तवीर्य ने 'प्रमेयरत्नमाला', [[अजितसेन]] ने 'न्यायमणिदीपिका', चारुकीर्ति नाम के एक या दो विद्वानों ने 'अर्थप्रकाशिका' और 'प्रमेयरत्नालंकार' नाम की टीकाएँ लिखी हैं।  
 
*इस पर प्रभाचन्द्र ने 'प्रमेयकमलमार्त्तण्ड', लघुअनन्तवीर्य ने 'प्रमेयरत्नमाला', [[अजितसेन]] ने 'न्यायमणिदीपिका', चारुकीर्ति नाम के एक या दो विद्वानों ने 'अर्थप्रकाशिका' और 'प्रमेयरत्नालंकार' नाम की टीकाएँ लिखी हैं।  
 
*इससे इस 'परीक्षामुख' का महत्त्व प्रकट है।
 
*इससे इस 'परीक्षामुख' का महत्त्व प्रकट है।
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10:23, 21 मार्च 2011 का अवतरण

आचार्य माणिक्यनन्दि

  • ये नन्दिसंघ के प्रमुख आचार्य थे।
  • इनके गुरु रामनन्दि दादागुरु वृषभनन्दि और परदादागुरु पद्मनन्दि थे। इनके कई शिष्य हुए।
  • आद्य विद्या-शिष्य नयनन्दि थे, जिन्होंने 'सुदंसणचरिउ' एवं 'सयलविहिविहान' इन अपभ्रंश रचनाओं से अपने को उनका आद्य विद्या-शिष्य तथा उन्हें 'पंडितचूड़ामणि' एवं 'महापंडित' कहा है।
  • नयनन्दि[1] ने अपनी गुरु-शिष्य परम्परा उक्त दोनों ग्रन्थों की प्रशस्तियों में दी है।
  • इनके तथा अन्य प्रमाणों के अनुसार माणिक्यनन्दि का समय ई. 1028 अर्थात 11वीं शताब्दी सिद्ध है।
  • प्रभाचन्द्र[2] ने न्याय शास्त्र इन्हीं माणिक्यनन्दि से पढ़ा था तथा उनके 'परीक्षामुख' पर विशालकाय 'प्रमेयकमलमार्त्तण्ड' नाम की व्याख्या लिखी थी, जिसके अन्त में उन्होंने भी माणिक्यनन्दि को अपना गुरु बताया है।
  • माणिक्यनन्दि का 'परीक्षामुख' सूत्रबद्ध ग्रन्थ न्यायविद्या का प्रवेश द्वार है।
  • ख़ास कर अकलंकदेव के जटिल न्याय-ग्रन्थों में प्रवेश करने के लिए यह निश्चय ही द्वार है।
  • तात्पर्य यह कि अकलंकदेव ने जो अपने कारिकात्मक न्यायविनिश्चयादि न्याय ग्रन्थों में दुरूह रूप में जैन न्याय को निबद्ध किया है, उसे गद्य-सूत्रबद्ध करने का श्रेय इन्हीं आचार्य माणिक्यनन्दि को है।
  • इन्होंने जैन न्याय को इसमें बड़ी सरल एवं विषद भाषा में उसी प्रकार ग्रंथित किया है जिस प्रकार मालाकार माला में यथायोग्य स्थान पर प्रवाल, रत्न आदि को गूंथता है।
  • इस पर प्रभाचन्द्र ने 'प्रमेयकमलमार्त्तण्ड', लघुअनन्तवीर्य ने 'प्रमेयरत्नमाला', अजितसेन ने 'न्यायमणिदीपिका', चारुकीर्ति नाम के एक या दो विद्वानों ने 'अर्थप्रकाशिका' और 'प्रमेयरत्नालंकार' नाम की टीकाएँ लिखी हैं।
  • इससे इस 'परीक्षामुख' का महत्त्व प्रकट है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वि0 सं0 1100, ई. 1043
  2. ई. 1053

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