मानसून

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मानसून की वर्षा

मानसून से अभिप्राय है- 'वे हवाएँ है, जिनकी दिशा ऋतु के अनुसार बदल जाती है।' या 'हिन्द महासागर एवं अरब सागर की ओर से भारत के दक्षिण-पश्चिम तट पर आनी वाली वे विशेष हवाएँ, जो भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि में भारी वर्षा करातीं हैं।' मानसून भारतीय कृषि और अर्थव्यवस्था के लिए बेहद अहम है, इसके साथ ही भारत के लोक जीवन से भी गहरे जुड़ा है। यह गर्मी की तपिश से निजात दिलाता है और लोगों में उत्साह व खुशी का संचार करता है। भारत में मानसून हिन्द महासागर व अरब सागर की ओर से हिमालय की ओर आने वाली हवाओं पर निर्भर करता है। जब ये हवाएँ भारत के दक्षिण-पश्चिम तट पर पश्चिमी घाट से टकराती हैं तो भारत तथा आस-पास के देशों में भारी वर्षा होती है। ये हवाएँ दक्षिण एशिया में जून से सितम्बर तक सक्रिय रहती हैं। वैसे किसी भी क्षेत्र का मानसून उसकी जलवायु पर निर्भर करता है।

प्रकार

भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ की अर्थव्यवस्था अधिकांशत: कृषि पर ही निर्भर है। इसीलिए यह बहुत आवश्यक है कि पर्याप्त मात्रा में जल कृषि के लिए उपलब्ध हो। मानसून में होने वाली अच्छी वर्षा काफ़ी हद तक किसानों को समृद्ध बना देती है। भारत ही नहीं विश्व की कई प्रमुख फ़सलें मानसूनी वर्षा पर निर्भर हैं। भारत अगर छह ऋतुओं का देश है, तो मानसून उस चक्र की धुरी है। आज भी मानसून से होने वाली वर्षा, भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार है। सकल घरेलू उत्पाद का 30 प्रतिशत कृषि से आता है, जबकि लगभग 67 प्रतिशत मजदूरों की निर्भरता कृषि या इस पर आधारित उद्योगों पर ही है। मानसूनी हवाओं के दो प्रकार होते हैं-

  1. गर्मी का मानसून, जो अप्रैल से सितम्बर तक चलता है।
  2. जाड़े का मानसून, जो अक्टूबर से मार्च तक चलता है।

भारत में वर्षा करने वाला मानसून दो शाखाओं में बँटा होता है-

  1. अरब सागर का मानसून
  2. बंगाल की खाड़ी का मानसून

अर्थ तथा विस्तार

भारत समेत पूरे दक्षिण एशिया में कृषि का आधार मानसून है। 'मानसून' शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के 'मौसिम' शब्द से हुई है। अरब के समुद्री व्यापारियों ने समुद्र से स्थल की ओर या इसके विपरीत चलने वाली हवाओं को 'मौसिम' कहा, जो आगे चलकर 'मानसून' कहा जाने लगा। मानसून का जादू और इसका जीवन–संगीत भारतीय उपमहाद्वीप में ही फैला हो, ऐसा नहीं है। वास्तव में, यह पृथ्वी पर सबसे बड़ी जलवायु संरचना है। भूगोल पर इसका विस्तार लगभग 10 डिग्री दक्षिणी अक्षांश से लेकर 25 डिग्री उत्तरी अक्षांश तक है। यद्यपि मानसून मुख्य रूप से दक्षिण और दक्षिण–पूर्व एशिया, मध्य अफ़्रीका तथा उत्तरी ऑस्ट्रेलिया में पूर्ण विकसित रूप में मिलता है, किंतु अमेरिका और मेक्सिको के पश्चिमी भागों तक इसके तार जुड़े हैं। संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा एशिया में थाइलैंड, म्यांमार, लाओस तथा वियतनाम में मानसून का प्रभाव गर्मियों में स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है, जबकि हिन्द महासागर के विस्तृत जलराशि के चलते इंडोनेशियाई द्वीप समूहों पर इसका प्रभाव कम है। दक्षिणी चीन एवं फिलीपींस में जाड़े के दिनों में चलने वाली व्यापारिक पवनों का गर्मी के दिनों में गायब होना भी मानसूनी हवाओं के चलते ही है।[1]

