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गांधारी एक पतिव्रता होने के साथ ही अत्यन्त निर्भीक और न्यायप्रिय महिला थीं। द्यूतक्रीड़ा में हार जाने पर, इनके पुत्रों ने जब भरी सभा में [[पाण्डव|पाण्डवों]] की भार्या तथा कुलवधु [[द्रौपदी]] के साथ अत्याचार किया, तब इन्होंने दु:खी होकर उसका खुला विरोध किया। जब इनके पति महाराज धृतराष्ट्र ने दुर्योधन की बातों में आकर पाण्डवों को दुबारा द्यूत के लिये आमन्त्रित किया, तब इन्होंने जुए का विरोध करते हुए अपने पति से कहा- "स्वामी!' दुर्योधन जन्म लेते ही बुरी तरह से रोया था। उसी समय परम ज्ञानी [[विदुर]] ने उसका त्याग कर देने की सलाह दी थी। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह कुल-कलंक [[कुरु वंश]] का नाश करके ही छोड़ेगा। आप अपने दोषों से सबको विपत्ति में मत डालिये। इन ढीठ मूर्खों की हाँ में हाँ मिलाकर इस वंश के नाश का कारण मत बनिये। कुलकलंक दुर्योधन को त्यागना ही श्रेयस्कर है। मैंने मोहवश उस समय विदुर की बात नहीं मानी, उसी का यह फल है। राज्यलक्ष्मी क्रूर के हाथ में पड़कर उसी का सत्यानाश कर देती हैं। बिना विचारे काम करना आप के लिये बड़ा दु:खदायी सिद्ध होगा।" गांधारी की इस सलाह में [[धर्म]], नीति और निष्पक्षता का अनुपम समन्वय है।
गांधारी एक पतिव्रता होने के साथ ही अत्यन्त निर्भीक और न्यायप्रिय महिला थीं। द्यूतक्रीड़ा में हार जाने पर, इनके पुत्रों ने जब भरी सभा में [[पाण्डव|पाण्डवों]] की भार्या तथा कुलवधु [[द्रौपदी]] के साथ अत्याचार किया, तब इन्होंने दु:खी होकर उसका खुला विरोध किया। जब इनके पति महाराज धृतराष्ट्र ने दुर्योधन की बातों में आकर पाण्डवों को दुबारा द्यूत के लिये आमन्त्रित किया, तब इन्होंने जुए का विरोध करते हुए अपने पति से कहा- "स्वामी!' दुर्योधन जन्म लेते ही बुरी तरह से रोया था। उसी समय परम ज्ञानी [[विदुर]] ने उसका त्याग कर देने की सलाह दी थी। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह कुल-कलंक [[कुरु वंश]] का नाश करके ही छोड़ेगा। आप अपने दोषों से सबको विपत्ति में मत डालिये। इन ढीठ मूर्खों की हाँ में हाँ मिलाकर इस वंश के नाश का कारण मत बनिये। कुलकलंक दुर्योधन को त्यागना ही श्रेयस्कर है। मैंने मोहवश उस समय विदुर की बात नहीं मानी, उसी का यह फल है। राज्यलक्ष्मी क्रूर के हाथ में पड़कर उसी का सत्यानाश कर देती हैं। बिना विचारे काम करना आप के लिये बड़ा दु:खदायी सिद्ध होगा।" गांधारी की इस सलाह में [[धर्म]], नीति और निष्पक्षता का अनुपम समन्वय है।
==दुर्योधन को सीख==
==दुर्योधन को सीख==
[[महाभारत]] का युद्ध प्रारम्भ होने से पहले भगवान [[श्रीकृष्ण]] सन्धि के लिए शान्तिदूत बनकर [[हस्तिनापुर]] गये थे। उन्होंने [[दुर्योधन]] के समक्ष यह प्रस्ताव रखा था कि यदि पाण्डवों को पाँच गाँव भी दे दिये जाएँ तब भी वे युद्ध नहीं करेंगे और संतुष्ट हो जायेंगे। किंतु दुर्योधन ने उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया तथा बिना युद्ध के सूई की नोंक के बराबर भी ज़मीन देना स्वीकार नहीं किया। इसके बाद गांधारी ने उसको समझाते हुए कहा- "बेटा! मेरी बात ध्यान से सुनो। भगवान श्रीकृष्ण, [[भीष्म]], [[द्रोणाचार्य]] तथा विदुरजी ने जो बातें तुमसे कही हैं, उन्हें स्वीकार करने में ही तुम्हारा हित है। जिस प्रकार उद्दण्ड घोड़े मार्ग में मूर्ख सारथी को मार डालते हैं, उसी प्रकार यदि इन्द्रियों को वश में न रखा जाय तो मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है। इन्द्रियाँ जिसके वश में हैं, उसके पास राज्यलक्ष्मी चिरकाल तक सुरक्षित रहती हैं। भगवान श्रीकृष्ण और [[अर्जुन]] को कोई नहीं जीत सकता। तुम श्रीकृष्ण की शरण लो। पाण्डवों का न्यायोचित भाग तुम उन्हें दे दो और उनसे सन्धि कर लो। इसी में दोनों पक्षों का हित है। युद्ध करने में कल्याण नहीं है।" दुष्ट दुर्योधन ने गांधारी के इस उत्तम उपदेश पर ध्यान नहीं दिया, जिसके कारण सभी का कल्याण सम्भ्व था। उसके हठ के कारण ही [[महाभारत]] के युद्ध में [[कौरव]] पक्ष का संहार हुआ।
[[महाभारत]] का युद्ध प्रारम्भ होने से पहले भगवान [[श्रीकृष्ण]] सन्धि के लिए शान्तिदूत बनकर [[हस्तिनापुर]] गये थे। उन्होंने [[दुर्योधन]] के समक्ष यह प्रस्ताव रखा था कि यदि पाण्डवों को पाँच गाँव भी दे दिये जाएँ तब भी वे युद्ध नहीं करेंगे और संतुष्ट हो जायेंगे। किंतु दुर्योधन ने उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया तथा बिना युद्ध के सूई की नोंक के बराबर भी ज़मीन देना स्वीकार नहीं किया। इसके बाद गांधारी ने उसको समझाते हुए कहा- "बेटा! मेरी बात ध्यान से सुनो। भगवान श्रीकृष्ण, [[भीष्म]], [[द्रोणाचार्य]] तथा विदुरजी ने जो बातें तुमसे कही हैं, उन्हें स्वीकार करने में ही तुम्हारा हित है। जिस प्रकार उद्दण्ड घोड़े मार्ग में मूर्ख सारथी को मार डालते हैं, उसी प्रकार यदि इन्द्रियों को वश में न रखा जाय तो मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है। इन्द्रियाँ जिसके वश में हैं, उसके पास राज्यलक्ष्मी चिरकाल तक सुरक्षित रहती हैं। भगवान श्रीकृष्ण और [[अर्जुन]] को कोई नहीं जीत सकता। तुम श्रीकृष्ण की शरण लो। पाण्डवों का न्यायोचित भाग तुम उन्हें दे दो और उनसे सन्धि कर लो। इसी में दोनों पक्षों का हित है। युद्ध करने में कल्याण नहीं है।" दुष्ट दुर्योधन ने गांधारी के इस उत्तम उपदेश पर ध्यान नहीं दिया, जिसके कारण सभी का कल्याण सम्भ्व था।
==ममतामयी माँ==
==ममतामयी माँ==
महाभारत युद्ध के अंतिम समय में, जब [[भीम (पांडव)|भीम]] द्वारा दुर्योधन की जंघा तोड़ दी गई और वह भूमि पर पड़ा अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था, गांधारी ने अपनी आँखों की पट्टी को खोल दिया और वह कुरुक्षेत्र में दौड़ी आई। उन्होंने वहाँ महाभारत के महायुद्ध का विनाशकारी परिणाम देखा। उनका एकमात्र जीवित पुत्र दुर्योधन भी अब अपनी अन्तिम साँसे ले रहा था। [[पाण्डव]] तो किसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से गांधारी के क्रोध से बच गये, किंतु भागीवश भगवान श्रीकृष्ण को उनके शाप को शिरोधार्य करना पड़ा और यदुवंश का परस्पर कलह के कारण महाविनाश हुआ। महाराज [[युधिष्ठिर]] के राज्यभिषेक के बाद देवी गांधारी कुछ समय तक पाण्डवों के साथ रहीं और अन्त में अपने पति के साथ तपस्या करने के लिये वन में चली गयीं। उन्होंने अपने पति के साथ अपने शरीर को दावाग्नि में भस्म कर डाला। गांधारी ने इस लोक में पतिसेवा करके परलोक में भी पति का सान्निध्य प्राप्त किया। वे अपने नश्वर देह को छोड़कर अपने पति के साथ ही [[कुबेर]] के लोक में गयीं। पतिव्रता नारियों के लिये गांधारी का चरित्र अनुपम शिक्षा का विषय है।
