राधा ... मात्र एक नाम नहीं जो कृष्ण के पूर्व है ! राधा मात्र एक प्रेम स्तम्भ नहीं जो कदम्ब के नीचे कृष्ण के संग सोची जाती है ! राधा एक आध्यात्मिक पृष्ठ है, जहाँ द्वैत अद्वैत का मिलन है ! राधा एक सम्पूर्ण काल का उदगम है जो कृष्ण रूपी समुद्र से मिलती है ! श्रीकृष्ण के जीवन में राधा प्रेम की मूर्ति बनकर आईं। जिस प्रेम को कोई नाप नहीं सका, उसकी आधारशिला राधा ने ही रखी थी।
प्रेम कभी भी शरीर की अवधारणा में नहीं सिमट सकता... प्रेम वह अनुभूति है जिसमें साथ का एहसास निरंतर होता है ! न उम्र न जाति न उंच नीच... प्रेम हर बन्धनों से परे एक आत्मशक्ति है, जहाँ सब कुछ हो सकता है।
यदि हम कृष्ण और राधा को हर जगह आत्मिक रूप से उपस्थित पाते हैं तो आत्मिक प्यार की उंचाई और गहराई को समझना होगा। ईश्वर बना देना, ईश्वर मान के उसे अलग कर देना तो समझ को किताबी बना देना है ! कृष्ण किताब के पृष्ठों से परे हैं ! किताब... हर किताब का यदि हम सूक्ष्म अध्ययन करें तो सबकी सोच अलग अलग दृष्टिगत होती है और अपनी सुविधानुसार हम उसे मान लेते हैं। मानने के लिए हम कोई व्याख्या नहीं करते, बस अपनी समझ से एक अर्थ ग्रहण कर लेते हैं कि राधा कृष्ण प्रेम का मूर्त रूप हैं, रास हर गोपिकाओं के संग था....
यहाँ राधा के विवाहिता होने पर कोई प्रश्न नहीं उठता, उम्र में बड़ी होने पर कोई प्रश्न नहीं उठता... क्योंकि एक काल के गुजर जाने के बाद हमें उससे कोई मतलब नहीं होता और भजन गाने से कोई हानि नहीं लगती, बल्कि राधा को मानकर हम कृष्ण को खुश करते हैं !
'रास' का अर्थ भी व्यापक है। जहाँ हमारी मानसिकता मेल खाती है वहाँ भी बातों के रस में, सुकून में एक रास होता है। किसी के मीठे गीत, गूढ़ वचन, वाद्य यंत्रों के स्वर हमें आकर्षित करते हैं और हम स्वतः उधर बढ़ते हैं, लीन होकर सुनते हैं तो यह रास ही हुआ न ! रासलीला का तात्पर्य है आत्मा और परमात्मा का मिलन। परमात्मा ही रस है। कृष्ण ने बाल्यकाल में ही गोपियों को ब्रह्माज्ञान प्रदान किया था। यही सही रासलीला थी। रसाधार श्रीकृष्ण का महारास जीव का ब्रह्मा से सम्मिलन का परिचायक और प्रेम का एक महापर्व है। रास लीला में शरीर तो गौण है, तो उसे अपनी सुविधा से उसमें जोड़ देना एक अलग रास्ता बनाना है ! किसी ने देखा नहीं है... सुना है। और कपोल कल्पना के आधार पर सीमा का अतिक्रमण सही नहीं होता।
किवदंती है कि कृष्ण स्नान करती गोपिकाओं के वस्त्र उठा उन्हें छेड़ते थे, पर सत्य था कि कृष्ण ने एक बार नदी में निर्वस्त्र स्नान कर रहीं गोपिकाओं के वस्त्र चुराकर पेड़ में टांग दिए। स्नान के बाद जब गोपिकाओं को पता चला तो वे कृष्ण से मिन्नतें करने लगीं। कृष्ण ने आगाह करते हुए कहा कि नग्न स्नान से मर्यादा भंग होती है और वरुण देवता का अपमान होता है और वस्त्र लौटा दिए।
