"महावीर" के अवतरणों में अंतर

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वीरःसर्व सुरासुरेंद्र महितो , वीरं बुधाः संश्रिताः ।
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<poem>वीरःसर्व सुरासुरेंद्र महितो , वीरं बुधाः संश्रिताः ।
 
वीरेणैव हतः स्वकर्मनिचयो , वीराय भक्त्या नम ।।
 
वीरेणैव हतः स्वकर्मनिचयो , वीराय भक्त्या नम ।।
 
वीरात्तीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं , वीरस्य वीरं तपो ।
 
वीरात्तीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं , वीरस्य वीरं तपो ।
वीरे श्री द्युतिकांतिकीर्तिधृतयो , हे वीर ! भद्रं त्वयि ।।१।।
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वीरे श्री द्युतिकांतिकीर्तिधृतयो , हे वीर ! भद्रं त्वयि ।।1।।</poem>
 
 
 
[[भारत]] के वृज्जि गणराज्य की वैशाली नगरी के निकट [[कुण्डग्राम]] में राजा सिद्धार्थ अपनी पत्नी प्रियकारिणी के साथ निवास करते थे। [[इन्द्र]] ने यह जानकर कि प्रियकारिणी के गर्भ से तीर्थंकर पुत्र का जन्म होने वाला है, उन्होंने प्रियकारिणी की सेवा के लिए षटकुमारिका देवियों को भेजा। प्रियकारिणी ने [[ऐरावत]] हाथी के स्वप्न देखे, जिससे राजा सिद्धार्थ ने भी यही अनुमान लगाया कि तीर्थंकर का जन्म होगा। [[आषाढ़]], [[शुक्ल पक्ष]] की [[षष्ठी]] के अवसर पर पुरुषोत्तर विमान से आकर प्राणतेन्द्र ने प्रियकारिणी के गर्भ में प्रवेश किया। [[चैत्र]], [[शुक्ल पक्ष]] की [[त्रयोदशी]] को [[सोमवार]] के दिन वर्धमान का जन्म हुआ। देवताओं को इसका पूर्वाभास था। अत: सबने विभिन्न प्रकार के उत्सव मनाये तथा बालक को विभिन्न नामों से विभूषित किया। इस बालक का नाम सौधर्मेन्द्र ने वर्धमान रखा तो ऋद्धिधारी मुनियों ने सन्मति रखा। संगमदेव ने उसके अपरिमित साहस की परीक्षा लेकर उसे महावीर नाम से अभिहित किया।
 
[[भारत]] के वृज्जि गणराज्य की वैशाली नगरी के निकट [[कुण्डग्राम]] में राजा सिद्धार्थ अपनी पत्नी प्रियकारिणी के साथ निवास करते थे। [[इन्द्र]] ने यह जानकर कि प्रियकारिणी के गर्भ से तीर्थंकर पुत्र का जन्म होने वाला है, उन्होंने प्रियकारिणी की सेवा के लिए षटकुमारिका देवियों को भेजा। प्रियकारिणी ने [[ऐरावत]] हाथी के स्वप्न देखे, जिससे राजा सिद्धार्थ ने भी यही अनुमान लगाया कि तीर्थंकर का जन्म होगा। [[आषाढ़]], [[शुक्ल पक्ष]] की [[षष्ठी]] के अवसर पर पुरुषोत्तर विमान से आकर प्राणतेन्द्र ने प्रियकारिणी के गर्भ में प्रवेश किया। [[चैत्र]], [[शुक्ल पक्ष]] की [[त्रयोदशी]] को [[सोमवार]] के दिन वर्धमान का जन्म हुआ। देवताओं को इसका पूर्वाभास था। अत: सबने विभिन्न प्रकार के उत्सव मनाये तथा बालक को विभिन्न नामों से विभूषित किया। इस बालक का नाम सौधर्मेन्द्र ने वर्धमान रखा तो ऋद्धिधारी मुनियों ने सन्मति रखा। संगमदेव ने उसके अपरिमित साहस की परीक्षा लेकर उसे महावीर नाम से अभिहित किया।
  
