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'''धर्मराजिका स्तूप''' [[सारनाथ]], [[उत्तर प्रदेश]] में स्थित है। प्रारम्भ में इस [[स्तूप]] का व्यास 13.49 मीटर था। बाद के समय में छ: बार इसके स्वरूप में परिवर्तन किया गया, जिसमें इसके चारों ओर का परिक्रमा पथ और चारों दिशाओं से इसकी छत पर ले जाने वाली सीढ़ियाँ प्रमुख थीं। सन 1794 में जब [[बनारस]] पर [[चेतसिंह|राजा चेतसिंह]] का शासन था, उनके एक [[दीवान]] जगतसिंह ने इस इमारत में लगी ईंटों का निर्माण सामग्री के रूप में प्रयोग करने के लिए इसे तुड़वा दिया। टूटे स्तूप के अन्दर से पत्थर के बक्से में हरे रंग के संगमरमर पर खुदे [[बौद्ध]] [[अभिलेख]] मिले। दुर्भाग्यवश संगमरमर के उस टुकड़े को [[गंगा नदी]] में प्रवाहित कर दिया गया। आज भी पत्थर का वह बक्सा [[कोलकाता]] के [[राष्ट्रीय संग्रहालय कोलकाता|राष्ट्रीय संग्रहालय]] में सुरक्षित है।  
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==इतिहास==
 
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इस स्तूप का निर्माण [[मौर्य]] [[सम्राट अशोक]] ने करवाया था। दुर्भाग्यवश 1794 ई. में बनारस के दीवान जगतसिंह के आदमियों ने [[काशी]] का प्रसिद्ध मुहल्ला जगतगंज बनाने के लिए इसकी ईंटों को खोद डाला। खुदाई के समय 8.23 मी. की गहराई पर एक प्रस्तर पात्र के भीतर संगरमरमर की मंजूषा में कुछ हड्डियाँ एवं सुवर्णपात्र, [[मोती]] के दानें एवं [[रत्न]] मिले थे, जिसे उन्होंने विशेष महत्त्व का न मानकर गंगा में प्रवाहित कर दिया।<ref>एशियाटिक रिसर्चेज, 5, पृ. 131-132 देखें- मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृ. 54</ref> यहाँ से प्राप्त महीपाल के समय के 1026 ई. के एक लेख में यह उल्लेख है कि स्थिरपाल और बसंतपाल नामक दो बंधुओं ने धर्मराजिका और धर्मचक्र का जीर्णोद्धार किया।<ref>आर्कियोलाजिकल् सर्वे आफ् इंडिया, वार्षिक रिपोर्ट, 1903-04, पृ. 221</ref>
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==स्थापत्य==
 
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10:24, 17 अक्टूबर 2013 का अवतरण

धर्मराजिका स्तूप
'धर्मराजिका स्तूप', सारनाथ
विवरण 'धर्मराजिका स्तूप' बौद्ध धर्म के प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों में से एक है, जो सारनाथ, उत्तर प्रदेश में स्थित है। उत्खनन से इस स्तूप से दो मूर्तियाँ मिली थीं।
राज्य उत्तर प्रदेश
शहर सारनाथ
निर्माण काल मौर्य काल
निर्माणकर्ता मौर्य सम्राट अशोक
संबंधित लेख सारनाथ, बनारस, राजा चेतसिंह
अन्य जानकारी वर्ष 1794 ई. में बनारस के राजा चेतसिंह के दीवान जगतसिंह के आदमियों ने काशी का प्रसिद्ध मुहल्ला जगतगंज बनाने के लिए इस स्तूप की ईंटों को खोद डाला।

धर्मराजिका स्तूप सारनाथ, उत्तर प्रदेश में स्थित है। प्रारम्भ में इस स्तूप का व्यास 13.49 मीटर था। बाद के समय में छ: बार इसके स्वरूप में परिवर्तन किया गया, जिसमें इसके चारों ओर का परिक्रमा पथ और चारों दिशाओं से इसकी छत पर ले जाने वाली सीढ़ियाँ प्रमुख थीं। सन 1794 में जब बनारस पर राजा चेतसिंह का शासन था, उनके एक दीवान जगतसिंह ने इस इमारत में लगी ईंटों का निर्माण सामग्री के रूप में प्रयोग करने के लिए इसे तुड़वा दिया। टूटे स्तूप के अन्दर से पत्थर के बक्से में हरे रंग के संगमरमर पर खुदे बौद्ध अभिलेख मिले। दुर्भाग्यवश संगमरमर के उस टुकड़े को गंगा नदी में प्रवाहित कर दिया गया। आज भी पत्थर का वह बक्सा कोलकाता के राष्ट्रीय संग्रहालय में सुरक्षित है।

