भीष्म

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भीष्म एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- भीष्म (बहुविकल्पी)


संक्षिप्त परिचय
भीष्म
अन्य नाम पितामह भीष्म, देवव्रत
वंश-गोत्र भरतवंशी
पिता शान्तनु
माता गंगा
जन्म विवरण गंगा के आठवें पुत्र के रूप में भीष्म का जन्म हुआ था।
समय-काल महाभारत काल
गुरु परशुराम
विवाह आजीवन अविवाहित
विद्या पारंगत धनुर्विद्या में पारंगत
महाजनपद कुरु
मृत्यु सूर्य के उत्तरायण होने पर पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण की छवि को अपनी आँखों में बसाकर महात्मा भीष्म ने अपने नश्वर शरीर का त्याग किया।
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भीष्म महाभारत के प्रमुख पात्र हैं। ये महाराजा शांतनु के पुत्र थे। इनका वास्तविक नाम देवव्रत था। राजा शांतनु के बड़े बेटे भीष्म आठ वसुओं में से थे। अपने पिता को दिये गये वचन के कारण इन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था। इन्हें इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था।

जन्म कथा

एक बार हस्तिनापुर के महाराज प्रतीप गंगा के किनारे तपस्या कर रहे थे। उनके रूप-सौन्दर्य से मोहित हो कर देवी गंगा उनकी दाहिनी जाँघ पर आकर बैठ गईं। महाराज यह देख कर आश्चर्य में पड़ गये तब गंगा ने कहा, 'हे राजन्! मैं जह्नु ऋषि की पुत्री गंगा हूँ और आपसे विवाह करने की अभिलाषा ले कर आपके पास आई हूँ।' इस पर महाराज प्रतीप बोले, 'गंगे! तुम मेरी दहिनी जाँघ पर बैठी हो। पत्नी को तो वामांगी होना चाहिये, दाहिनी जाँघ तो पुत्र का प्रतीक है अतः मैं तुम्हें अपने पुत्रवधू के रूप में स्वीकार करता हूँ।' यह सुन कर गंगा वहाँ से चली गईं। अब महाराज प्रतीप ने पुत्र प्राप्ति के लिये घोर तप करना आरम्भ कर दिया। उनके तप के फलस्वरूप उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम उन्होंने शान्तनु रखा। शान्तनु के युवा होने पर उसे गंगा के साथ विवाह करने का आदेश दे महाराज प्रतीप स्वर्ग चले गये।

देवव्रत का जन्म

पिता के आदेश का पालन करने के लिये शान्तनु ने गंगा के पास जाकर उनसे विवाह करने के लिये निवेदन किया। गंगा बोलीं, “राजन्! मैं आपके साथ विवाह तो कर सकती हूँ किन्तु आपको वचन देना होगा कि आप मेरे किसी भी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।” शान्तनु ने गंगा के कहे अनुसार वचन दे कर उनसे विवाह कर लिया। गंगा के गर्भ से महाराज शान्तनु के आठ पुत्र हुये जिनमें से सात को गंगा ने गंगा नदी में ले जा कर बहा दिया और अपने दिये हुये वचन में बँधे होने के कारण महाराज शान्तनु कुछ बोल न सके। जब गंगा का आठवाँ पुत्र हुआ और वह उसे भी नदी में बहाने के लिये ले जाने लगी तो राजा शान्तनु से रहा न गया और वे बोले, “गंगे! तुमने मेरे सात पुत्रों को नदी में बहा दिया किन्तु अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार मैंने कुछ न कहा। अब तुम मेरे इस आठवें पुत्र को भी बहाने जा रही हो। मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि कृपा करके इसे नदी में मत बहाओ।” यह सुन कर गंगा ने कहा, “राजन्! आपने अपनी प्रतिज्ञा भंग कर दी है इसलिये अब मैं आपके पास नहीं रह सकती।” इतना कह कर गंगा अपने पुत्र के साथ अन्तर्धान हो गईं। तत्पश्चात् महाराज शान्तनु ने छत्तीस वर्ष ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर के व्यतीत कर दिये। फिर एक दिन उन्होंने गंगा के किनारे जा कर गंगा से कहा, “गंगे! आज मेरी इच्छा उस बालक को देखने की हो रही है जिसे तुम अपने साथ ले गई थीं।” गंगा एक सुन्दर स्त्री के रूप में उस बालक के साथ प्रकट हो गईं और बोलीं, “राजन्! यह आपका पुत्र है तथा इसका नाम देवव्रत है, इसे ग्रहण करो। यह पराक्रमी होने के साथ विद्वान् भी होगा। अस्त्र विद्या में यह परशुराम के समान होगा।” महाराज शान्तनु अपने पुत्र देवव्रत को पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुये और उसे अपने साथ हस्तिनापुर लाकर युवराज घोषित कर दिया।