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#वस्त्रों के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु का संचय न करना।
 
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प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन ने अपने ग्रंथ [[भगवान महावीर एवं जैन दर्शन]] में प्रतिपादित किया है कि भगवान महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक नहीं हैं। वे प्रवर्तमान काल के चौबीसवें तीर्थंकर हैं। आपने आत्मजय की साधना को अपने ही पुरुषार्थ एवं चारित्र्य से सिद्ध करने की विचारणा को लोकोन्मुख बनाकर भारतीय साधना परम्परा में कीर्तिमान स्थापित किया। आपने धर्म के क्षेत्र में मंगल क्रांति सम्पन्न की।
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जैन ग्रंथ [[भगवान महावीर एवं जैन दर्शन]] में प्रतिपादित है कि भगवान महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक नहीं हैं। वे प्रवर्तमान काल के चौबीसवें तीर्थंकर हैं। आपने आत्मजय की साधना को अपने ही पुरुषार्थ एवं चारित्र्य से सिद्ध करने की विचारणा को लोकोन्मुख बनाकर भारतीय साधना परम्परा में कीर्तिमान स्थापित किया। आपने धर्म के क्षेत्र में मंगल क्रांति सम्पन्न की। आपने उद्घोष किया कि आँख मूँदकर किसी का अनुकरण या अनुसरण मत करो। धर्म दिखावा नहीं है, रूढ़ि नहीं है, प्रदर्शन नहीं है, किसी के भी प्रति घृणा एवं द्वेषभाव नहीं है। आपने धर्मों के आपसी भेदों के विरुद्ध आवाज उठाई। धर्म को कर्म-कांडों, अंधविश्वासों, पुरोहितों के शोषण तथा भाग्यवाद की अकर्मण्यता की जंजीरों के जाल से बाहर निकाला। आपने घोषणा की कि धर्म उत्कृष्ट मंगल है।धर्म एक ऐसा पवित्र अनुष्ठान है जिससे आत्मा का शुद्धिकरण होता है। धर्म न कहीं गाँव में होता है और न कहीं जंगल में, बल्कि वह तो अन्तरात्मा में होता है। साधना की सिद्धि परमशक्ति का अवतार बनकर जन्म लेने में अथवा साधना के बाद परमात्मा में विलीन हो जाने में नहीं है, बहिरात्मा के अन्तरात्मा की प्रक्रिया से गुजरकर स्वयं परमात्मा हो जाने में है। प्रोफेसर जैन ने स्पष्ट किया है कि वर्तमान में जैन भजनों में भगवान महावीर को 'अवतारी' वर्णित किया जा रहा है। यह मिथ्या ज्ञान का प्रतिफल है। वास्तव में भगवान महावीर का जन्म किसी अवतार का पृथ्वी पर शरीर धारण करना नहीं है। उनका जन्म नारायण का नर शरीर धारण करना नहीं है, नर का ही नारायण हो जाना है। परमात्म शक्ति का आकाश से पृथ्वी पर अवतरण नहीं है। कारण-परमात्मास्वरूप का उत्तारण द्वारा कार्य-परमात्मस्वरूप होकर सिद्धालय में जाकर अवस्थित होना है। भगवान महावीर की क्रांतिकारी अवधारणा थी कि जीवात्मा ही ब्रह्म है।<ref>{{cite web |url=http://www.rachanakar.org/2010/03/blog-post_3876.html |title=महावीर सरन जैन का आलेख : भगवान महावीर |accessmonthday=6 अगस्त |accessyear=2013 |last=जैन |first=प्रोफेसर महावीर सरन |authorlink= |format= |publisher=रचनाकार (ब्लॉग)|language=हिंदी}}</ref>