कृष्ण के प्रति कोई राय बनाने से पूर्व इंसान को गीता को समझना होगा क्योंकि उसके बिना कोई कृष्ण को वास्तविक रूप में समझ ही नहीं पाएगा।
मीरा की दीवानगी भक्ति से जुड़ी थी। परमात्मा के प्रति मीरा की दीवानगी इस हद तक थी कि उन्हें दुनिया में कृष्ण के अलावा कुछ दिखाई ही नहीं देता था।
कौन थीं मीरा? मीरा कृष्ण की दीवानी थी, ऐसा सारा संसार जानता है। मगर उनकी पृष्ठभूमि को जानना भी बहुत ज़रूरी है। मीरा का जन्म राठौर परिवार के रत्न सिंह और वीर कुंवरी के घर 1512 में मेड़ता में हुआ था। मीरा के दादा का नाम राव द्दा जी था, जो अत्यंत धनाड्य थे। मीरा की माता वीर कुंवरी झाला राजपूत सुल्तान सिंह की बेटी थी।
एक बार मीरा महल के ऊपर खड़ी थी। नीचे से एक बारात जा रही थी। बाल सुलभ मीरा ने माँ से पूछा कि यह क्या हो रहा है? माँ ने बताया कि बारात जा रही है। मीरा के यह पूछने पर कि बारात क्या होती है? माँ ने कहा कि वर पक्ष के लोग कन्या के घर पर उसे विवाह कर लाते हैं और विवाह में वर का किसी कन्या के साथ विवाह होता है। उसने माँ से पूछा कि मेरा वर कौन होगा? इतने में कुल पुरोहित श्रीकृष्ण की एक मूर्ति लेकर आए और माँ ने मजाक में कह दिया कि यह है तेरा वर। और मीरा ने श्रीकृष्ण को अपना वर मान लिया।
मीरा जब शादी के योग्य हुईं, तो माता-पिता ने उनका रिश्ता राजकुंवर भोजराज से कर दिया। भोजराज चितौड़ नरेश राणा सांगा के पुत्र थे। मीरा ने इसे अपनी दूसरी शादी करार दिया। राजघराने की बहू बनने के बाद भी वह हर वक्त श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहने लगीं। मीरा की एक देवरानी थी अजब कुंवरी, जो बाल विधवा थी। उसने मीरा की भावनाओं को समझ लिया तथा उसे सखी जैसा प्यार देने लगी। दूसरी तरफ उसकी ननद ऊदो ने बड़ी कोशिश की कि मीरा कृष्ण भक्ति छोड़ दें, मगर असफल रहीं।
राजकुंवर भोजराज की असमयिक मृत्यु हो गई। प्रथा के अनुसार पति की मृत्यु पर पत्नी को सती हो जाना था, मगर मीरा ने सती होने से इंकार कर दिया। सभी लोग चाहते थे कि मीरा सती हो जाए, मगर भोजराज का छोटा भाई मीरा के पक्ष में खड़ा हो गया और वह सती होने से बच गईं।
मीरा भी ब्याहता थीं, फिर वैधव्य... पर प्रेम भक्ति की दीवानगी को सबने क्रमशः स्वीकार किया। पति की मृत्यु होने के बाद मीरा के हृदय में विराग की भावना गहरी होती गयी। उन्होंने समस्त पारिवारिक एवं संसारिक बंधनों से मुक्ति ले ली और साधु-संतों के साथ सत्संग व भगवत चर्चा करने लगी। मीरा की श्रीकृष्ण के प्रति दीवानगी बढ़ती ही गयी। इससे क्रोधित होकर मीरा के देवर ने उनकी हत्या का षड़यंत्र भी रचा और उनकी हत्या करने के उद्देश्य से पिटारे में एक सर्प व एक बार विष का प्याला भी भेजा जिसे उन्होंने पी लिया लेकिन उन पर कोई असर नहीं हुआ। यह देखकर लोग आश्चर्यचकित हुए। इन षड़यंत्रों से दुःखी होकर मीरा तीर्थयात्रा का बहाना बनाकर वृंदावन गई और वहां से द्वारिका चली गयी।