भीष्म: आठवें वसु

एक बार अपनी गृहिणी के कहने से द्यु नामक वसु ने वशिष्ठ ऋषि की कामधेनु का हरण कर लिया। इससे वशिष्ठ ऋषि ने द्यु से कहा कि ऐसा काम तो मनुष्य किया करते हैं, इसलिए तुम मनुष्य हो जाओ। अंत में आठों वसुओं ने वशिष्ठजी की प्रार्थना की तो उन्होंने यह सहूलियत कर दी कि अन्य वसु तो वर्ष का अंत होने पर मेरे शाप से छुटकारा पा जाएँगे, किंतु द्यु को अपनी करनी का फल भोगने के लिए एक जन्म तक मनुष्य-लोक में रहना पड़ेगा। यह सुनकर वसुओं ने गंगाजी के पास जाकर उन्हें वशिष्ठजी के शाप का ब्योरा सुनाया और यह प्रार्थना की कि "आप मृत्युलोक में अवतार लेकर हमें गर्भ में धारण करें और ज्यों ही हम जन्म लें, हमें पानी में डुबो दें।" गंगाजी ने स्वीकार कर लिया। वे युक्ति से शांतनु राजा की पत्नी बन गईं। शांतनु ने जन्म से पहले गंगा के गर्भ से जो सात पुत्र पैदा हुए थे उन्हें उत्पन्न होते ही गंगाजी ने पानी में डुबो दिया था। पत्नी के इस व्यवहार को शांतनु राजा अच्छा नहीं समझते थे, किंतु वे कुछ रोक-टोक नहीं कर सकते थे। कारण यह था कि गंगाजी ने उनसे ऐसे कामों में बाधा न देने का वचन आरम्भ में ही ले लिया था। अंत में आठवीं संतान उत्पन्न होने पर जब गंगाजी ने उसे भी डुबाना चाहा तब राजा ने उनको ऐसी निष्ठुरता करने से रोका। गंगाजी ने राजा की बात मानकर वसुओं को वशिष्ठ के शाप का सब हाल कह सुनाया। फिर वे राजा को वह तुरंत का उपजा हुआ बालक सौंपकर अंतर्धान हो गईं। यहीं बालक द्युनामक वसु था जो आगे भीष्म नाम से प्रसिद्ध हुआ। शांतनु ने इसका नाम देवव्रत रखा था।

भीष्म प्रतिज्ञा

एक दिन महाराज शान्तनु यमुना के तट पर घूम रहे थे कि उन्हें नदी में नाव चलाते हुये एक सुन्दर कन्या दृष्टिगत हुई। उसके अंग-अंग से सुगन्ध निकल रही थी। महाराज ने उस कन्या से पूछा, “हे देवी! तुम कौन हो?” कन्या ने बताया, “महाराज! मेरा नाम सत्यवती है और मैं निषाद कन्या हूँ।” महाराज उसके रूप यौवन पर रीझ कर तत्काल उसके पिता के पास पहुँचे और सत्यवती के साथ अपने विवाह का प्रस्ताव किया। इस पर धींवर (निषाद) बोला, “राजन्! मुझे अपनी कन्या का आपके साथ विवाह करने में कोई आपत्ति नहीं है परन्तु आपको मेरी कन्या के गर्भ से उत्पन्न पुत्र को ही अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाना होगा।।” निषाद के इन वचनों को सुन कर महाराज शान्तनु चुपचाप हस्तिनापुर लौट आये।

महाभारत युद्ध में शर शैया पर

सत्यवती के वियोग में महाराज शान्तनु व्याकुल रहने लगे। उनका शरीर दुर्बल होने लगा। महाराज की इस दशा को देख कर देवव्रत को बड़ी चिंता हुई। जब उन्हें मन्त्रियों के द्वारा पिता की इस प्रकार की दशा होने का कारण ज्ञात हुआ तो वे तत्काल समस्त मन्त्रियों के साथ निषाद के घर जा पहुँचे और उन्होंने निषाद से कहा,