आपने उद्घोष किया कि आँख मूँदकर किसी का अनुकरण या अनुसरण मत करो। धर्म दिखावा नहीं है, रूढ़ि नहीं है, प्रदर्शन नहीं है, किसी के भी प्रति घृणा एवं द्वेषभाव नहीं है। आपने धर्मों के आपसी भेदों के विरुद्ध आवाज उठाई। धर्म को कर्म-कांडों, अंधविश्वासों, पुरोहितों के शोषण तथा भाग्यवाद की अकर्मण्यता की जंजीरों के जाल से बाहर निकाला। आपने घोषणा की कि धर्म उत्कृष्ट मंगल है।धर्म एक ऐसा पवित्र अनुष्ठान है जिससे आत्मा का शुद्धिकरण होता है। धर्म न कहीं गाँव में होता है और न कहीं जंगल में, बल्कि वह तो अन्तरात्मा में होता है। साधना की सिद्धि परमशक्ति का अवतार बनकर जन्म लेने में अथवा साधना के बाद परमात्मा में विलीन हो जाने में नहीं है, बहिरात्मा के अन्तरात्मा की प्रक्रिया से गुजरकर स्वयं परमात्मा हो जाने में है। प्रोफेसर जैन ने स्पष्ट किया है कि वर्तमान में जैन भजनों में भगवान महावीर को 'अवतारी' वर्णित किया जा रहा है। यह मिथ्या ज्ञान का प्रतिफल है। वास्तव में भगवान महावीर का जन्म किसी अवतार का पृथ्वी पर शरीर धारण करना नहीं है। उनका जन्म नारायण का नर शरीर धारण करना नहीं है, नर का ही नारायण हो जाना है। परमात्म शक्ति का आकाश से पृथ्वी पर अवतरण नहीं है। कारण-परमात्मास्वरूप का उत्तारण द्वारा कार्य-परमात्मस्वरूप होकर सिद्धालय में जाकर अवस्थित होना है। भगवान महावीर की क्रांतिकारी अवधारणा थी कि जीवात्मा ही ब्रह्म है।
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आत्मा ही सर्वकर्मों का नाश कर सिद्ध लोक में सिद्ध पद प्राप्त करती है। इस अवधारणा के आधार पर उन्होंने प्रतिपादित किया कि कल्पित एवं सृजित शक्तियों के पूजन से नहीं अपितु अन्तरात्मा के सम्यग्‌ ज्ञान, सम्यग्‌ दर्शन एवं सम्यग्‌ चारित्र्य से ही आत्म साक्षात्कार सम्भव है, उच्चतम विकास सम्भव है।
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भगवान महावीर ने सभी के लिए धर्माचरण के नियम बनाए। आपने पहचाना कि धर्म साधना केवल संन्यासियों एवं मुनियों के लिए ही नहीं अपितु गृहस्थों के लिए भी आवश्यक है। इसी कारण आपने संन्यस्तों के लिए महाव्रतों के आचरण का विधान किया तथा गृहस्थों के लिए अणुव्रतों के पालन का विधान किया। धर्म केवल पुरुषों के लिए ही नहीं, स्त्रियों के लिए भी आवश्यक है।
 