महाभारत युद्ध के अंतिम समय में, जब [[भीम (पांडव)|भीम]] द्वारा दुर्योधन की जंघा तोड़ दी गई और वह भूमि पर पड़ा अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था, गांधारी ने अपनी आँखों की पट्टी को खोल दिया और वह कुरुक्षेत्र में दौड़ी आई। उन्होंने वहाँ महाभारत के महायुद्ध का विनाशकारी परिणाम देखा। उनका एकमात्र जीवित पुत्र दुर्योधन भी अब अपनी अन्तिम साँसे ले रहा था। [[पाण्डव]] तो किसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से गांधारी के क्रोध से बच गये, किंतु भागीवश भगवान श्रीकृष्ण को उनके शाप को शिरोधार्य करना पड़ा और यदुवंश का परस्पर कलह के कारण महाविनाश हुआ। महाराज [[युधिष्ठिर]] के राज्यभिषेक के बाद देवी गांधारी कुछ समय तक पाण्डवों के साथ रहीं और अन्त में अपने पति के साथ तपस्या करने के लिये वन में चली गयीं। उन्होंने अपने पति के साथ अपने शरीर को दावाग्नि में भस्म कर डाला। गांधारी ने इस लोक में पतिसेवा करके परलोक में भी पति का सान्निध्य प्राप्त किया। वे अपने नश्वर देह को छोड़कर अपने पति के साथ ही [[कुबेर]] के लोक में गयीं। पतिव्रता नारियों के लिये गांधारी का चरित्र अनुपम शिक्षा का विषय है।
==महाभारत युद्ध के उपरांत==
==महाभारत युद्ध के उपरांत==
[[महाभारत]] में विजय प्राप्त करने के उपरांत [[पांडव]] पुत्रविहीना गांधारी के सम्मुख जाने का साहस नहीं कर पा रहे थे। वह उन्हें देखते ही कोई शाप न दे दें, इस बात का भी भय था। अत: उन लोगों ने [[श्रीकृष्ण]] को तैयार करके उनके पास भेजा। कृष्ण गांधारी के क्रोध का शमन कर आये। तदुपरांत पांडव धृतराष्ट्र की आज्ञा लेकर गांधारी के दर्शन करने गये। गांधारी उन्हें शाप देने के लिए उद्यत हुईं किंतु [[महर्षि व्यास]] ने उनकी मन स्थिति जानकर उन्हें समझाया कि कौरवों के प्रतिदिन प्रणाम करने पर वह आशीष देती थीं कि जहाँ [[धर्म]] वहीं जय है, फिर धर्म के जीतने पर उन्हें इस प्रकार क्रुद्ध नहीं होना चाहिए। गांधारी ने कहा कि [[भीम]] ने [[दुर्योधन]] के साथ अधर्म युद्ध किया था। उसने नाभि के नीचे [[गदा]] से प्रहार किया, जो कि नियम-विरुद्ध था। अत: उस संदर्भ में वह उन्हें कैसे क्षमा कर दे? [[भीम (पांडव)|भीम]] ने अपने इस अपराध के लिए क्षमा-याचना की, साथ ही याद दिलाया कि उसने भी [[द्यूत क्रीड़ा]], [[चीर हरण]] आदि में अधर्म का प्रयोग किया था। गांधारी ने पुन: कहा- "तुमने [[दु:शासन]] का रक्तपान किया।" भीम ने कहा- "[[सूर्य देवता|सूर्य]] पुत्र [[यमराज|यम]] जानते हैं कि [[रक्त]] मेरे दांत के अंदर नहीं गया, मेरे हाथ रक्तरंजित थे। वह कर्म केवल त्रास उत्पन्न करने के लिए किया था। [[द्रौपदी]] के केश खींचे जाने पर मैंने ऐसी प्रतिज्ञा की थी।" गांधारी ने कहा- "तुम मेरे किसी भी एक कम अपराधी पुत्र को जीवित छोड़ देते तो हम दोनों के बुढ़ापे का सहारा रहता।" गांधारी ने [[युधिष्ठिर]] को पुकारा। वह कौरवों का वध करने का अपराध स्वीकारते हुए गांधारी के चरण-स्पर्श करने लगे। गांधारी ने [[आंख]] पर बंधी पट्टी से ही उनके पैर की कोर देखी और उनके नाख़ून काले पड़ गये। यह देखकर [[अर्जुन]] भयभीत होकर [[कृष्ण]] के पीछे छिप गये। उसके छिपने की चेष्टा जानकर गांधारी का क्रोध ठंडा पड़ गया। तदुपरांत पाण्डवों ने [[कुंती]] के दर्शन किये। कुंती पांडवों के क्षत-विक्षत शरीरों पर हाथ फेरती और देखती ही रह गयीं। [[अभिमन्यु]] ही नहीं और भी कई पाण्डव पुत्र वीरगति को प्राप्त हुए थे। कुंती तथा द्रौपदी अपने बेटों को याद कर रोती रहीं। उन सबके बिना राज्य भला किस काम का था। गांधारी ने दोनों को धीरज बंधाया। जो होना था, हो गया। उसके लिए शोक करने से क्या लाभ? तदनंतर [[वेदव्यास]] के वरदान से गांधारी को दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई, जिससे वह कौरवों का संपूर्ण विनाश-स्थल देखने में समर्थ हो गयीं। गांधारी युद्ध-क्षेत्र में पड़े कौरव-पांडव बंधुओं, सैनिकों के शव तथा उनसे चिपटकर रोती उनकी पत्नियों और माताओं का विलाप देख-देखकर श्रीकृष्ण को संबोधित कर रोने लगीं। उन दु:खिताओं में [[उत्तरा]] भी थी, कौरवों की पत्नियां भी थीं, [[दु:शला]] भी थी। [[भूरिश्रवा]] की पत्नियाँ विलाप कर रही थीं। [[शल्य]], [[भगदत्त]], [[भीष्म]], [[द्रोण]] को देख गांधारी सिसकती रहीं, विलाप करती रहीं।  
