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'''संवरण''' [[हस्तिनापुर]] के प्रतापी राजा थे। वे राजा अजमीढ़ के वंशज थे। सुदास का संवरण से युद्ध हुआ था, जिसे कुछ विद्वान [[ऋग्वेद]] में वर्णित '[[दाशराज्ञ युद्ध]]' मानते हैं। राजा सुदास के समय [[पंचाल|पंचाल राज्य]] का समुचित विस्तार हुआ था। बाद में संवरण के पुत्र '[[कुरु]]' ने शक्ति बढ़ाकर पंचाल राज्य को अपने अधीन कर लिया, तभी से यह राज्य संयुक्त रूप से 'कुरु-पंचाल' कहलाया।
'''संवरण''' [[हस्तिनापुर]] के प्रतापी राजा थे। वे राजा अजमीढ़ के वंशज थे। सुदास का संवरण से युद्ध हुआ था, जिसे कुछ विद्वान [[ऋग्वेद]] में वर्णित 'दाशराज्ञ युद्ध' मानते हैं। राजा सुदास के समय [[पंचाल|पंचाल राज्य]] का समुचित विस्तार हुआ था। बाद में संवरण के पुत्र '[[कुरु]]' ने शक्ति बढ़ाकर पंचाल राज्य को अपने अधीन कर लिया, तभी से यह राज्य संयुक्त रूप से 'कुरु-पंचाल' कहलाया।
==परिचय==
==परिचय==
[[हिन्दू]] धार्मिक ग्रंथ '[[महाभारत]]' के अनुसार [[हस्तिनापुर]] में एक प्रतापी राजा था, जिसका नाम संवरण था। संवरण [[वेद|वेदों]] को मानने वाला और [[सूर्यदेव]] का उपासक था। वह जब तक सूर्यदेव की उपासना नहीं कर लेता था, [[जल]] का एक घूंट भी कंठ के नीचे नहीं उतारता था।
[[हिन्दू]] धार्मिक ग्रंथ '[[महाभारत]]' के अनुसार [[हस्तिनापुर]] में एक प्रतापी राजा था, जिसका नाम संवरण था। संवरण [[वेद|वेदों]] को मानने वाला और [[सूर्यदेव]] का उपासक था। वह जब तक सूर्यदेव की उपासना नहीं कर लेता था, [[जल]] का एक घूंट भी कंठ के नीचे नहीं उतारता था।
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उसके विलाप के बाद युवती पुन: प्रकट हुई। वह संवरण की ओर देखती हुई बोली- "राजन! मैं स्वयं आप पर मुग्ध हूँ, किंतु मैं अपने [[पिता]] की आज्ञा के वश में हूँ। मैं सूर्यदेव की छोटी पुत्री हूँ। मेरा नाम [[तपती|ताप्ती]]<ref>कहीं-कहीं इसे 'तपती' भी कहा गया है।</ref> है। जब तक मेरे पिता आज्ञा नहीं देंगे, मैं आपके साथ [[विवाह]] नहीं कर सकती। यदि आपको मुझे पाना है तो मेरे पिता को प्रसन्न कीजिए।" युवती अपने कथन को समाप्त करती हुई पुन: अदृश्य हो गई। संवरण पुन: विलाप करने लगा। वह बेसुध होकर ताप्ती को पुकारते-पुकारते गिर पड़ा और बेहोश हो गया। होश में आने पर उसे ताप्ती के द्वारा कही गई बातें याद आईं और वह मन ही मन सोचता रहा कि वह ताप्ती को पाने के लिए [[सूर्यदेव]] की आराधना करेगा।