भौगोलिक तथ्य

प्रकृति के लय-ताल में बँधे मानसून चक्र को पृथ्वी और समुद्री जल के ऊपर वर्ष भर पड़ने वाली सौर ऊष्मा के फलस्वरूप होने वाले तापांतर के रूप में समझा जा सकता है। जलीय एवं स्थलीय भागों में सौर विकिरण को धारण करने की क्षमता अलग-अलग होती है। स्थल भाग की तुलना में, सूर्य की ऊष्मा समुद्री जल को अधिक देर से गर्म कर पाती है। जाड़े के पश्चात अप्रैल-मई में सूर्य की गर्मी पाकर, भारतीय प्रायद्वीप तथा दक्षिण-पूर्व एशिया का स्थलीय भाग, जहाँ खूब गर्म हो जाता है, वहीं हिन्द महासागर की विशाल जलराशि अपेक्षाकृत ठंडी होती है। स्थलीय भाग में हवाएँ गर्म होकर ऊपर की ओर उठती हैं और निम्न दाब की स्थिति पैदा हो जाती है। तापांतर और निम्न दाब की स्थिति में अरब सागर और 'बंगाल की खाड़ी' में उच्चदाब की स्थिति वाली शीतल समुद्री पवन अपने साथ भारी नमी लिए आगे बढ़ती है। भारतीय प्रायद्वीप के पश्चिम में सहयाद्रि और उत्तर में हिमालय पर्वत जैसे रुकावट को पाकर मानसूनी हवाएँ ऊपर उठती हैं और शीतलन के पश्चात उसकी नमी से संघनित होकर वर्षा की बूँदों में बदल जाती है। अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में प्रायः एक साथ उठने वाली मानसूनी पवन के आगे बढने पर केरल के निकट पश्चिमी घाट और पूर्वी भारत के मेघालय में गारो-खासी की पहाड़ियों से टकराकर 2500 मिलीमीटर से भी अधिक वर्षा करती है।[1]

'बंगाल की खाड़ी' से चलने वाली शाखा पूर्वी एवं पूर्वोत्तर भारत, म्यांमार, भूटान और नेपाल में वर्षा करती है। दक्षिण-पूर्वी मानसून की दोनों शाखाएँ आगे बढने पर गंगा के मैदानी हिस्से में मिलकर पश्चिम भारत होते हुए पाकिस्तान की ओर बढ़ जाती है। दक्षिण-पूर्वी मानसून जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, उसकी नमी कम होती जाती है और वर्षा की मात्रा भी। सितम्बर के अंत में स्थिति उल्टी होने पर, हवाएँ अपना रुख बदल लेती हैं और मध्य भारत के मैदानों और 'बंगाल की ख़ाड़ी' के ऊपर से लौटते हुए वापसी में नमी से भर जाती हैं। उत्तर–पश्चिमी दिशा में बहती हुई, नमी से भरी ये मानसूनी हवाएँ लौटते समय भारत के तमिलनाडु, श्रीलंका तथा ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी भागों में सामान्य से भारी वर्षा करती हैं।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण

मानसून की उत्पत्ति एवं इसकी भविष्यवाणी प्रारंभ से ही लोगों के लिए जिज्ञासा एवं खोज का विषय रहा है। ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर वर्षा के दिनों का अनुमान प्राचीन काल से ही भारतीय पंडितों द्वारा किया जाता रहा है। आने वाली मानसून से संभावित वर्षा का पूर्वानुमान कोई आसान काम नहीं है। वैज्ञानिक तरीके से 1884 से ही इस दिशा में प्रयास चल रहे हैं। भारतीय उप-महाद्वीप में मानसून की लंबी अवधि के लिए भविष्यवाणी की जिम्मेदारी 1875 में स्थापित 'भारत मौसम विभाग' निभा रहा है। मौसम विभाग द्वारा 16 क्षेत्रीय एवं वैश्विक राशियों का उपयोग कर 1988 में एक मॉडल विकसित किया गया, ताकि लंबी अवधि के लिए मानसून की भविष्यवाणी की जा सके। इन राशियों में तापमान से संबधित 6, वायुदाब क्षेत्र से संबधित 3, दबाव में भिन्नता की स्थिति के लिए 5 तथा हिमक्षेत्र से संबधित 2 राशि हैं। विभिन्न स्थानों पर लिए गए ताप, दाब, आर्दता जैसी स्थलीय, समुद्री एवं वायुमंडलीय भौतिक राशियों के मान पर आधारित सांख्यिकीय मॉडल की सहायता से संभावित मानसून की वर्षा का अनुमान लगाया जाता है। 'सुपर कंप्यूटर' का भी उपयोग कर, घात प्रतिगमन मॉडल की सहायता से प्राप्त वर्ष-मान 4 प्रतिशत संभावित त्रुटि सीमा के लिए स्वीकार्य होता है।[1]

विश्व के मानसून

मानसून किसी भी देश और उसकी कृषि व्यवस्था के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। विश्व की प्रमुख मानसून प्रणालियों में पश्चिमी अफ़्रीका एवं एशिया-ऑस्ट्रेलियाई मानसून आते हैं। इस श्रेणी में उत्तरी अमरीका और दक्षिण अमरीकी मानसूनों को सम्मिलित करने में कुछ मतभेद अभी भी वैज्ञानिकों के मध्य हैं।

भारतीय मानसून

भारतीय मानसून हिन्द महासागरअरब सागर की ओर से हिमालय की ओर आने वाली हवाओं पर निर्भर करता है। जब ये हवाएँ भारत के दक्षिण पश्चिम तट पर पश्चिमी घाट से टकराती हैं तो भारत तथा आस-पास के देशों में भारी वर्षा होती है। ये हवाएँ दक्षिण एशिया में जून से सितम्बर तक सक्रिय रहती हैं। वैसे किसी भी क्षेत्र का मानसून उसकी जलवायु पर निर्भर करता है। भारत के संबंध में यहाँ की जलवायु ऊष्णकटिबंधीय है और ये मुख्यतः दो प्रकार की हवाओं से प्रभावित होती है- 'उत्तर-पूर्वी मानसून' व 'दक्षिणी-पश्चिमी मानसून'। उत्तर-पूर्वी मानसून को प्रायः 'शीत मानसून' कहा जाता है। यह हवाएँ मैदान से सागर की ओर चलती हैं, जो हिन्द महासागर, अरब सागर और 'बंगाल की खाड़ी' को पार करके आती हैं। यहाँ अधिकांश वर्षा दक्षिण पश्चिम मानसून से होती है। भारत में पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर से कर्क रेखा निकलती है। इसका देश की जलवायु पर सीधा प्रभाव पड़ता है। ग्रीष्म, शीत और वर्षा ऋतुओं में से वर्षा ऋतु को प्रायः 'मानसून' नाम से सम्बोधित कर दिया जाता है।

