जो निरन्तर आत्मभाव में स्थित, दु:ख-सु ख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक सा मानने वाला और अपनी निन्दा-स्तुति में भी समान भाव वाला है ।।24।।
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He who is ever established in the Self, takes woe and joy alike, regards a clod of earth, a stone and a piece of gold as equal in value, is possessed of wisdom, perceives the pleasant as well as the unpleasant in the same spirit, and views censure and praise alike. (24)
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