उसके विलाप के बाद युवती पुन: प्रकट हुई। वह संवरण की ओर देखती हुई बोली- "राजन! मैं स्वयं आप पर मुग्ध हूँ, किंतु मैं अपने [[पिता]] की आज्ञा के वश में हूँ। मैं सूर्यदेव की छोटी पुत्री हूँ। मेरा नाम [[तपती|ताप्ती]]<ref>कहीं-कहीं इसे 'तपती' भी कहा गया है।</ref> है। जब तक मेरे पिता आज्ञा नहीं देंगे, मैं आपके साथ [[विवाह]] नहीं कर सकती। यदि आपको मुझे पाना है तो मेरे पिता को प्रसन्न कीजिए।" युवती अपने कथन को समाप्त करती हुई पुन: अदृश्य हो गई। संवरण पुन: विलाप करने लगा। वह बेसुध होकर ताप्ती को पुकारते-पुकारते गिर पड़ा और बेहोश हो गया। होश में आने पर उसे ताप्ती के द्वारा कही गई बातें याद आईं और वह मन ही मन सोचता रहा कि वह ताप्ती को पाने के लिए [[सूर्यदेव]] की आराधना करेगा।
==सूर्यदेव द्वारा परीक्षा==
==सूर्यदेव द्वारा परीक्षा==
संवरण उसी स्थान पर सूर्यदेव की आराधना करने लगा। धीरे-धीरे वर्षों बीत गए, संवरण तप करता रहा। अंत में सूर्यदेव के मन में संवरण की परीक्षा लेने का विचार उत्पन्न हुआ। रात्रि के समय संवरण आंखें बंद किए हुए ध्यानमग्न बैठा था। चारों ओर सन्नाटा था। तभी उसके कानों में किसी का स्वर सुनाई दिया- "संवरण, तू यहाँ तप में संलग्न है। तेरी राजधानी [[अग्नि]] में जल रही है।" संवरण बिल्कुल शांत अपनी जगह पर बैठा रहा। उसके मन में रंचमात्र भी दु:ख पैदा नहीं हुआ। उसके कानों में पुन: दूसरा स्वर गूँजा- "संवरण, तेरे कुटुंब के सभी लोग अग्नि में जलकर मर गए।" किंतु फिर भी वह [[हिमालय]] सा दृढ़ होकर अपनी जगह पर बैठा रहा। उसके कानों में पुन: तीसरी बार कंठ-स्वर पड़ा- "संवरण, तेरी प्रजा [[अकाल]] की अग्नि में जलकर भस्म हो रही है। तेरे नाम को सुनकर लोग थू-थू  रहे हैं।" फिर भी वह दृढ़तापूर्वक तप में लगा रहा। उसकी दृढ़ता पर सूर्यदेव प्रसन्न हो उठे और उन्होंने प्रकट होकर कहा- "संवरण, मैं तुम्हारी दृढ़ता पर मुग्ध हूँ। बोलो, तुम्हें क्या चाहिए?" संवरण सूर्यदेव को प्रणाम करता हुआ बोला- "देव! मुझे आपकी पुत्री ताप्ती को छोड़कर और कुछ नहीं चाहिए। कृपा करके मुझे ताप्ती को देकर मेरे जीवन को कृतार्थ कीजिए।" सूर्यदेव ने प्रसन्नता की मुद्रा में उत्तर दिया, 'तथास्तु।'
संवरण उसी स्थान पर सूर्यदेव की आराधना करने लगा। धीरे-धीरे वर्षों बीत गए, संवरण तप करता रहा। अंत में सूर्यदेव के मन में संवरण की परीक्षा लेने का विचार उत्पन्न हुआ। रात्रि के समय संवरण आँखें बंद किए हुए ध्यानमग्न बैठा था। चारों ओर सन्नाटा था। तभी उसके कानों में किसी का स्वर सुनाई दिया- "संवरण, तू यहाँ तप में संलग्न है। तेरी राजधानी [[अग्नि]] में जल रही है।" संवरण बिल्कुल शांत अपनी जगह पर बैठा रहा। उसके मन में रंचमात्र भी दु:ख पैदा नहीं हुआ। उसके कानों में पुन: दूसरा स्वर गूँजा- "संवरण, तेरे कुटुंब के सभी लोग अग्नि में जलकर मर गए।" किंतु फिर भी वह [[हिमालय]] सा दृढ़ होकर अपनी जगह पर बैठा रहा। उसके कानों में पुन: तीसरी बार कंठ-स्वर पड़ा- "संवरण, तेरी प्रजा [[अकाल]] की अग्नि में जलकर भस्म हो रही है। तेरे नाम को सुनकर लोग थू-थू  रहे हैं।" फिर