चन्दनबाला को आर्यिका/साध्वी संघ की प्रथम सदस्या बनाकर आपने स्त्रियों के लिए अलग ही संघ बना दिया। उनके युग में नारी की स्थिति सम्भवतः सम्मानजनक नहीं थी। भगवान महावीर के संध में मुनियों एवं श्रावकों की अपेक्षा आर्यिकाओं/साध्वियों एवं श्राविकाओ की कई गुनी संख्या का होना इस बात का प्रमाण है कि युगीन नारी-जाति महावीर की देशना से कितना अधिक भावित हुई।
 
भगवान महावीर का संदेश प्राणी मात्र के कल्याण के लिए है। उन्होंने मनुय-मनुष्य के बीच भेदभाव की सभी दीवारों को ध्वस्त किया। उन्होंने जन्मना वर्ण व्यवस्था का विरोध किया। इस विश्व में न कोई प्राणी बड़ा है और न कोई छोटा। उन्होंने गुण-कर्म के आधार पर मनुष्य के महत्व का प्रतिपादन किया। ऊँच-नीच, उन्नत-अवनत, छोटे-बड़े सभी अपने कर्मों से बनते हैं। जातिवाद अतात्विक है।सभी समान हैं न कोई छोटा, न कोई बड़ा। भगवान की दृष्टि समभावी थी- सर्वत्र समता-भाव। वे सम्पूर्ण विश्व को समभाव से देखने वाले साधक थे, समता का आचरण करने वाले साधक थे। उनका प्रतिमान था-जो व्यक्ति अपने संस्कारों का निर्माण करता है, वही साधना का अधिकारी है। उनकी वाणी ने प्राणी मात्र के जीवन में मंगल प्रभात का उदय किया।
 
जब भगवान से यह जिज्ञासा व्यक्त की गई कि आत्मा आँखों से नहीं दिखाई देती तथा इस आधार पर आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में शंका व्यक्त की गई तो भगवान ने उत्तर दिया : 'भवन के सब दरवाजे एवं खिड़कियाँ बन्द करने के बाद भी जब भवन के अन्दर संगीत की मधुर ध्वनि होती है तब आप उसे भवन के बाहर निकलते हुए नहीं देख पाते। आँखों से दिखाई न पड़ने के बावजूद संगीत की मधुर ध्वनि बाहर खड़े श्रोताओं को आच्छादित करती है। संगीत की ध्वनि पौद्गलिक (भौतिक द्रव्य) है।
 
आत्मा अरूपी एवं अमूर्तिक है। आँखें अरूपी आत्मा को किस प्रकार देख सकती हैं? अमूर्तिक आत्मा का इन्द्रिय दर्शन नहीं होता, अनुभूति होती है। प्रत्येक आत्मा में परम ज्योति समाहित है। प्रत्येक चेतन में परम चेतन समाहित है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में स्वतंत्र, मुक्त, निर्लेप एवं निर्विकार है। प्रत्येक आत्मा अपने पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकती है। शुद्ध तात्विक दृष्टि से जो परमात्मा है वही मैं हूँ और जो मैं हूँ वही परमात्मा हैं। मनुष्य अपने सत्कर्म से उन्नत होता है।
 
भगवान महावीर ने स्पष्ट रूप में प्रत्येक व्यक्ति को मुक्त होने का अधिकार प्रदान किया। मुक्ति दया का दान नहीं है, यह प्रत्येक व्यक्ति का जन्म सिद्ध अधिकार है। जो आत्मा बंध का कर्ता है, वही आत्मा बंधन से मुक्ति प्रदाता है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता है। मनुष्य अपने भाग्य का नियंता है। मनुष्य अपने भाग्य का विधाता है। भगवान महावीर का कर्मवाद भाग्यवाद नहीं है, भाग्य का निर्माता है। भगवान महावीर ने अहिंसा की परिधि को विस्तार दिया। आपकी अहिंसा दया एवं करुणा पर आधारित नहीं है, मैत्री भाव पर आधारित है। आपकी अहिंसा का चिन्तन प्राणी मात्र के प्रति आत्म-तुल्यता एवं बंधुभाव की सहज प्रेरणा प्रदान करता है। आपने अहिंसा को परम धर्म के रूप में मान्यता प्रदान कर धर्म की सामाजिक भूमिका को रेखांकित किया। आर्थिक विषमताओं के समाधान का रास्ता परिग्रह-परिमाण-व्रत के विधान द्वारा निकाला। वैचारिक क्षेत्र में अहिंसावाद स्थापित करने के लिए अनेकांतवादी जीवन दृष्टि प्रदान की। व्यक्ति की समस्त जिज्ञासाओं का समाधान स्याद्वाद की अभिव्यक्ति के मार्ग को अपनाकर किया। प्रत्येक वस्तु में अनेक गुण धर्म होते हैं।
 