[[महाभारत]] में विजय प्राप्त करने के उपरांत [[पांडव]] पुत्रविहीना गांधारी के सम्मुख जाने का साहस नहीं कर पा रहे थे। वह उन्हें देखते ही कोई शाप न दे दें, इस बात का भी भय था। अत: उन लोगों ने [[श्रीकृष्ण]] को तैयार करके उनके पास भेजा। कृष्ण गांधारी के क्रोध का शमन कर आये। तदुपरांत पांडव धृतराष्ट्र की आज्ञा लेकर गांधारी के दर्शन करने गये। गांधारी उन्हें शाप देने के लिए उद्यत हुईं किंतु [[महर्षि व्यास]] ने उनकी मन स्थिति जानकर उन्हें समझाया कि कौरवों के प्रतिदिन प्रणाम करने पर वह आशीष देती थीं कि जहाँ [[धर्म]] वहीं जय है, फिर धर्म के जीतने पर उन्हें इस प्रकार क्रुद्ध नहीं होना चाहिए। गांधारी ने कहा कि [[भीम]] ने [[दुर्योधन]] के साथ अधर्म युद्ध किया था। उसने नाभि के नीचे [[गदा]] से प्रहार किया, जो कि नियम-विरुद्ध था। अत: उस संदर्भ में वह उन्हें कैसे क्षमा कर दे? [[भीम (पांडव)|भीम]] ने अपने इस अपराध के लिए क्षमा-याचना की, साथ ही याद दिलाया कि उसने भी द्यूत क्रीड़ा, चीर हरण आदि में अधर्म का प्रयोग किया था। गांधारी ने पुन: कहा- "तुमने [[दु:शासन]] का रक्तपान किया।" भीम ने कहा- "[[सूर्य देवता|सूर्य]] पुत्र [[यमराज|यम]] जानते हैं कि [[रक्त]] मेरे दांत के अंदर नहीं गया, मेरे हाथ रक्तरंजित थे। वह कर्म केवल त्रास उत्पन्न करने के लिए किया था। [[द्रौपदी]] के केश खींचे जाने पर मैंने ऐसी प्रतिज्ञा की थी।" गांधारी ने कहा- "तुम मेरे किसी भी एक कम अपराधी पुत्र को जीवित छोड़ देते तो हम दोनों के बुढ़ापे का सहारा रहता।" गांधारी ने [[युधिष्ठिर]] को पुकारा। वह कौरवों का वध करने का अपराध स्वीकारते हुए गांधारी के चरण-स्पर्श करने लगे। गांधारी ने [[आंख]] पर बंधी पट्टी से ही उनके पैर की कोर देखी और उनके नाख़ून काले पड़ गये। यह देखकर [[अर्जुन]] भयभीत होकर [[कृष्ण]] के पीछे छिप गये। उसके छिपने की चेष्टा जानकर गांधारी का क्रोध ठंडा पड़ गया। तदुपरांत पाण्डवों ने [[कुंती]] के दर्शन किये। कुंती पांडवों के क्षत-विक्षत शरीरों पर हाथ फेरती और देखती ही रह गयीं। [[अभिमन्यु]] ही नहीं और भी कई पाण्डव पुत्र वीरगति को प्राप्त हुए थे। कुंती तथा द्रौपदी अपने बेटों को याद कर रोती रहीं। उन सबके बिना राज्य भला किस काम का था। गांधारी ने दोनों को धीरज बंधाया। जो होना था, हो गया। उसके लिए शोक करने से क्या लाभ? तदनंतर [[वेदव्यास]] के वरदान से गांधारी को दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई, जिससे वह कौरवों का संपूर्ण विनाश-स्थल देखने में समर्थ हो गयीं। गांधारी युद्ध-क्षेत्र में पड़े कौरव-पांडव बंधुओं, सैनिकों के शव तथा उनसे चिपटकर रोती उनकी पत्नियों और माताओं का विलाप देख-देखकर श्रीकृष्ण को संबोधित कर रोने लगीं। उन दु:खिताओं में [[उत्तरा]] भी थी, कौरवों की पत्नियां भी थीं, [[दु:शला]] भी थी। [[भूरिश्रवा]] की पत्नियाँ विलाप कर रही थीं। [[शल्य]], [[भगदत्त]], [[भीष्म]], [[द्रोण]] को देख गांधारी सिसकती रहीं, विलाप करती रहीं।  
 