भी वह दृढ़तापूर्वक तप में लगा रहा। उसकी दृढ़ता पर सूर्यदेव प्रसन्न हो उठे और उन्होंने प्रकट होकर कहा- "संवरण, मैं तुम्हारी दृढ़ता पर मुग्ध हूँ। बोलो, तुम्हें क्या चाहिए?" संवरण सूर्यदेव को प्रणाम करता हुआ बोला- "देव! मुझे आपकी पुत्री ताप्ती को छोड़कर और कुछ नहीं चाहिए। कृपा करके मुझे ताप्ती को देकर मेरे जीवन को कृतार्थ कीजिए।" सूर्यदेव ने प्रसन्नता की मुद्रा में उत्तर दिया, 'तथास्तु।'
==कुरु का जन्म==
==कुरु का जन्म==
संवरण अपनी पत्नी ताप्ती के साथ उसी दूसरे राज्य के सुंदर क्षेत्र में रहने लगा और राग-रंग में अपनी प्रजा और राज्य को भी भूल गया। उधर संवरण के राज्य में भीषण अकाल पैदा हुआ और जैसा-जैसा सूर्यदेव ने कहा था, वैसा-वैसा होने लगा। संवरण के मंत्री ने अपने राजा की खोज की और उन्हें राज्य का संपूर्ण हाल बताया। मंत्री ने अपनी बुद्धिमानी से संवरण को स्वप्नलोक से बाहर निकाला और अपने राज्य के प्रति जिम्मेदारी का अहसास कराया। मंत्री की बातें सुनकर संवरण का [[हृदय]] कांप गया और उसे इस बात का बोध होने लगा की मैंने एक स्त्री के प्रति आसक्त होकर अपनी प्रजा और राज्य को छोड़ दिया। संवरण ने कहा- "मंत्रीजी। मैं आपका कृतज्ञ हूँ, आपने मुझे जगाकर बहुत अच्छा किया।" संवरण ताप्ती के साथ अपनी राजधानी पहुँचा। उसके राजधानी में पहुँचते ही जोरों की [[वर्षा]] हुई। सूखी हुई [[पृथ्वी]] हरियाली से ढंक गई। अकाल दूर हो गया। प्रजा सुख और शांति के साथ जीवन व्यतीत करने लगी। वह संवरण को परमात्मा और ताप्ती को देवी मानकर दोनों की [[पूजा]] करने लगी। संवरण और ताप्ती से ही '[[कुरु]]' का जन्म हुआ।
संवरण अपनी पत्नी ताप्ती के साथ उसी दूसरे राज्य के सुंदर क्षेत्र में रहने लगा और राग-रंग में अपनी प्रजा और राज्य को भी भूल गया। उधर संवरण के राज्य में भीषण अकाल पैदा हुआ और जैसा-जैसा सूर्यदेव ने कहा था, वैसा-वैसा होने लगा। संवरण के मंत्री ने अपने राजा की खोज की और उन्हें राज्य का संपूर्ण हाल बताया। मंत्री ने अपनी बुद्धिमानी से संवरण को स्वप्नलोक से बाहर निकाला और अपने राज्य के प्रति जिम्मेदारी का अहसास कराया। मंत्री की बातें सुनकर संवरण का [[हृदय]] कांप गया और उसे इस बात का बोध होने लगा की मैंने एक स्त्री के प्रति आसक्त होकर अपनी प्रजा और राज्य को छोड़ दिया। संवरण ने कहा- "मंत्रीजी। मैं आपका कृतज्ञ हूँ, आपने मुझे जगाकर बहुत अच्छा किया।" संवरण ताप्ती के साथ अपनी राजधानी पहुँचा। उसके राजधानी में पहुँचते ही जोरों की [[वर्षा]] हुई। सूखी हुई [[पृथ्वी]] हरियाली से ढंक गई। अकाल दूर हो गया। प्रजा सुख और शांति के साथ जीवन व्यतीत करने लगी। वह संवरण को परमात्मा और ताप्ती को देवी मानकर दोनों की [[पूजा]] करने लगी। संवरण और ताप्ती से ही '[[कुरु]]' का जन्म हुआ।