पूर्व एशियाई मानसून

यह मानसून इंडो-चीन, फिलिपींस, चीन, कोरिया एवं जापान के बड़े क्षेत्रों में प्रभाव डालता है। इसकी मुख्य प्रकृति गर्म, बरसाती ग्रीष्म काल एवं शीत-शुष्क शीतकाल होते हैं। इसमें अधिकतर वर्षा एक पूर्व-पश्चिम में फैले निश्चित क्षेत्र में सीमित रहती है, सिवाय पूर्वी चीन के, जहाँ वर्षा पूर्व-पूर्वोत्तर में कोरिया व जापान में होती है। मौसमी वर्षा को चीन में 'मेइयु', कोरिया में 'चांग्मा' और जापान में 'बाई-यु' कहा जाता है। ग्रीष्म कालीन वर्षा का आगमन दक्षिण चीन एवं ताईवान में मई माह के आरंभ में एक मानसून-पूर्व वर्षा से होता है। इसके बाद मई से अगस्त पर्यन्त ग्रीष्म कालीन मानसून अनेक शुष्क एवं आर्द्र शृंखलाओं से उत्तरवर्ती होता जाता है। ये इंडो-चाइना एवं दक्षिण चीनी सागर से आरंभ होकर यांग्तज़े नदी एवं जापान में और अन्ततः उत्तरी चीन एवं कोरिया में जुलाई तक पहुँचता है। अगस्त के महिने में मानसून काल का अंत होना आरम्भ होता है और यह दक्षिण चीन की तरफ़ मुड़ने लगता है।

अफ़्रीका

पश्चिमी उप-सहारा अफ़्रीका के मानसून को पहले अन्तर्कटिबन्धीय संसृप्ति ज़ोन के मौसमी बदलावों और सहारा तथा विषुवतीय अंध महासागर के बीच तापमान एवं आर्द्रता के अंतरों के परिणामस्वरूप समझा जाता था। ये विषुवतीय अंध महासागर से फ़रवरी में उत्तरावर्ती होता है, और फिर लगभग 22 जून तक पश्चिमी अफ़्रीका पहुँचता है, और अक्टूबर तक दक्षिणावर्ती होते हुए पीछे हटता है। शुष्क उत्तर-पश्चिमी व्यापारिक पवन और उनके चरम स्वरूप हारमट्टन में उत्तरी बदलाव से प्रभावित होते हैं और परिणामित दक्षिणावर्ती पवन ग्रीष्म काल में वर्षा लेकर आती हैं। सूडान और सहेल के अर्ध-शुष्क क्षेत्र अपने मरुस्थलीय क्षेत्र में होने वाली ज़्यादातर वर्षा के लिये इस मानसून पर ही आश्रित हैं।

उत्तरी अमरीका

उत्तर अमरीकी मानसून वर्ष के जून के अंत या जुलाई के आरंभ से सितम्बर तक आता है। इसका उद्गम मेक्सिको से होता है और संयुक्त राज्य में मध्य जुलाई तक वर्षा उपलब्ध कराता है। इसके प्रभाव से मेक्सिको में सियेरा मैड्र ऑक्सीडेन्टल के साथ-साथ और एरिज़ोना, न्यू मेक्सिको, नेवाडा, यूटाह, कोलोरैडो, पश्चिमी टेक्सास तथा कैलीफोर्निया में वर्षा और आर्द्रता होती है। ये पश्चिम में प्रायद्वीपीय क्षेत्रों तथा दक्षिणी कैलीफोर्निया के ट्रान्स्वर्स शृंखलाओं तक फैलते हैं, किन्तु तटवर्ती रेखा तक कदाचित ही पहुँचते हैं। उत्तरी अमरीकी मानसून को समर, साउथवेस्ट, मेक्सिकन या एरिज़ोना मानसून के नाम से भी जाना जाता है। इसे कई बार 'मरुस्थलीय मानसून' भी कह दिया जाता है, क्योंकि इसके प्रभावित क्षेत्रों में अधिकांश भाग मोजेव और सोनोरैन मरुस्थलों के हैं।

महत्त्वपूर्ण तथ्य

मानसून की वर्षा के संदर्भ में इतिहास एवं विज्ञान से संबंधित कुछ रोचक तथ्य[1] निम्नलिखित हैं-