इस कारण हमें किसी वस्तु पर 'एकांत' दृष्टि से नहीं अपितु अनेकांत दृष्टि से विचार करना चाहिए। अनेकांत एकांगी एवं आग्रह के विपरीत समग्रबोध एवं अनाग्रह का द्योतक है। इसी प्रकार 'स्याद्वाद' के 'स्यात्‌' निपात का अर्थ है- अपेक्षा से। स्याद्वाद का अर्थ है- अपेक्षा से कथन करने की विधि या पद्धति। अनेक गुण-धर्म वाली वस्तु के प्रत्येक गुण-धर्म को अपेक्षा से कथन करने की पद्धति। प्रतीयमान विरोधी दर्शनों में अनेकांत दृष्टि से समन्वय स्थापित कर सर्वधर्म समभाव की आधारशिला रखी जा सकती है।
 
मानव की मूलभूत भौतिक आवश्यकताओं एवं मानसिक आकांक्षाओं को पूरा करने वाली न्यायसंगत विश्व व्यवस्था की स्थापना अहिंसा मूलक जीवन दर्शन के आधार पर सम्भव है। भौतिकवादी दृष्टि है- योग्यतम की उत्तरजीविता। इसके विपरीत भगवान महावीर की दृष्टि है- विश्व के सभी पदार्थ परस्पर उपकारक हैं। भौतिकवादी दृष्टि संघर्ष एवं दोहन की वृत्तियों का संचार करती है। अहिंसा की भावना पर आधारित विश्व शान्ति की प्रासंगिकता, सार्थकता एवं प्रयोजनशीलता स्वयंसिद्ध है।
 
विश्व शान्ति की सार्थकता एक नए विश्व के निर्माण में है जिसके लिए विश्व के सभी देशों में सद्भावना का विकास आवश्यक है। सह-अस्तित्व की परिपुष्टि के लिए आत्म तुल्यता एवं समभाव की विचारणा का पल्लवन आवश्यक है। अंतरराष्ट्रीय सद्भावना के लिए विश्व बंधुत्व की भावना का पल्लवन आवश्यक है। प्रोफेसर महावीर सरन जैन ने अपने ग्रंथ में अपनी कामना व्यक्त की है कि आज के युग ने मशीनी सभ्यता के चरम विकास से सम्भावित विनाश के जिस राक्षस को उत्पन्न कर लिया है वह किसी यंत्र से नहीं, अपितु 'अहिंसा-मंत्र' से ही नष्ट हो सकता है। भगवान महावीर ने प्राणी मात्र के कल्याण के लिए आत्मतुल्यता एवं अनेकांतवाद की लेखनी से अहिंसा, सत्य एवं अपरिग्रह के पृष्ठों पर स्याद्वाद की स्याही से धर्म-आचरण का जो प्रतिमान एवं कीर्तिमान प्रस्थापित किया है वह सर्वोदय का कारक बने- मेरी यही मंगल कामना है।
 
  
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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13:48, 6 अगस्त 2013 का अवतरण

महावीर
Mahaveer

महावीर या वर्धमान महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान ऋषभनाथ[1] की परम्परा में 24वें जैन तीर्थंकर थे। इनका जीवन काल 599 ई. ईसा पूर्व से 527 ई. ईसा पूर्व तक माना जाता है। इनकी माता का नाम त्रिशला देवी और पिता का नाम राजा सिद्धार्थ था। बचपन में इनका नाम 'वर्धमान' था, लेकिन बाल्यकाल से ही यह साहसी, तेजस्वी, ज्ञान पिपासु और अत्यंत बलशाली होने के कारण 'महावीर' कहलाए। भगवान महावीर ने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया था, जिस कारण इन्हें 'जीतेंद्र' भी कहा जाता है।

