"द्रौपदी": अवतरणों में अंतर

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*युद्ध की समाप्ति पर जब [[पांडव]], द्रौपदी, श्री[[कृष्ण]], [[सात्यकि]] आदि शिविर में न ठहरकर ओधवती नदी के तट पर रात बिताकर उठे तो उन्हें [[अश्वत्थामा]] के किये पांचाल-संहार का समाचार मिला। द्रौपदी अपने मायके के समस्त नाते-रिश्तों के नष्ट होने के विषय में सुनकर बहुत दुखी हुई तथा उसने आमरण अनशन आरंभ कर दिया। उसने कहा कि अश्वत्थामा के मस्तक में उसके जन्म के साथ उत्पन्न हुई एक मणि है। यदि मुझे मणि नहीं दी जायेगी तो मैं भोजन नहीं करूंगी और प्राण त्याग दूंगी। मणि मिलने पर मैं उसे देख लूंगी। भीमसेन अत्यंत आवेग में अश्वत्थामा को मारने के लिए चल पड़े। श्रीकृष्ण यह जानते थे कि अश्वत्थामा को द्रोण ने ब्रह्मास्त्र का उपदेश रखा है। यद्यपि उन्होंने अर्जुन को पूर्ण रूपेण ब्रह्मास्त्र प्रदान किया था। पूर्वकाल में अश्वत्थामा ने स्वयं कृष्ण को यह बताया था और यह भी कहा था कि वे अपना सुदर्शन चक्र उसे दे दें तो वह ब्रह्मास्त्र उन्हें प्रदान कर देगा। श्रीकृष्ण ने मुस्कराकर उसे कहा कि वह कृष्ण का कोई भी अस्त्र ग्रहण कर ले। अश्वत्थामा अनेक प्रयत्नों के उपरांत भी सुदर्शन चक्र को नहीं उठा पाया- लज्जित होकर लौट गया था। अत: अर्जुन और युधिष्ठिर को लेकर वे भी भीम के पीछे अश्वत्थामा के पास पहुंचे। अश्वत्थामा ने पांडवों को नष्ट करने के लिए एक तिनके में ब्रह्मास्त्र का आवाहन किया। वह तिनका भयानक रूप से प्रज्वलित हो उठा। अर्जुन ने अश्वत्थामा की मंगलकामना के साथ उसके ब्रह्मास्त्र को नष्ट करने के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। इससे पूर्व कि दोनों अस्त्र एक-दूसरे को नष्ट कर भयानक विस्फोट करते, [[नारद]] तथा [[व्यास]] ने प्रकट होकर दोनों वीरों को शांत होने का आदेश दिया क्योंकि मनुष्य पर उसका प्रयोग वर्जित है। अर्जुन अपने अस्त्र को लौटाने में समर्थ थे, अत: उन्होंने लौटा लिया किंतु अश्वत्थामा ने हाथ जोड़कर कहा कि वे लौटाने की शक्ति से संपन्न नहीं हैं। व्यास तथा नारद ने दोनों के अस्त्र छोड़ने के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए अश्वत्थामा से कहा कि वे अस्त्र का परिहार करें। अश्वत्थामा अत्यंत लज्जित होकर बोले कि वे इसमें असमर्थ हैं, क्योंकि पांडवों पर न छूटकर यह अस्त्र पांडवों के गर्भस्थ शिशुओं का नाश करेगा। व्यास की आज्ञा का पालन करते हुए अश्वत्थामा ने अपने मस्तिष्क की मणि भी पांडवों को अर्पित कर दी। वह समस्त राज्य से अधिक मूल्यवान तथा शस्त्र, क्षुधा, [[देवता]], दानव, नाग, व्याधि, आदि से रक्षा करनेवाली थी। श्रीकृष्ण ने पुन: कहा कि [[विराट]] की कन्या और अर्जुन की पुत्रवधू को (जब वह उपालव्य नगर में रहती थी) एक ब्राह्मण ने वरदान दिया था कि कौरव वंश के क्षीण होने के उपरांत वह [[परीक्षित]] नामक शिशु को जन्म देगी। वह वचन तो सत्य होगा ही। अश्वत्थामा इस पर क्रुद्ध होकर बोला-'मेरा ब्रह्मास्त्र सभी गर्भस्थ शिशुओं को मार डालेगा।' श्रीकृष्ण ने कहा-'ठीक है, वह मृत उत्पन्न होकर लंबी आयु उपलब्ध करेगा तथा तेरे देखते-देखते ही वह भूमंडल का सम्राट होगा। उस मृत बालक को मैं जीवनदान दूंगा। और