05:11, 4 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

संवरण हस्तिनापुर के प्रतापी राजा थे। वे राजा अजमीढ़ के वंशज थे। सुदास का संवरण से युद्ध हुआ था, जिसे कुछ विद्वान ऋग्वेद में वर्णित 'दाशराज्ञ युद्ध' मानते हैं। राजा सुदास के समय पंचाल राज्य का समुचित विस्तार हुआ था। बाद में संवरण के पुत्र 'कुरु' ने शक्ति बढ़ाकर पंचाल राज्य को अपने अधीन कर लिया, तभी से यह राज्य संयुक्त रूप से 'कुरु-पंचाल' कहलाया।

परिचय

हिन्दू धार्मिक ग्रंथ 'महाभारत' के अनुसार हस्तिनापुर में एक प्रतापी राजा था, जिसका नाम संवरण था। संवरण वेदों को मानने वाला और सूर्यदेव का उपासक था। वह जब तक सूर्यदेव की उपासना नहीं कर लेता था, जल का एक घूंट भी कंठ के नीचे नहीं उतारता था।

ताप्ती से भेंट

एक दिन संवरण हिम पर्वत पर हाथ में धनुष-बाण लेकर आखेट के लिए भ्रमण कर रहा था, तभी उसे एक अत्यंत सुंदर युवती दिखाई दी। वह युवती इतनी सुंदर थी कि संवरण उस पर आसक्त हो गया। वह उसके पास जाकर बोला- "तन्वंगी, तुम कौन हो? तुम देवी हो, गंधर्व हो या किन्नरी हो? तुम्हें देखकर मेरा चित्त चंचल और व्याकुल हो उठा। क्या तुम मेरे साथ गंधर्व विवाह करोगी? मैं सम्राट हूँ, तुम्हें हर तरह से सुखी रखूँगा।" युवती ने एक क्षण संवरण को देखा और फिर वह अदृश्य हो गई। युवती के अदृश्य हो जाने पर संवरण अत्यधिक व्याकुल हो गया। वह धनुष-बाण फेंककर उन्मत्तों की भांति विलाप करने लगा।

उसके विलाप के बाद युवती पुन: प्रकट हुई। वह संवरण की ओर देखती हुई बोली- "राजन! मैं स्वयं आप पर मुग्ध हूँ, किंतु मैं अपने पिता की आज्ञा के वश में हूँ। मैं सूर्यदेव की छोटी पुत्री हूँ। मेरा नाम ताप्ती[1] है। जब तक मेरे पिता आज्ञा नहीं देंगे, मैं आपके साथ विवाह नहीं कर सकती। यदि आपको मुझे पाना है तो मेरे पिता को प्रसन्न कीजिए।" युवती अपने कथन को समाप्त करती हुई पुन: अदृश्य हो गई। संवरण पुन: विलाप करने लगा। वह बेसुध होकर ताप्ती को पुकारते-पुकारते गिर पड़ा और बेहोश हो गया। होश में आने पर उसे ताप्ती के द्वारा कही गई बातें याद आईं और वह मन ही मन सोचता रहा कि वह ताप्ती को पाने के लिए सूर्यदेव की आराधना करेगा।