==कृष्ण को शाप==
[[द्रुपद]] की रानियाँ और पुत्र वधुएँ उसकी जलती चिता की परिक्रमा ले रही थीं। रोते-रोते गांधारी अचानक क्रुद्ध हो उठीं। उन्होंने [[श्रीकृष्ण]] से कहा- "मेरे पतिव्रत में बल है तो शाप देती हूँ कि यादव वंशी समस्त लोग परस्पर लड़कर मर जायेंगे। तुम्हारा वंश नष्ट हो जायेगा, तुम अकेले जंगल में अशोभनीय मृत्यु प्राप्त करोगे, क्योंकि कौरव-पांडवों का युद्ध रोक लेने में एकमात्र तुम ही समर्थ थे और तुमने उन्हें रोका नहीं। तुम्हारे देखते-देखते [[कुरु वंश]] का नाश हो गया।" श्रीकृष्ण ने मुस्कराकर कहा- "जो कुछ आप कह रही हैं, यथार्थ है। यह सब तो पूर्व निश्चित है, ऐसा ही होगा।"<ref>महाभारत, [[आदि पर्व महाभारत|आदिपर्व]], अध्याय 109, 114 115, [[स्त्री पर्व महाभारत|स्त्रीपर्व]] 21-25, [[शल्य पर्व महाभारत|शल्यपर्व]] 63</ref>
[[द्रुपद]] की रानियाँ और पुत्र वधुएँ उसकी जलती चिता की परिक्रमा ले रही थीं। रोते-रोते गांधारी अचानक क्रुद्ध हो उठीं। उन्होंने [[श्रीकृष्ण]] से कहा- "मेरे पतिव्रत में बल है तो शाप देती हूँ कि यादव वंशी समस्त लोग परस्पर लड़कर मर जायेंगे। तुम्हारा वंश नष्ट हो जायेगा, तुम अकेले जंगल में अशोभनीय मृत्यु प्राप्त करोगे, क्योंकि कौरव-पांडवों का युद्ध रोक लेने में एकमात्र तुम ही समर्थ थे और तुमने उन्हें रोका नहीं। तुम्हारे देखते-देखते [[कुरु वंश]] का नाश हो गया।" श्रीकृष्ण ने मुस्कराकर कहा- "जो कुछ आप कह रही हैं, यथार्थ है। यह सब तो पूर्व निश्चित है, ऐसा ही होगा।"<ref>महाभारत, [[आदि पर्व महाभारत|आदिपर्व]], अध्याय 109, 114 115, [[स्त्री पर्व महाभारत|स्त्रीपर्व]] 21-25, [[शल्य पर्व महाभारत|शल्यपर्व]] 63</ref>