  • लगभग दो हज़ार ईसा पूर्व रचित उपनिषदों में पृथ्वी और सूर्य के सापेक्षिक गति से उत्पन्न मौसम चक्र, बादलों का बनना तथा वर्षा जैसी विषयों पर पहली बार दार्शनिक चर्चा का उल्लेख मिलता है। चौथी सदी ईसा पूर्व में कौटिल्य द्वारा लिखे गये 'अर्थशास्त्र' में वर्षामापी उपकरण का वर्णन तथा राजस्व एवं राहत कार्यों में वर्षा के वैज्ञानिक माप का महत्त्व बताया गया है। पाँचवीं सदी में वराहमिहिर द्वारा रचित पुस्तक 'वृहतसंहिता' में 'आदित्येत् जायते वृष्टि' कहकर सूर्य को वर्षा का जनक कहा गया है।
  • सातवीं सदी में महाकवि कालिदास द्वारा संस्कृत में रचित ग्रंथ 'मेघदूतम्' में मानसून की वर्षा का मध्य भारत में आगमन काल तथा बादलों के क्रमशः आगे बढने का काव्यमय वर्णन है।
  • आधुनिक समय में ब्रिटिश वैज्ञानिक हैली ने 1636 ईस्वी में ग्रीष्म कालीन भारतीय मानसून पर विस्तृत विवरण लिखा था। वर्ष 1877 ईस्वी में आए भयंकर अकाल के पश्चात भारत में पदस्थापित एक अंग्रेज़ मौसम वैज्ञानिक तथा 'भारत मौसम विभाग' के संस्थापक एच.एफ़.ब्लैनफ़ोर्ड ने 1884 में पहली बार मानसून के आगमन की वैज्ञानिक आधार पर भविष्यवाणी की थी।
  • 'मौसम विज्ञान विभाग' के अनुसार लंबी अवधि की गणना के आधार पर औसत मान की 90 से 97 प्रतिशत तक होने वाली वर्षा सामान्य मानसून कहलाती है, जबकि 90 प्रतिशत से कम वर्षा सूखे का संकेत है। भारतीय उपमहाद्वीप में 1889 से लगातार दक्षिण-पश्चिम मानसून की सामान्य वर्षा हो रही है। वर्ष 1921-1940 एवं 1952-1964 की अवधि के बाद पिछले 100 वर्षों में ऐसा तीसरी बार हुआ है।
  • मानसून से होने वाली सामान्य वर्षा से अलग, जब 100 मिलीमीटर प्रति घंटा से अधिक वर्षण हो, तब इसे "बादल का फटना" कहा जाता है। ऐसी स्थिति में जान-माल का काफ़ी नुकसान होता है।
  • भारतीय उपमहाद्वीप में होने वाली औसत वार्षिक वर्षा का 80 प्रतिशत दक्षिण पश्चिम मानसून के द्वारा सिर्फ़ तीन महीनों में ही हो जाती है। संसार में सबसे अधिक वर्षा भारत के मेघालय राज्य में स्थित जगह 'मासिनराम' (चेरापूँजी) में होती है।
  • मानसूनी प्रदेश में ज़्यादातर चौड़ी पत्ती वाले सदाबहार वन मिलते हैं, किंतु कम वर्षा के क्षेत्र में उष्ण-कटिबंधीय पतझड़ वन भी मिलते हैं। सागवान, साल, सेमल, शीशम, बाँस जैसी बहुमूल्य लकड़ियों के अलावा वायवीय जड़ों के सहारे दूसरे वनों पर विकसित होने वाले 'इपिफ़ाइटिक आर्किड' जैसे पादप समूह भी पाये जाते हैं।
  • भारतीय भाषाओं में मानसून के बादल के लिए 'घन', 'घटा', 'मेघ', 'बदली', 'जलद', 'सौदामिनी' जैसे कम से कम 40 से अधिक पर्यायवाची शब्द हैं। मालदीव में इसे 'हुलहांगु' या 'इरूवाई', श्रीलंका में इसे 'यल्हुलंगा' या 'कच्चन' नाम से पुकारा जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 प्रकृति का जीवन संगीत (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 07 जून, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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