विवाह

कलिंग नरेश की कन्या यशोदा से महावीर का विवाह हुआ। किंतु 30 वर्ष की उम्र में अपने ज्येष्ठबंधु की आज्ञा लेकर इन्होंने घर-बार छोड़ दिया और तपस्या करके 'कैवल्य ज्ञान' प्राप्त किया। महावीर ने पार्श्वनाथ के आरंभ किए तत्वज्ञान को परिमार्जित करके उसे जैन दर्शन का स्थायी आधार प्रदान किया। महावीर ऐसे धार्मिक नेता हैं, जिन्होंने राज्य का या किसी बाहरी शक्ति का सहारा लिए बिना, केवल अपनी श्रद्धा के बल पर जैन धर्म की पुन: प्रतिष्ठा की। आधुनिक काल में जैन धर्म की व्यापकता और उसके दर्शन का पूरा श्रेय महावीर को दिया जाता है।

दीक्षा प्राप्ति

महावीर स्वामी के शरीर का वर्ण सुवर्ण और चिह्न सिंह था। इनके यक्ष का नाम ब्रह्मशांति और यक्षिणी का नाम सिद्धायिका देवी था। जैन धर्मावलम्बियों के अनुसार भगवान महावीर के गणधरों की कुल संख्या 11 थी, जिनमें गौतम स्वामी इनके प्रथम गणधर थे। महावीर ने मार्गशीर्ष दशमी को कुंडलपुर में दीक्षा की प्राप्ति की और दीक्षा प्राप्ति के पश्चात 2 दिन बाद खीर से इन्होनें प्रथम पारणा किया। दीक्षा प्राप्ति के बाद 12 वर्ष और 6.5 महीने तक कठोर तप करने के बाद वैशाख शुक्ल दशमी को ऋजुबालुका नदी के किनारे 'साल वृक्ष' के नीचे भगवान महावीर को 'कैवल्य ज्ञान' की प्राप्ति हुई थी।[2]

कुण्डलपुर महोत्सव

दिगम्बर जैन आगम ग्रंथों के अनुसार भगवान महावीर विहार प्रांत के कुंडलपुर नगर में आज (सन 2013) से 2612 वर्ष पूर्व महाराजा सिद्धार्थ की महारानी त्रिशला के गर्भ से चैत्र कृष्णा तेरस को जन्मे थे। वह कुंडलपुर वर्तमान में नालंदा ज़िले में अवस्थित है। वहाँ सन् 2002 में जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी अपने संघ के साथ पदविहार करके गईं और उनकी पावन प्रेरणा से कुंडलपुर में 2600 वर्ष प्राचीन नंद्यावर्त महल की प्रतिकृति का (7 मंज़िल ऊँचा) निर्माण हुआ। जिसे बिहार सरकार का पर्यटन विभाग पर्यटकों के लिए ख़ूब प्रचारित कर रहा है। अतः वहाँ प्रतिदिन पर्यटकों एवं तीर्थयात्रियों का ताँता लगा रहता है। कुंडलपुर में प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन बिहार सरकार एवं कुंडलपुर दिगंबर जैन समिति के द्वारा कुण्डलपुर महोत्सव आयोजित किया जाता है। इस वर्ष यह महोत्सव 23 अप्रैल 2013 को आयोजित किया गया। इन्हें भी देखें: कैवल्य ज्ञान