09:16, 1 अगस्त 2013 का अवतरण

गांधारी गांधार देश के 'सुबल' नामक राजा की कन्या थीं। क्योंकि वह गांधार की राजकुमारी थीं, इसीलिए उनका नाम गांधारी पड़ा। यह हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट्र की पत्नी और दुर्योधन आदि कौरवों की माता थीं। गांधारी की भगवान शिव में विशेष आस्था थी, और ये शिव की परम भक्त थीं। एक पतिव्रता के रूप में गांधारी आदर्श नारी सिद्ध हुई थीं। अपने पति धृतराष्ट्र के अन्धा होने के कारण विवाहोपरांत ही गांधारी ने भी आँखों पर पट्टी बाँध ली तथा उसे आजन्म बाँधे रहीं। महाभारत के अनन्तर गांधारी अपने पति, कुंती और विदुर के साथ वन में चली गयीं, जहाँ दावाग्नि[1] में वे जलकर भस्म हो गयीं।

परिचय

संसार की पतिव्रता और महान नारियों में गांधारी का विशेष स्थान है। गांधार के राजा सुबल इनके पिता और शकुनि भाई थे। जब गांधारी का विवाह नेत्रहीन धृतराष्ट्र से हुआ, तभी से गांधारी ने भी अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली। इन्होंने सोचा कि जब मेरे पति ही नेत्रहीन हैं, तब मुझे संसार को देखने का अधिकार नहीं है। पति के लिये इन्द्रियसुख के त्याग का ऐसा उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता। किंतु गांधारी का भाई शकुनि इस विवाह से प्रसन्न नहीं था, क्योंकि नेत्रहीन धृतराष्ट्र के साथ गांधारी के विवाह का प्रस्ताव लेकर जब गंगापुत्र भीष्म सुबल के पास पहुँचे, तब शकुनि ने इसे अपने पिता तथा स्वयं का बहुत बड़ा अपमान माना। शकुनि इस बात से बड़ा क्रोधित था कि उसकी बहन के लिए भीष्म एक नेत्रहीन व्यक्ति का प्रस्ताव लेकर आये हैं। शकुनि ने इसी दिन यह प्रण कर लिया था कि वह हस्तिनापुर में कभी सुख-शांति नहीं रहने देगा। महाभारत युद्ध के लिए जो परिस्थितियाँ ज़िम्मेदार थीं, उनके लिए गांधारी का भाई शकुनि भी एक बड़ा कारण था।

विवाह और संतान

भीष्म की प्रेरणा से धृतराष्ट्र का विवाह गांधारी के साथ किया गया। गांधारी ने जब सुना कि उसका भावी पति अंधा है तो उसने भी अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली, जिससे कि पतिव्रत धर्म का पालन कर पाये। एक दिन जब महर्षि व्यास अत्यंत थके हुए तथा भूखे थे, वे महल में पधारे। ऐसे समय में गांधारी ने उनका आदर-सत्कार किया। प्रसन्न होकर व्यास ने गांधारी को अपने पति के अनुरूप सौ पुत्र प्राप्त करने का वरदान दिया। गर्भाधान के उपरांत दो वर्ष बीत गये। कुंती ने एक पुत्र प्राप्त भी कर लिया, किंतु गांधारी ने संतान को जन्म नहीं दिया। अत: क्रोध और ईर्ष्या के वशीभूत उसने अपने उदर पर प्रहार किया, जिससे लोहे के समान कठोर मांसपिंड निकला। व्यास जी के प्रकट होने पर गांधारी ने उन्हें सब कुछ कह सुनाया। व्यास ने एक गुप्त स्थान पर घी से भरे हुए एक सौ एक मटके रखवा दिये। मांस-पिंड को शीतल जल से धोने पर उसके एक सौ एक खंड हो गये। प्रत्येक खंड एक-एक मटके में दो वर्ष के लिए रख दिया गया। उसके बाद ढक्कन खोलने पर प्रत्येक मटके से एक-एक बालक प्रकट हुआ। अंतिम मटके से एक कन्या प्राप्त हुई, उसका नाम दु:शला रखा गया तथा उसका विवाह जयद्रथ से हुआ।

ज्योष्ठ पुत्र दुर्योधन

पहला मटका खोलने पर जो बालक प्रकट हुआ था, उसका नाम दुर्योधन हुआ। उसने जन्म लेते ही बुरी तरह से बोलना प्रारंभ कर दिया। इस समय प्रकृति में कई अपशकुन प्रकट हुए। पंडितों ने महाराज धृतराष्ट्र से कहा कि इस बालक का परित्याग कर देने से कौरव वंश की रक्षा हो सकती है अन्यथा अनर्थ होगा, किंतु मोह वश गांधारी तथा धृतराष्ट्र ने उसका परित्याग नहीं किया। उसी दिन कुंती के घर में भीम ने जन्म लिया। धृतराष्ट्र की एक वैश्य जाति की सेविका थी, जिससे धृतराष्ट्र को युयुत्सुकरण नामक पुत्र की प्राप्ति हुई।

न्यायप्रिय महिला

गांधारी एक पतिव्रता होने के साथ ही अत्यन्त निर्भीक और न्यायप्रिय महिला थीं। द्यूतक्रीड़ा में हार जाने पर, इनके पुत्रों ने जब भरी सभा में पाण्डवों की भार्या तथा कुलवधु द्रौपदी के साथ अत्याचार किया, तब इन्होंने दु:खी होकर उसका खुला विरोध किया। जब इनके पति महाराज धृतराष्ट्र ने दुर्योधन की बातों में आकर पाण्डवों को दुबारा द्यूत के लिये आमन्त्रित किया, तब इन्होंने जुए का विरोध करते हुए अपने पति से कहा- "स्वामी!' दुर्योधन जन्म लेते ही बुरी तरह से रोया था। उसी समय परम ज्ञानी विदुर ने उसका त्याग कर देने की सलाह दी थी। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह कुल-कलंक कुरु वंश का नाश करके ही छोड़ेगा। आप अपने दोषों से सबको विपत्ति में मत डालिये। इन ढीठ मूर्खों की हाँ में हाँ मिलाकर इस वंश के नाश का कारण मत बनिये। कुलकलंक दुर्योधन को त्यागना ही श्रेयस्कर है। मैंने मोहवश उस समय विदुर की बात नहीं मानी, उसी का यह फल है। राज्यलक्ष्मी क्रूर के हाथ में पड़कर उसी का सत्यानाश कर देती हैं। बिना विचारे काम करना आप के लिये बड़ा दु:खदायी सिद्ध होगा।" गांधारी की इस सलाह में धर्म, नीति और निष्पक्षता का अनुपम समन्वय है।

