वैदिक यज्ञों में अश्वमेध यज्ञ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह महाक्रतुओं में से एक है।
- ऋग्वेद में इससे सम्बन्धित दो मन्त्र हैं।
- शतपथ ब्राह्मण[1] में इसका विशद वर्णन प्राप्त होता है।
- तैत्तिरीय ब्राह्मण[2],
- कात्यायनीय श्रोतसूत्र[3],
- आपस्तम्ब:[4],
- आश्वलायन[5],
- शंखायन[6] तथा दूसरे समान ग्रन्थों में इसका वर्णन प्राप्त होता है।
- महाभारत[7] में महाराज युधिष्ठिर द्वारा कौरवौं पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् पाप मोचनार्थ किये गये अश्वमेध यज्ञ का विशद वर्णन है।
अश्वमेध मुख्यत: राजनीतिक यज्ञ था और इसे वही सम्राट कर सकता था, जिसका अधिपत्य अन्य सभी नरेश मानते थे। आपस्तम्ब: में लिखा है:[8] सार्वभौम राजा अश्वमेध करे असार्वभौम कदापि नहीं। यह यज्ञ उसकी विस्तृत विजयों, सम्पूर्ण अभिलाषाओं की पूर्ति एवं शक्ति तथा साम्राज्य की वृद्धि का द्योतक होता था।
यज्ञ का प्रारम्भ
- दिग्विजय-यात्रा के पश्चात् साफल्य मण्डित होने पर इस यज्ञ का अनुष्ठान होता था। ऐतरेय ब्राह्मण[9] इस यज्ञ के करने वाले महाराजों की सूची प्रस्तुत करता है, जिन्होंने अपने राज्यारोहण के पश्चात् पृथ्वी को जीता एवं इस यज्ञ को किया। इस प्रकार यह यज्ञ सम्राट का प्रमुख कर्तव्य समझा जाने लगा। जनता इसमें भाग लेने लगी एवं इसका पक्ष धार्मिक की अपेक्षा अधिक सामाजिक होता गया। वाक्चातुर्य, शास्त्रार्थ आदि के प्रदर्शन का इसमें समावेश हुआ। इस प्रकार इस यज्ञ ने दूसरे श्रोत यज्ञों से भिन्न रूप ग्रहण कर लिया।
- यज्ञ का प्रारम्भ बसन्त अथवा ग्रीष्म ॠतु में होता था तथा इसके पूर्व प्रारम्भिक अनुष्ठानों में प्राय: एक वर्ष का समय लगता था। सर्वप्रथम एक अयुक्त अश्व चुना जाता था। यज्ञ स्तम्भ में बाँधने के प्रतीकात्मक कार्य से मुक्त कर इसे स्नान कराया जाता था तथा एक वर्ष तक अबन्ध दौड़ने तथा बूढ़े घोड़ों के साथ खेलने दिया जाता था। इसके पश्चात् इसकी दिग्विजय यात्रा प्रारम्भ होती थी। इसके सिर पर जय-पत्र बाँधकर छोड़ा जाता था। एक सौ राजकुमार, एक सौ राज सभासद, एक सौ उच्चाधिकारियों के पुत्र तथा एक सौ छोटे अधिकारियों के पुत्र इसकी रक्षा के लिये सशस्त्र पीछे-पीछे प्रस्थान करते थे इसके स्वतन्त्र विचरण में कोई बाधा उपस्थित नहीं होने देते थे। इस अश्व के चुराने या इसे रोकने वाले नरेश से युद्ध होता था। यदि यह अश्व खो जाता तो दूसरे अश्व से यह क्रिया आरम्भ से पुन: की जाती थी।
दिग्विजय-यात्रा
- जब यह अश्व दिग्विजय-यात्रा पर जाता था तो स्थानीय लोग इसके पुनरागमन की प्रतिक्षा करते थे। मध्यकाल में अनेकों प्रकार के उत्सव मनाये जाते थे। सवितदेव को नित्य उपहार दिया जाता था। राजा के सम्मुख पुरोहित उत्सव के मध्य मन्त्रगान करता था। इस मन्त्रगान का चक्र प्रत्येक ग्यारहवें दिन दुहराया जाता था। इसमें गान, वंशी-वादन तथा वेद के विशेष अध्यायों का पाठ होता था। इस अवसर पर राजकवि राजा की प्रशंसा में रचित गीतों को सुनाता था।
- मन्त्रगान नाटक के रूप में विविध प्रकार के पात्रों, वृद्ध, नवयुवक, सँपेरों, डाकू, मछुवा, आखेटक एवं ॠषियों के माध्यम से प्रस्तुत होता था। जब वर्ष समाप्त होता और अश्व वापस आ जाता, तब राजा की दीक्षा के साथ यज्ञ प्रारम्भ होता था।
- वास्तविक यज्ञ तीन दिन चलता था, जिसमें अन्य पशु यज्ञ होते थे एवं सोमरस भी निचोड़ा जाता था। दूसरे दिन यज्ञ का अश्व स्वर्णाभरण से सुसज्जित कर, तीन अन्य अश्वों के साथ एक रथ में बाँधा जाता था और उसे चारों ओर घुमाकर फिर रानियों द्वारा अभिषिक्त एवं सुसज्जित किया जाता था, जब कि होता (यजमान, हवन करने वाला) एवं प्रमुख पुरोहित ब्रह्मोद्म करते थे।
- पुन: अश्व एक बकरे के साथ यज्ञ स्तम्भ में बाँध दिया जाता था। दूसरे पशु जो सैकड़ों की संख्या में होते थे, बलि के लिये स्तम्भों में बाँधे जाते थे। कपड़ों से ढककर इनका श्वास फुलाया जाता था। पुन: मुख्य रानी अश्व के साथ वस्त्रा-वरण के भीतर प्रतीकात्मक रूप से लेटती थी। पुरोहितादि ब्राह्मण महिलाओं के साथ प्रमोद्पूर्वक प्रश्नोत्तर करते थे।[10] ज्यों-ही मुख्य रानी उठ खड़ी होती, त्यों-ही चातुरीपूर्वक यज्ञ-अश्व काट दिया जाता था।
- अबोधगम्य कृत्यों के पश्चात, जिसमें सभी पुरोहित एवं यज्ञ करने वाले सम्मिलित होते थे, अश्व के विभिन्न भागों को भूनकर प्रजापति को आहुति दी जाती थी। तीसरे दिन यज्ञकर्ता को विशुद्धि-स्नान कराया जाता, जिसके बाद वह यज्ञ कराने वाले पुरोहितों तथा ब्राह्मणों को दान देता था।
- दक्षिणा जीते हुए देशों से प्राप्त धन का एक भाग होती थी। कहीं-कहीं दासियों सहित रानियों को भी उपहार सामग्री के रूप में दिये जाने का उल्लेख पाया जाता है।
- अश्वमेध ब्रह्म-हत्या आदि पापक्षय, स्वर्ग प्राप्ति एवं मोक्ष प्राप्ति के लिये भी किया जाता था। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद अश्वमेध प्राय: बन्द ही हो गया। इसके परवर्ती उल्लेख प्राय: परम्परागत हैं। इनमें भी इस यज्ञ के बहुत से श्रोत अंग संम्पन्न नहीं होते थे।
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