अन्य नाम

महावीर के अनेक नाम हैं- 'अर्हत', 'जिन', 'निर्ग्रथ', 'महावीर', 'अतिवीर' आदि। इनके 'जिन' नाम से ही आगे चलकर इस धर्म का नाम 'जैन धर्म' पड़ा। जैन धर्म में अहिंसा तथा कर्मों की पवित्रता पर विशेष बल दिया जाता है। उनका तीसरा मुख्य सिद्धांत 'अनेकांतवाद' है, जिसके अनुसार दूसरों के दृष्टिकोण को भी ठीक-ठाक समझ कर ही पूर्ण सत्य के निकट पहुँचा जा सकता है। भगवान महावीर अहिंसा और अपरिग्रह की साक्षात मूर्ति थे। वे सभी के साथ सामान भाव रखते थे और किसी को कोई भी दुःख देना नहीं चाहते थे। अपनी श्रद्धा से जैन धर्म को पुनः प्रतिष्ठापित करने के बाद कार्तिक मास की अमावस्या को दीपावली के दिन पावापुरी में भगवान महावीर ने निर्वाण को प्राप्त किया।

वर्धमान

वीरःसर्व सुरासुरेंद्र महितो , वीरं बुधाः संश्रिताः ।
वीरेणैव हतः स्वकर्मनिचयो , वीराय भक्त्या नम ।।
वीरात्तीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं , वीरस्य वीरं तपो ।
वीरे श्री द्युतिकांतिकीर्तिधृतयो , हे वीर ! भद्रं त्वयि ।।1।।

भारत के वृज्जि गणराज्य की वैशाली नगरी के निकट कुण्डग्राम में राजा सिद्धार्थ अपनी पत्नी प्रियकारिणी के साथ निवास करते थे। इन्द्र ने यह जानकर कि प्रियकारिणी के गर्भ से तीर्थंकर पुत्र का जन्म होने वाला है, उन्होंने प्रियकारिणी की सेवा के लिए षटकुमारिका देवियों को भेजा। प्रियकारिणी ने ऐरावत हाथी के स्वप्न देखे, जिससे राजा सिद्धार्थ ने भी यही अनुमान लगाया कि तीर्थंकर का जन्म होगा। आषाढ़, शुक्ल पक्ष की षष्ठी के अवसर पर पुरुषोत्तर विमान से आकर प्राणतेन्द्र ने प्रियकारिणी के गर्भ में प्रवेश किया। चैत्र, शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को सोमवार के दिन वर्धमान का जन्म हुआ। देवताओं को इसका पूर्वाभास था। अत: सबने विभिन्न प्रकार के उत्सव मनाये तथा बालक को विभिन्न नामों से विभूषित किया। इस बालक का नाम सौधर्मेन्द्र ने वर्धमान रखा तो ऋद्धिधारी मुनियों ने सन्मति रखा। संगमदेव ने उसके अपरिमित साहस की परीक्षा लेकर उसे महावीर नाम से अभिहित किया।

विवेक उत्पन्न होने पर औपाधिक दुख सुखादि - अहंकार, प्रारब्ध, कर्म और संस्कार के लोप हो जाने से आत्मा के चितस्वरूप होकर आवागमन से मुक्त हो जाने की स्थिति को कैवल्य कहते हैं। पातंजलसूत्र के अनुसार चित्‌ द्वारा आत्मा के साक्षात्कार से जब उसके कर्त्तृत्त्व आदि अभिमान छूटकर कर्म की निवृत्ति हो जाती है तब विवेकज्ञान के उदय होने पर मुक्ति की ओर अग्रसारित आत्मा के चित्स्वरूप में जो स्थिति उत्पन्न होती हैं उसकी संज्ञा कैवल्य है। वेदांत के अनुसार परामात्मा में आत्मा की लीनता और न्याय के अनुसार अदृष्ट के नाश होने के फलस्वरूप आत्मा की जन्ममरण से मुक्तावस्था को कैवल्य कहा गया है। योगसूत्रों के भाष्यकार व्यास के अनुसार, जिन्होंने कर्मबंधन से मुक्त होकर कैवल्य प्राप्त किया है, उन्हें 'केवली' कहा जाता है। ऐसे केवली अनेक हुए है। बुद्धि आदि गुणों से रहित निर्मल ज्योतिवाले केवली आत्मरूप में स्थिर रहते हैं। हिंदू धर्मग्रंथों में शुक, जनक आदि ऋषियों को जीवन्मुक्त बताया है जो जल में कमल की भाँति, संसार में रहते हुए भी मुक्त जीवों के समान निर्लेप जीवनयापन करते है। जैन ग्रंथों में केवलियों के दो भेद - संयोगकेवली और अयोगकेवली बताए गए है।