दुर्योधन को सीख

महाभारत का युद्ध प्रारम्भ होने से पहले भगवान श्रीकृष्ण सन्धि के लिए शान्तिदूत बनकर हस्तिनापुर गये थे। उन्होंने दुर्योधन के समक्ष यह प्रस्ताव रखा था कि यदि पाण्डवों को पाँच गाँव भी दे दिये जाएँ तब भी वे युद्ध नहीं करेंगे और संतुष्ट हो जायेंगे। किंतु दुर्योधन ने उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया तथा बिना युद्ध के सूई की नोंक के बराबर भी ज़मीन देना स्वीकार नहीं किया। इसके बाद गांधारी ने उसको समझाते हुए कहा- "बेटा! मेरी बात ध्यान से सुनो। भगवान श्रीकृष्ण, भीष्म, द्रोणाचार्य तथा विदुरजी ने जो बातें तुमसे कही हैं, उन्हें स्वीकार करने में ही तुम्हारा हित है। जिस प्रकार उद्दण्ड घोड़े मार्ग में मूर्ख सारथी को मार डालते हैं, उसी प्रकार यदि इन्द्रियों को वश में न रखा जाय तो मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है। इन्द्रियाँ जिसके वश में हैं, उसके पास राज्यलक्ष्मी चिरकाल तक सुरक्षित रहती हैं। भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन को कोई नहीं जीत सकता। तुम श्रीकृष्ण की शरण लो। पाण्डवों का न्यायोचित भाग तुम उन्हें दे दो और उनसे सन्धि कर लो। इसी में दोनों पक्षों का हित है। युद्ध करने में कल्याण नहीं है।" दुष्ट दुर्योधन ने गांधारी के इस उत्तम उपदेश पर ध्यान नहीं दिया, जिसके कारण सभी का कल्याण सम्भ्व था।

ममतामयी माँ

महाभारत युद्ध के अंतिम समय में, जब भीम द्वारा दुर्योधन की जंघा तोड़ दी गई और वह भूमि पर पड़ा अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था, गांधारी ने अपनी आँखों की पट्टी को खोल दिया और वह कुरुक्षेत्र में दौड़ी आई। उन्होंने वहाँ महाभारत के महायुद्ध का विनाशकारी परिणाम देखा। उनका एकमात्र जीवित पुत्र दुर्योधन भी अब अपनी अन्तिम साँसे ले रहा था। पाण्डव तो किसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से गांधारी के क्रोध से बच गये, किंतु भागीवश भगवान श्रीकृष्ण को उनके शाप को शिरोधार्य करना पड़ा और यदुवंश का परस्पर कलह के कारण महाविनाश हुआ। महाराज युधिष्ठिर के राज्यभिषेक के बाद देवी गांधारी कुछ समय तक पाण्डवों के साथ रहीं और अन्त में अपने पति के साथ तपस्या करने के लिये वन में चली गयीं। उन्होंने अपने पति के साथ अपने शरीर को दावाग्नि में भस्म कर डाला। गांधारी ने इस लोक में पतिसेवा करके परलोक में भी पति का सान्निध्य प्राप्त किया। वे अपने नश्वर देह को छोड़कर अपने पति के साथ ही कुबेर के लोक में गयीं। पतिव्रता नारियों के लिये गांधारी का चरित्र अनुपम शिक्षा का विषय है।