तू? तू रोगों से पीड़ित होकर इधर-उधर भटकेगा।' व्यास, नारद, अश्वत्थामा को साथ लेकर वे सब द्रौपदी के पास पहुंचे। भीम ने उसे मणि देकर कहा- 'तुम्हारा दु:ख स्वाभाविक है, पर जब-जब शांति और संधि की बात उठी, तुमने अपने विगत अपमान की याद दिलाकर सबकों युद्ध के लिए उत्साहित किया। अब तुम्हें वे सब बातें याद करनी चाहिए।' द्रौपदी ने कहा-'मैं अपने पुत्रों के वध का प्रतिशोध लेना चाहती थी। गुरु-पुत्र तो मेरे लिए भी गुरु ही हैं।' द्रौपदी के कहने से युधिष्ठिर ने वह मणि अपने मस्तक पर धारण कर ली <ref>महाभारत, आदिपर्व, सौप्तिकपर्व, 11 से 16 तक, अध्याय 220, श्लोक 78 स 89 तक</ref>।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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12:52, 14 मई 2013 का अवतरण

संक्षिप्त परिचय
द्रौपदी
अन्य नाम कृष्णा, पांचाली
अवतार शची (इन्द्राणी) का अंशावतार
पिता द्रुपद
जन्म विवरण द्रुपद ने द्रोणाचार्य से प्रतिशोध लेने के लिए यज्ञ किया था और उस यज्ञ से उन्हें पुत्र धृष्टद्युम्न और पुत्री कृष्णा की प्राप्ति हुई।
समय-काल महाभारत काल
परिजन भाई धृष्टद्युम्न, पिता द्रुपद
विवाह द्रौपदी का विवाह पाँचों पाण्डव से हुआ था। जिनके नाम इस प्रकार है- युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव
संतान द्रौपदी को युवराज युधिष्ठिर से प्रतिविन्ध्य, भीमसेन से सुतसोम, अर्जुन से श्रुतकीर्ति, नकुल से शतानीक और सहदेव से श्रुतवर्मा नामक पुत्र थे।
महाजनपद पांचाल की राजकुमारी और हस्तिनापुर की रानी।
शासन-राज्य कुरु
संदर्भ ग्रंथ महाभारत
प्रसिद्ध घटनाएँ 1.दुशासन ने द्रौपदी को केश पकड़कर खींचा था। उसके बाद द्रौपदी ने अपने केश सदैव खुले रखे, और उसके केश ही महाभारत का कारण बने।
2.द्रौपदी बाल्यावस्था से ही कृष्ण से विवाह करना चाहती थी किन्तु इनका विवाह अर्जुन से हुआ था।
मृत्यु स्वर्ग जाते समय द्रौपदी की मृत्यु मार्ग में सबसे पहले हुई।
यशकीर्ति द्रौपदी ने अपने पाँचों पुत्रों के हत्यारे अश्वत्थामा को क्षमा किया था।
अपकीर्ति द्रौपदी अपने पाँचों पतियों में से सबसे अधिक प्रेम अर्जुन से करती थीं इसलिए वह सशरीर स्वर्ग ना जा सकी। उनकी मृत्यु स्वर्ग जाते समय हो गई थी।
संबंधित लेख महाभारत
  • द्रौपदी का जन्म महाराज द्रुपद के यहाँ यज्ञकुण्ड से हुआ था। अतः यह ‘यज्ञसेनी’ भी कहलाई। द्रौपदी का विवाह पाँचों पाण्डव से हुआ था।
  • द्रौपदी पूर्वजन्म में किसी ऋषि की कन्या थी। उसने पति पाने की कामना से तपस्या की। शंकर ने प्रसन्न होकर उसे वर देने की इच्छा की। उसने शंकर से पांच बार कहा कि वह सर्वगुणसंपन्न पति चाहती है। शंकर ने कहा कि अगले जन्म में उसके पांच भारतवंशी पति होंगे, क्योंकि उसने पति पाने की कामना पांच बार दोहरायी थी। [1]