सूर्यदेव द्वारा परीक्षा

संवरण उसी स्थान पर सूर्यदेव की आराधना करने लगा। धीरे-धीरे वर्षों बीत गए, संवरण तप करता रहा। अंत में सूर्यदेव के मन में संवरण की परीक्षा लेने का विचार उत्पन्न हुआ। रात्रि के समय संवरण आँखें बंद किए हुए ध्यानमग्न बैठा था। चारों ओर सन्नाटा था। तभी उसके कानों में किसी का स्वर सुनाई दिया- "संवरण, तू यहाँ तप में संलग्न है। तेरी राजधानी अग्नि में जल रही है।" संवरण बिल्कुल शांत अपनी जगह पर बैठा रहा। उसके मन में रंचमात्र भी दु:ख पैदा नहीं हुआ। उसके कानों में पुन: दूसरा स्वर गूँजा- "संवरण, तेरे कुटुंब के सभी लोग अग्नि में जलकर मर गए।" किंतु फिर भी वह हिमालय सा दृढ़ होकर अपनी जगह पर बैठा रहा। उसके कानों में पुन: तीसरी बार कंठ-स्वर पड़ा- "संवरण, तेरी प्रजा अकाल की अग्नि में जलकर भस्म हो रही है। तेरे नाम को सुनकर लोग थू-थू रहे हैं।" फिर भी वह दृढ़तापूर्वक तप में लगा रहा। उसकी दृढ़ता पर सूर्यदेव प्रसन्न हो उठे और उन्होंने प्रकट होकर कहा- "संवरण, मैं तुम्हारी दृढ़ता पर मुग्ध हूँ। बोलो, तुम्हें क्या चाहिए?" संवरण सूर्यदेव को प्रणाम करता हुआ बोला- "देव! मुझे आपकी पुत्री ताप्ती को छोड़कर और कुछ नहीं चाहिए। कृपा करके मुझे ताप्ती को देकर मेरे जीवन को कृतार्थ कीजिए।" सूर्यदेव ने प्रसन्नता की मुद्रा में उत्तर दिया, 'तथास्तु।'

कुरु का जन्म

संवरण अपनी पत्नी ताप्ती के साथ उसी दूसरे राज्य के सुंदर क्षेत्र में रहने लगा और राग-रंग में अपनी प्रजा और राज्य को भी भूल गया। उधर संवरण के राज्य में भीषण अकाल पैदा हुआ और जैसा-जैसा सूर्यदेव ने कहा था, वैसा-वैसा होने लगा। संवरण के मंत्री ने अपने राजा की खोज की और उन्हें राज्य का संपूर्ण हाल बताया। मंत्री ने अपनी बुद्धिमानी से संवरण को स्वप्नलोक से बाहर निकाला और अपने राज्य के प्रति जिम्मेदारी का अहसास कराया। मंत्री की बातें सुनकर संवरण का हृदय कांप गया और उसे इस बात का बोध होने लगा की मैंने एक स्त्री के प्रति आसक्त होकर अपनी प्रजा और राज्य को छोड़ दिया। संवरण ने कहा- "मंत्रीजी। मैं आपका कृतज्ञ हूँ, आपने मुझे जगाकर बहुत अच्छा किया।" संवरण ताप्ती के साथ अपनी राजधानी पहुँचा। उसके राजधानी में पहुँचते ही जोरों की वर्षा हुई। सूखी हुई पृथ्वी हरियाली से ढंक गई। अकाल दूर हो गया। प्रजा सुख और शांति के साथ जीवन व्यतीत करने लगी। वह संवरण को परमात्मा और ताप्ती को देवी मानकर दोनों की पूजा करने लगी। संवरण और ताप्ती से ही 'कुरु' का जन्म हुआ।


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  1. कहीं-कहीं इसे 'तपती' भी कहा गया है।