महाभारत युद्ध के उपरांत

महाभारत में विजय प्राप्त करने के उपरांत पांडव पुत्रविहीना गांधारी के सम्मुख जाने का साहस नहीं कर पा रहे थे। वह उन्हें देखते ही कोई शाप न दे दें, इस बात का भी भय था। अत: उन लोगों ने श्रीकृष्ण को तैयार करके उनके पास भेजा। कृष्ण गांधारी के क्रोध का शमन कर आये। तदुपरांत पांडव धृतराष्ट्र की आज्ञा लेकर गांधारी के दर्शन करने गये। गांधारी उन्हें शाप देने के लिए उद्यत हुईं किंतु महर्षि व्यास ने उनकी मन स्थिति जानकर उन्हें समझाया कि कौरवों के प्रतिदिन प्रणाम करने पर वह आशीष देती थीं कि जहाँ धर्म वहीं जय है, फिर धर्म के जीतने पर उन्हें इस प्रकार क्रुद्ध नहीं होना चाहिए। गांधारी ने कहा कि भीम ने दुर्योधन के साथ अधर्म युद्ध किया था। उसने नाभि के नीचे गदा से प्रहार किया, जो कि नियम-विरुद्ध था। अत: उस संदर्भ में वह उन्हें कैसे क्षमा कर दे? भीम ने अपने इस अपराध के लिए क्षमा-याचना की, साथ ही याद दिलाया कि उसने भी द्यूत क्रीड़ा, चीर हरण आदि में अधर्म का प्रयोग किया था। गांधारी ने पुन: कहा- "तुमने दु:शासन का रक्तपान किया।" भीम ने कहा- "सूर्य पुत्र यम जानते हैं कि रक्त मेरे दांत के अंदर नहीं गया, मेरे हाथ रक्तरंजित थे। वह कर्म केवल त्रास उत्पन्न करने के लिए किया था। द्रौपदी के केश खींचे जाने पर मैंने ऐसी प्रतिज्ञा की थी।" गांधारी ने कहा- "तुम मेरे किसी भी एक कम अपराधी पुत्र को जीवित छोड़ देते तो हम दोनों के बुढ़ापे का सहारा रहता।" गांधारी ने युधिष्ठिर को पुकारा। वह कौरवों का वध करने का अपराध स्वीकारते हुए गांधारी के चरण-स्पर्श करने लगे। गांधारी ने आंख पर बंधी पट्टी से ही उनके पैर की कोर देखी और उनके नाख़ून काले पड़ गये। यह देखकर अर्जुन भयभीत होकर कृष्ण के पीछे छिप गये। उसके छिपने की चेष्टा जानकर गांधारी का क्रोध ठंडा पड़ गया। तदुपरांत पाण्डवों ने कुंती के दर्शन किये। कुंती पांडवों के क्षत-विक्षत शरीरों पर हाथ फेरती और देखती ही रह गयीं। अभिमन्यु ही नहीं और भी कई पाण्डव पुत्र वीरगति को प्राप्त हुए थे। कुंती तथा द्रौपदी अपने बेटों को याद कर रोती रहीं। उन सबके बिना राज्य भला किस काम का था। गांधारी ने दोनों को धीरज बंधाया। जो होना था, हो गया। उसके लिए शोक करने से क्या लाभ? तदनंतर वेदव्यास के वरदान से गांधारी को दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई, जिससे वह कौरवों का संपूर्ण विनाश-स्थल देखने में समर्थ हो गयीं। गांधारी युद्ध-क्षेत्र में पड़े कौरव-पांडव बंधुओं, सैनिकों के शव तथा उनसे चिपटकर रोती उनकी पत्नियों और माताओं का विलाप देख-देखकर श्रीकृष्ण को संबोधित कर रोने लगीं। उन दु:खिताओं में उत्तरा भी थी, कौरवों की पत्नियां भी थीं, दु:शला भी थी। भूरिश्रवा की पत्नियाँ विलाप कर रही थीं। शल्य, भगदत्त, भीष्म, द्रोण को देख गांधारी सिसकती रहीं, विलाप करती रहीं।

कृष्ण को शाप

द्रुपद की रानियाँ और पुत्र वधुएँ उसकी जलती चिता की परिक्रमा ले रही थीं। रोते-रोते गांधारी अचानक क्रुद्ध हो उठीं। उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा- "मेरे पतिव्रत में बल है तो शाप देती हूँ कि यादव वंशी समस्त लोग परस्पर लड़कर मर जायेंगे। तुम्हारा वंश नष्ट हो जायेगा, तुम अकेले जंगल में अशोभनीय मृत्यु प्राप्त करोगे, क्योंकि कौरव-पांडवों का युद्ध रोक लेने में एकमात्र तुम ही समर्थ थे और तुमने उन्हें रोका नहीं। तुम्हारे देखते-देखते कुरु वंश का नाश हो गया।" श्रीकृष्ण ने मुस्कराकर कहा- "जो कुछ आप कह रही हैं, यथार्थ है। यह सब तो पूर्व निश्चित है, ऐसा ही होगा।"[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वन में लगी आग
  2. महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 109, 114 115, स्त्रीपर्व 21-25, शल्यपर्व 63

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