  • गुरु द्रोण से पराजित होने के उपरान्त महाराज द्रुपद अत्यन्त लज्जित हुये और उन्हें किसी प्रकार से नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे। इसी चिन्ता में एक बार वे घूमते हुये कल्याणी नगरी के ब्राह्मणों की बस्ती में जा पहुँचे । वहाँ उनकी भेंट याज तथा उपयाज नामक महान कर्मकाण्डी ब्राह्मण भाइयों से हुई । राजा द्रुपद ने उनकी सेवा करके उन्हें प्रसन्न कर लिया एवं उनसे द्रोणाचार्य को मारने का उपाय पूछा । उनके पूछने पर बड़े भाई याज ने कहा, " इसके लिये आप एक विशाल यज्ञ का आयोजन करके अग्निदेव को प्रसन्न कीजिये जिससे कि वे आपको वे महान बलशाली पुत्र का वरदान दे देंगे।" महाराज ने याज और उपयाज से उनके कहे अनुसार यज्ञ करवाया। उनके यज्ञ से प्रसन्न हो कर अग्निदेव ने उन्हें एक ऐसा पुत्र दिया जो सम्पूर्ण आयुध एवं कवच कुण्डल से युक्त था तथा प्रकट होते ही रथ पर चढ़ गया, जैसे युद्ध के लिए उद्यत हो। उसका नाम धृष्टद्युम्न रखा गया। उसी समय आकाश में अदृश्य महाभूत ने कहा- 'यह बालक द्रोणाचार्य का वध करेगा।' तदुपरांत वेदी से द्रौपदी नामक सुंदर कन्या का प्रादुर्भाव हुआ, जिसके नेत्र खिले हुये कमल के समान देदीप्यमान थे, भौहें चन्द्रमा के समान वक्र थीं तथा उसका वर्ण श्यामल था । उसके उत्पन्न होते ही एक आकाशवाणी हुई कि इस बालिका का जन्म क्षत्रियों के संहार और कौरवों के विनाश के हेतु हुआ है। बालिका का नाम कृष्णा रखा गया ।का नाम कृष्णा रखा गया। आगे चलकर द्रोणाचार्य ने ही धृष्टद्युम्न को अस्त्रविद्या की शिक्षा दी।

द्रौपदी का स्वयंवर

कुंती तथा पांडवों ने द्रौपदी के स्वयंवर के विषय में सुना तो वे लोग भी सम्मिलित होने के लिए धौम्य को अपना पुरोहित बनाकर पांचाल देश पहुंचे। कौरवों से छुपने के लिए उन्होंने ब्राह्मण वेश धारण कर रखा था तथा एक कुम्हार की कुटिया में रहने लगे। राजा द्रुपद द्रौपदी का विवाह अर्जुन के साथ करना चाहते थे। लाक्षागृह की घटना सुनने के बाद भी उन्हें यह विश्वास नहीं होता था कि पांडवों का निधन हो गया है, अत: द्रौपदी के स्वयंवर के लिए उन्होंने यह शर्त रखी कि निरंतर घूमते हुए यंत्र के छिद्र में से जो भी वीर निश्चित धनुष की प्रत्यंचा पर चढ़ाकर दिये गये पांच बाणों से, छिद्र के ऊपर लगे, लक्ष्य को भेद देगा, उसी के साथ द्रौपदी का विवाह कर दिया जायेगा। ब्राह्मणवेश में पांडव भी स्वयंवर-स्थल पर पहुंचे। कौरव आदि अनेक राजा तथा राजकुमार तो धनुष की प्रत्यंचा के धक्के से भूमिसात हो गये। कर्ण ने धनुष पर बाण चढ़ा तो लिया किंतु द्रौपदी ने सूत-पुत्र से विवाह करना नहीं चाहा, अत: लक्ष्य भेदने का प्रश्न ही नहीं उठा। अर्जुन ने छद्मवेश में पहुंचकर लक्ष्य भेद दिया तथा द्रौपदी को प्राप्त कर लिया। कृष्ण उसे देखते ही पहचान गये। शेष उपस्थित व्यक्तियों में यह विवाद का विषय बन गया कि ब्राह्मण को कन्या क्यों दी गयी है। अर्जुन तथा भीम के रण-कौशल तथा कृष्ण की नीति से शांति स्थापित हुई तथा अर्जुन और भीम द्रौपदी को लेकर डेरे पर पहुंचे। उनके यह कहने पर कि वे लोग भिक्षा लाये हैं, उन्हें बिना देखे ही कुंती ने कुटिया के अंदर से कहा कि सभी मिलकर उसे ग्रहण करो। पुत्रवधू को देखकर अपने वचनों को सत्य रखने के लिए कुंती ने पांचों पांडवों को द्रौपदी से विवाह करने के लिए कहा। द्रौपदी का भाई धृष्टद्युम्न उन लोगों के पीछे-पीछे छुपकर आया था। वह यह तो नहीं जान पाया कि वे सब कौन हैं, पर स्थान का पता चलाकर पिता की प्रेरणा से उसने उन सबको अपने घर पर भोजन के लिए आमन्त्रित किया। द्रुपद को यह जानकर कि वे पांडव हैं, बहुत प्रसन्नता हुई, किंतु यह सुनकर विचित्र लगा कि वे पांचों द्रौपदी से विवाह करने के लिए उद्यत हैं। तभी व्यास मुनि ने अचानक प्रकट होकर एकांत में द्रुपद को उन छहों के पूर्वजन्म की कथा सुनायी कि-

