"गीता 14:16": अवतरणों में अंतर

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श्रेष्ठ कर्म का तो सात्विक अर्थात् सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है; राजस कर्म का फल दु:ख एवं तामस कर्म का फल अज्ञान कहा है ।।16।।
श्रेष्ठ कर्म का तो सात्विक अर्थात् सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है; राजस कर्म का फल दु:ख एवं तामस कर्म का फल अज्ञान कहा है ।।16।।
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10:28, 6 जनवरी 2013 के समय का अवतरण

गीता अध्याय-14 श्लोक-16 / Gita Chapter-14 Verse-16

प्रसंग-


सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों की वृद्धि में मरने के भिन्न-भिन्न फल बतलाये गये; इससे यह जानने की इच्छा होती है कि इस प्रकार कभी किसी गुण की कभी किसी गुण की वृद्धि क्यों होती है ? इस पर कहते हैं-


कर्मण: सुकृतस्याहु: सात्विकं निर्मलं फलम् ।
रजसस्तुफलं दु:खमज्ञानं तमस:फलम् ।।16।।



श्रेष्ठ कर्म का तो सात्विक अर्थात् सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है; राजस कर्म का फल दु:ख एवं तामस कर्म का फल अज्ञान कहा है ।।16।।

The reward of a righteous act, they say, is Sattvika and faultless (in the shape of joy, wisdom and dispassion etc.); sorrow is declared to be the fruit of a Rajas act and ignorance, the result of a Tamas act. (16)


सुकृतस्य = सात्त्विक ; तु = तो ; सात्त्विकम् = सात्त्विक अर्थात् सुख ज्ञान और वैराग्यादि ; निर्मलम् = निर्मल ; फलम् = फल ; आहु: = कहा है (और) ; कर्मण: = कर्मका ; रजस: = राजस कर्मका ; फलम् = फल ; दु:खम् = दु:ख (एवं) ; तमस: = तामस कर्मका ; फलम् = फल ; अज्ञानम् = अज्ञान (कहा है)



अध्याय चौदह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-14

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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