इतिहास

इस स्तूप का निर्माण मौर्य सम्राट अशोक ने करवाया था। दुर्भाग्यवश 1794 ई. में बनारस के दीवान जगतसिंह के आदमियों ने काशी का प्रसिद्ध मुहल्ला जगतगंज बनाने के लिए इसकी ईंटों को खोद डाला। खुदाई के समय 8.23 मीटर की गहराई पर एक प्रस्तर पात्र के भीतर संगरमरमर की मंजूषा में कुछ हड्डियाँ एवं सुवर्णपात्र, मोती के दानें एवं रत्न मिले थे, जिसे उन्होंने विशेष महत्त्व का न मानकर गंगा में प्रवाहित कर दिया।[1] यहाँ से प्राप्त महीपाल के समय के 1026 ई. के एक लेख में यह उल्लेख है कि स्थिरपाल और बसंतपाल नामक दो बंधुओं ने धर्मराजिका और धर्मचक्र का जीर्णोद्धार किया।[2]

स्थापत्य

वर्ष 1907-1908 ई. में मार्शल के निर्देशन में खुदाई से इस स्तूप के क्रमिक परिनिर्माणों के इतिहास का पता चला।[3] इस स्तूप का कई बार परिवर्द्धन एवं संस्कार हुआ। इस स्तूप के मूल भाग का निर्माण अशोक ने करवाया था। उस समय इसका व्यास 13.48 मी. (44 फुट 3 इंच) था। इसमें प्रयुक्त कीलाकार ईंटों की माप 19 ½ इंच X 14 ½ इंच X 2 ½ इंच और 16 ½ इंच X 12 ½ इंच X 3 ½ इंच थी।

परिवर्द्धन

  • सर्वप्रथम परिवर्द्धन कुषाण काल या आरंभिक गुप्त काल में हुआ। इस समय स्तूप में प्रयुक्त ईंटों की माप 17 इंच X10 ½ इंच X 2 ¾ ईच थी।
  • दूसरा परिवर्द्धन हूणों के आक्रमण के पश्चात् पाँचवी या छठी शताब्दी में हुआ। इस समय इसके चारों ओर 16 फुट (4.6 मीटर) चौड़ा एक प्रदक्षिणा पथ जोड़ा गया।
  • तीसरी बार स्तूप का परिवर्द्धन हर्ष के शासन काल (7वीं सदी) में हुआ। उस समय स्तूप के गिरने के डर से प्रदक्षिणा पथ को ईंटों से भर दिया गया और स्तूप तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ लगा दी गईं।
  • चौथा परिवर्द्धन बंगाल नरेश महीपाल ने महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के दस वर्ष बाद कराया।
  • अंतिम पुनरुद्धार लगभग 1114 ई. से 1154 ई. के मध्य हुआ।[4] इसके पश्चात मुस्लिमों के आक्रमण ने सारनाथ को नष्ट कर दिया।

उत्खनन से इस स्तूप से दो मूर्तियाँ मिलीं। ये मूर्तियाँ सारनाथ से प्राप्त मूर्तियों में मुख्य हैं। पहली मूर्ति कनिष्क के राज्य संवत्सर 3 (81 ई.) में स्थापित विशाल बोधिसत्व प्रतिमा और दूसरी धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रा में भगवान बुद्ध की मूर्ति। ये मूर्तियाँ सारनाथ की सर्वश्रेष्ठ कलाकृतियाँ हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एशियाटिक रिसर्चेज, 5, पृ. 131-132 देखें- मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृ. 54
  2. आर्कियोलाजिकल् सर्वे आफ् इंडिया, वार्षिक रिपोर्ट, 1903-04, पृ. 221
  3. तत्रैव, 1907-08, पृ. 65
  4. बुलेटिन ऑफ़ दि यू.पी. हिस्टारिकल सोसाइटी, संख्या 4, लखनऊ, (1965) पृ. 41

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