“हे निषाद! आप सहर्ष अपनी पुत्री सत्यवती का विवाह मेरे पिता शान्तनु के साथ कर दें। मैं आपको वचन देता हूँ कि आपकी पुत्री के गर्भ से जो बालक जन्म लेगा वही राज्य का उत्तराधिकारी होगा। कालान्तर में मेरी कोई सन्तान आपकी पुत्री के सन्तान का अधिकार छीन न पाये इस कारण से मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं आजन्म अविवाहित रहूँगा।”

उनकी इस प्रतिज्ञा को सुन कर निषाद ने हाथ जोड़ कर कहा, “हे देवव्रत! आपकी यह प्रतिज्ञा अभूतपूर्व है।” इतना कह कर निषाद ने तत्काल अपनी पुत्री सत्यवती को देवव्रत तथा उनके मन्त्रियों के साथ हस्तिनापुर भेज दिया।

देवव्रत ने अपनी माता सत्यवती को लाकर अपने पिता शान्तनु को सौंप दिया। पिता ने प्रसन्न होकर पुत्र से कहा, “वत्स! तूने पितृभक्ति के वशीभूत होकर ऐसी प्रतिज्ञा की है जो न आज तक किसी ने की है और न भविष्य में करेगा। मैं तुझे वरदान देता हूँ कि तेरी मृत्यु तेरी इच्छा से ही होगी। तेरी इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने के कारण तू भीष्म कहलायेगा और तेरी प्रतिज्ञा भीष्म प्रतिज्ञा के नाम से सदैव प्रख्यात रहेगी।”

परशुराम से युद्ध

सत्यवती के गर्भ से महाराज शान्तनु को चित्रांगद और विचित्रवीर्य नाम के दो पुत्र हुए। शांतनु की मृत्यु के बाद चित्रांगद राजा बनाये गये, किंतु गन्धर्वों के साथ युद्ध में उनकी मृत्यु हो गयी। विचित्रवीर्य अभी बालक थे। उन्हें सिंहासन पर आसीन करके भीष्म जी राज्य का कार्य देखने लगे। विचित्रवीर्य के युवा होने पर उनके विवाह के लिये काशीराज की तीन कन्याओं का बलपूर्वक हरण करके भीष्मजी ने संसार को अपने अस्त्र-कौशल का प्रथम परिचय दिया। बड़ी राजकुमारी अम्बा शाल्वराज पर अनुरक्त होने से छोड़ दी गई। अन्य दोनों (अम्बालिका और अम्बिका) का विवाह विचित्रवीर्य के साथ कर दिया गया। अभी इसके कोई संतान नहीं हुई थी कि यह चल बसा। गद्दी फिर ख़ाली हो गई।

काशीनरेश की बड़ी कन्या अम्बा शाल्व से प्रेम करती थी, अत: भीष्म ने उसे वापस भेज दिया किंतु शाल्व ने उसे स्वीकार नहीं किया। अम्बा ने अपनी दुर्दशा का कारण भीष्म को समझकर उनकी शिकायत परशुरामजी से की। परशुरामजी ने भीष्म से कहा कि 'तुमने अम्बा का बलपूर्वक अपहरण किया है, अत: तुम्हें इससे विवाह करना होगा, अन्यथा मुझसे युद्ध के लिये तैयार हो जाओ।' परशुरामजी से भीष्म का इक्कीस दिनों तक भयानक युद्ध हुआ। अन्त में ऋषियों के कहने पर लोककल्याण के लिये परशुरामजी को ही युद्ध-विराम करना पड़ा। भीष्म अपने प्रण पर अटल रहे।

सत्यवती का अनुरोध

अब सत्यवती ने भीष्म से बार-बार अनुरोध किया कि पिता के वंश की रक्षा करने के लिए तुम विवाह करके राज-पाट सँभालो, परंतु भीष्म टस से मस नहीं हुए। अंत में सत्यवती ने भीष्म की अनुमति लेकर वेदव्यास के द्वारा अम्बिका और अम्बालिका के गर्भ से यथाक्रम धृतराष्ट्र और पाण्डु नाम के पुत्रों को उत्पन्न कराया।