  • एक वार रुद्र ने पांच इन्द्रों को उनके दुरभिमान स्वरूप यह शाप दिया था कि वे मानव-रूप धारण करेंगे। उनके पिता क्रमश: धर्म, वायु, इन्द्र तथा अश्विनीकुमार (द्वय) होंगे। भूलोक पर उनका विवाह स्वर्गलोक की लक्ष्मी के मानवी रूप से होगा। वह मानवी द्रौपदी है तथा वे पांचों इन्द्र पांडव हैं। व्यास मुनि के व्यवस्था देने पर द्रौपदी का विवाह क्रमश: पांचों पांडवों से कर दिया गया। व्यास ने उनके पूर्व रूप देखने के लिए द्रुपद को दिव्य दृष्टि भी प्रदान की थीं द्रुपद के दिये तथा कृष्ण के भेजे विभिन्न उपहारों को ग्रहण कर वे लोग द्रुपद की नगरी में ही विहार करने लगे।
  • द्रौपदी ने पांच पांडवों से पांच पुत्रों की प्राप्ति की। उनके पुत्रों का नाम क्रमश:
  1. प्रतिविंध्य (युधि0),
  2. श्रुतसोम (भीम0),
  3. श्रुतकर्मा (अर्जुन),
  4. शतानीक (नकुल),
  5. श्रुतसेन (सहदेव) रखे गये [2]
  • युद्ध की समाप्ति पर जब पांडव, द्रौपदी, श्रीकृष्ण, सात्यकि आदि शिविर में न ठहरकर ओधवती नदी के तट पर रात बिताकर उठे तो उन्हें अश्वत्थामा के किये पांचाल-संहार का समाचार मिला। द्रौपदी अपने मायके के समस्त नाते-रिश्तों के नष्ट होने के विषय में सुनकर बहुत दुखी हुई तथा उसने आमरण अनशन आरंभ कर दिया। उसने कहा कि अश्वत्थामा के मस्तक में उसके जन्म के साथ उत्पन्न हुई एक मणि है। यदि मुझे मणि नहीं दी जायेगी तो मैं भोजन नहीं करूंगी और प्राण त्याग दूंगी। मणि मिलने पर मैं उसे देख लूंगी। भीमसेन अत्यंत आवेग में अश्वत्थामा को मारने के लिए चल पड़े। श्रीकृष्ण यह जानते थे कि अश्वत्थामा को द्रोण ने ब्रह्मास्त्र का उपदेश रखा है। यद्यपि उन्होंने अर्जुन को पूर्ण रूपेण ब्रह्मास्त्र प्रदान किया था। पूर्वकाल में अश्वत्थामा ने स्वयं कृष्ण को यह बताया था और यह भी कहा था कि वे अपना सुदर्शन चक्र उसे दे दें तो वह ब्रह्मास्त्र उन्हें प्रदान कर देगा। श्रीकृष्ण ने मुस्कराकर उसे कहा कि वह कृष्ण का कोई भी अस्त्र ग्रहण कर ले। अश्वत्थामा अनेक प्रयत्नों के उपरांत भी सुदर्शन चक्र को नहीं उठा पाया- लज्जित होकर लौट गया था। अत: अर्जुन और युधिष्ठिर को लेकर वे भी भीम के पीछे अश्वत्थामा के पास पहुंचे। अश्वत्थामा ने पांडवों को नष्ट करने के लिए एक तिनके में ब्रह्मास्त्र का आवाहन किया। वह तिनका भयानक रूप से प्रज्वलित हो उठा। अर्जुन ने अश्वत्थामा की मंगलकामना के साथ उसके ब्रह्मास्त्र को नष्ट करने के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। इससे पूर्व कि दोनों अस्त्र एक-दूसरे को नष्ट कर भयानक विस्फोट करते, नारद तथा व्यास ने प्रकट होकर दोनों वीरों को शांत होने का आदेश दिया क्योंकि मनुष्य पर उसका प्रयोग वर्जित है। अर्जुन अपने अस्त्र को लौटाने में समर्थ थे, अत: उन्होंने लौटा लिया किंतु अश्वत्थामा ने हाथ जोड़कर कहा कि वे लौटाने की शक्ति से संपन्न नहीं हैं। व्यास तथा नारद ने दोनों के अस्त्र छोड़ने के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए अश्वत्थामा से कहा कि वे अस्त्र का परिहार करें। अश्वत्थामा