"गीता 5:3": अवतरणों में अंतर
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'''ज्ञेय: स | '''ज्ञेय: स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।'''<br/> | ||
'''निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ।।3।।''' | '''निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ।।3।।''' | ||
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हे [[अर्जुन]]<ref>[[महाभारत]] के मुख्य पात्र है। वे [[पाण्डु]] एवं [[कुन्ती]] के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। [[द्रोणाचार्य]] के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। [[द्रौपदी]] को [[स्वयंवर]] में भी उन्होंने ही जीता था।</ref> ! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा | हे [[अर्जुन]]<ref>[[महाभारत]] के मुख्य पात्र है। वे [[पाण्डु]] एवं [[कुन्ती]] के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। [[द्रोणाचार्य]] के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। [[द्रौपदी]] को [[स्वयंवर]] में भी उन्होंने ही जीता था।</ref> ! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है, क्योंकि राग-द्वेषादि द्वन्द्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार बन्धन से मुक्त हो जाता है ।।3।। | ||
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महाबाहो = हे अर्जुन: य: = जो पुरुष; द्वेष्टि = द्वेष करता है; काड़गति = आकाड़ा करता है; स: = वह (निष्काम कर्मयोगी); नित्य | महाबाहो = हे अर्जुन: य: = जो पुरुष; द्वेष्टि = द्वेष करता है; काड़गति = आकाड़ा करता है; स: = वह (निष्काम कर्मयोगी); नित्य संन्यासी = सदा संन्यासी ही; ज्ञेय: = समझने योग्य है; हि = क्योंकि; निर्द्वषादि द्वन्दों से रहित हुआ पुरुष; सुखम् = सुखपूर्वक; बन्धात् = संसाररूप बन्धन से; प्रमुच्यते = मुक्त हो जाता है। | ||
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11:44, 3 अगस्त 2017 के समय का अवतरण
गीता अध्याय-5 श्लोक-3 / Gita Chapter-5 Verse-3
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टीका टिप्पणी और संदर्भसंबंधित लेख |
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