आचार-संहिता

महावीर ने जो आचार-संहिता बनाई वह निम्न प्रकार है-

  1. किसी भी जीवित प्राणी अथवा कीट की हिंसा न करना
  2. किसी भी वस्तु को किसी के दिए बिना स्वीकार न करना
  3. मिथ्या भाषण न करना
  4. आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना
  5. वस्त्रों के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु का संचय न करना।

जैन ग्रंथ भगवान महावीर एवं जैन दर्शन में प्रतिपादित है कि भगवान महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक नहीं हैं। वे प्रवर्तमान काल के चौबीसवें तीर्थंकर हैं। आपने आत्मजय की साधना को अपने ही पुरुषार्थ एवं चारित्र्य से सिद्ध करने की विचारणा को लोकोन्मुख बनाकर भारतीय साधना परम्परा में कीर्तिमान स्थापित किया। आपने धर्म के क्षेत्र में मंगल क्रांति सम्पन्न की। आपने उद्घोष किया कि आँख मूँदकर किसी का अनुकरण या अनुसरण मत करो। धर्म दिखावा नहीं है, रूढ़ि नहीं है, प्रदर्शन नहीं है, किसी के भी प्रति घृणा एवं द्वेषभाव नहीं है। आपने धर्मों के आपसी भेदों के विरुद्ध आवाज उठाई। धर्म को कर्म-कांडों, अंधविश्वासों, पुरोहितों के शोषण तथा भाग्यवाद की अकर्मण्यता की जंजीरों के जाल से बाहर निकाला। आपने घोषणा की कि धर्म उत्कृष्ट मंगल है।धर्म एक ऐसा पवित्र अनुष्ठान है जिससे आत्मा का शुद्धिकरण होता है। धर्म न कहीं गाँव में होता है और न कहीं जंगल में, बल्कि वह तो अन्तरात्मा में होता है। साधना की सिद्धि परमशक्ति का अवतार बनकर जन्म लेने में अथवा साधना के बाद परमात्मा में विलीन हो जाने में नहीं है, बहिरात्मा के अन्तरात्मा की प्रक्रिया से गुजरकर स्वयं परमात्मा हो जाने में है। प्रोफेसर जैन ने स्पष्ट किया है कि वर्तमान में जैन भजनों में भगवान महावीर को 'अवतारी' वर्णित किया जा रहा है। यह मिथ्या ज्ञान का प्रतिफल है। वास्तव में भगवान महावीर का जन्म किसी अवतार का पृथ्वी पर शरीर धारण करना नहीं है। उनका जन्म नारायण का नर शरीर धारण करना नहीं है, नर का ही नारायण हो जाना है। परमात्म शक्ति का आकाश से पृथ्वी पर अवतरण नहीं है। कारण-परमात्मास्वरूप का उत्तारण द्वारा कार्य-परमात्मस्वरूप होकर सिद्धालय में जाकर अवस्थित होना है। भगवान महावीर की क्रांतिकारी अवधारणा थी कि जीवात्मा ही ब्रह्म है।[3]


इन्हें भी देखें: वर्धमान एवं महावीर जयन्ती

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री आदिनाथ
  2. श्री पार्श्वनाथ जी (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 04 मार्च, 2012।
  3. जैन, प्रोफेसर महावीर सरन। महावीर सरन जैन का आलेख : भगवान महावीर (हिंदी) रचनाकार (ब्लॉग)। अभिगमन तिथि: 6 अगस्त, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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