अत्यंत लज्जित होकर बोले कि वे इसमें असमर्थ हैं, क्योंकि पांडवों पर न छूटकर यह अस्त्र पांडवों के गर्भस्थ शिशुओं का नाश करेगा। व्यास की आज्ञा का पालन करते हुए अश्वत्थामा ने अपने मस्तिष्क की मणि भी पांडवों को अर्पित कर दी। वह समस्त राज्य से अधिक मूल्यवान तथा शस्त्र, क्षुधा, देवता, दानव, नाग, व्याधि, आदि से रक्षा करनेवाली थी। श्रीकृष्ण ने पुन: कहा कि विराट की कन्या और अर्जुन की पुत्रवधू को (जब वह उपालव्य नगर में रहती थी) एक ब्राह्मण ने वरदान दिया था कि कौरव वंश के क्षीण होने के उपरांत वह परीक्षित नामक शिशु को जन्म देगी। वह वचन तो सत्य होगा ही। अश्वत्थामा इस पर क्रुद्ध होकर बोला-'मेरा ब्रह्मास्त्र सभी गर्भस्थ शिशुओं को मार डालेगा।' श्रीकृष्ण ने कहा-'ठीक है, वह मृत उत्पन्न होकर लंबी आयु उपलब्ध करेगा तथा तेरे देखते-देखते ही वह भूमंडल का सम्राट होगा। उस मृत बालक को मैं जीवनदान दूंगा। और तू? तू रोगों से पीड़ित होकर इधर-उधर भटकेगा।' व्यास, नारद, अश्वत्थामा को साथ लेकर वे सब द्रौपदी के पास पहुंचे। भीम ने उसे मणि देकर कहा- 'तुम्हारा दु:ख स्वाभाविक है, पर जब-जब शांति और संधि की बात उठी, तुमने अपने विगत अपमान की याद दिलाकर सबकों युद्ध के लिए उत्साहित किया। अब तुम्हें वे सब बातें याद करनी चाहिए।' द्रौपदी ने कहा-'मैं अपने पुत्रों के वध का प्रतिशोध लेना चाहती थी। गुरु-पुत्र तो मेरे लिए भी गुरु ही हैं।' द्रौपदी के कहने से युधिष्ठिर ने वह मणि अपने मस्तक पर धारण कर ली [3]
  • वास्तव में द्रौपदी साक्षात शची थी और पांडव इन्द्र के ही पांच रूप थे। पूर्वकाल में इन्द्र के हाथों त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप का हनन हो गया था। ब्रह्महत्या के कारण इन्द्र का तेज़ धर्मराज में प्रविष्ट हो गया। त्वष्टा ने क्रुद्ध होकर अपनी एक जटा उखाड़कर होम की। फलत: होमकुण्ड से वृत्र का आविर्भाव हुआ। उसे अपने वध के लिए उद्यत देख इन्द्र ने सप्तर्षियों से प्रार्थना की। उन्होंने कुछ शर्तों पर उन दोनों का समझौता करवा दिया। इन्द्र ने शर्त का उल्लंघन कर वृत्र को मार डाला, अत: इन्द्र के शरीर से निकलकर 'बल' ने वायु में प्रवेश किया। इन्द्र ने गौतम का रूप धारण कर अहिल्या के सतीत्व का नाश किया, अत: उसका रूप उसे छोड़ अश्विनीकुमारों में समा गया। पृथ्वी का भार हल्का करने के लिए जब सब देवता पृथ्वी पर अवतार लेने लगे, तब धर्म ने इन्द्र का तेज़ कुंती के गर्भ में प्रतिष्ठित किया, अत: युधिष्ठिर का जन्म हुआ। इसी प्रकार वायु ने इन्द्र का बल कुंती के गर्भ में प्रतिष्ठत किया तो भीम का जन्म हुआ। इन्द्र के आधे अंश से अर्जुन तथा अश्विनीकुमारों के द्वारा माद्री के गर्भ में इन्द्र के ही 'रूप' की प्रतिष्ठा के फलस्वरूप नकुल और सहदेव का जन्म हुआ। इस प्रकार पांडव इन्द्र के रूप थे तथा कृष्णा शची का ही दूसरा रूप थी [4]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 166, 168 ।
  2. महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 182 से 198 तक
  3. महाभारत, आदिपर्व, सौप्तिकपर्व, 11 से 16 तक, अध्याय 220, श्लोक 78 स 89 तक
  4. मार्कण्डेय पुराण, 4-5

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