ब्रह्मचर्य पालन और कृष्णभक्ति

भीष्म ने दाशराज से आजन्म अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा की थी। इस प्रतिज्ञा का पालन केवल विवाह से बचे रहने से ही पूरा-पूरा नहीं हो सकता था। इसका पालन तो सोलह आने ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करने से ही हो सकता था। अतएव भीष्म ने वहीं किया। उन्होंने स्त्री-विषयक सभी प्रकार की इच्छाओं को त्याग दिया। वे योगारूढ़ होकर ब्रह्म का चिंतन और भगवान का भजन किया करते थे। उनके आगे श्रीकृष्ण अभी बच्चे ही थे, फिर भी वे उनको ईश्वर का अवतार समझते और उनकी भक्ति किया करते थे। भीष्म की कृष्णभक्ति का उदाहरण प्रसिद्ध ही है। श्रीकृष्ण ने निहत्थे रहकर अर्जुन का रथ हाँकने की प्रतिज्ञा की थी, किंतु भीष्म ने उनसे शस्त्र ग्रहण कराने का प्रण कर लिया। इस संबंध में सूरदासजी का पद प्रसिद्ध है:-

"आजु जौ हरिहिं न सस्त्र गहाऊँ। तौ लाजौं गंगा जननी कौं, संतनु-सुत न कहाऊँ।"

अंत में भक्त की लाज रखने को जब श्रीकृष्ण चक्र (रथ का पहिया) लेकर दौड़ पड़े तब भीष्म ने हथियार रख दिये और श्रीकृष्ण के हाथ से मारे जाने में अपना अहोभाग्य समझा। ऐसा करके उन्होंने श्रीकृष्ण के अस्त्र धारण न करने की प्रतिज्ञा की भी रक्षा कर ली।

कृष्ण की प्रतिज्ञा का खंडन

महाभारत के युद्ध में भीष्म को कौरव पक्ष के प्रथम सेनानायक होने का गौरव प्राप्त हुआ। इस युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने शस्त्र न ग्रहण करने की प्रतिज्ञा की थी। एक दिन भीष्म ने भगवान को शस्त्र ग्रहण कराने की प्रतिज्ञा कर ली। इन्होंने अर्जुन को अपनी बाण-वर्षा से व्याकुल कर दिया। भक्तवत्सल भगवान ने भक्त के प्राण की रक्षा के लिये अपनी प्रतिज्ञा को भंग कर दिया और रथ का टूटा हुआ पहिया लेकर भीष्म की ओर दौड़ पड़े। भीष्म भगवान की इस भक्तवत्सलता पर मुग्ध हो गये। किंतु इस प्रकार उन्होंने श्रीकृष्ण की प्रतिज्ञा खंडित कर दी।

कुरुक्षेत्र का युद्ध

कुरुक्षेत्र का युद्ध आरम्भ होने पर प्रधान सेनापति की हैसियत से भीष्म ने दस दिन तक घोर युद्ध किया था। इसमें उन्होंने पाण्डवों के बहुतेरे सेनापतियों और सैनिकों को मार गिराया था। इतने पर भी दुर्योधन उनसे कहा करता था कि पाण्डवों के साथ पक्षपात करने के कारण आप जी खोलकर युद्ध नहीं करते। इससे खिन्न होकर उन्होंने दुर्योधन को धिक्कार देते हुए कहा कि अपने भुजबल के भरोसे पर पाण्डवों को तो एक दिन विजय मिलेगी ही। उनके क्रोधानल में भस्म होने से तुमको एक भी महारथी न बचा सकेगा। यह सच है कि पाण्डवों पर पितामह की कृपादृष्टि थी, किंतु इसका यह मतलब नहीं कि वे दुर्योधन के साथ दगा कर रहे थे।

युधिष्ठिर को दिया विजय-प्राप्ति का उपाय

प्रतिदिन भीष्म के हाथों बहुत से सेनापतियों और सैनिकों का विनाश होते देख युधिष्ठिर ने अपने भाइयों और श्रीकृष्ण से पूछा कि क्या करने से पितामह को युद्ध से अलग किया जाय। युद्ध छिड़ने से प्रथम श्रीकृष्ण ने प्रतिज्ञा की थी कि इस समरभूमि में रहकर भी हथियार न छुएँगे, किंतु इस समय यह कठिनाई देखकर उन्होंने कहा कि तो फिर हमीं भीष्म से लोहा लेंगे-प्रतिज्ञा को तोड़ेंगे। युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण को ऐसा न करने देकर कहा कि पितामह भले ही दुर्योधन की ओर से युद्ध करते रहें, पर वे हमारे भले की सलाह देने से न चूकेंगे। इसके लिए वे मुझे वचन दे चुके हैं। इसलिए चलो, उन्हीं से उपाय पूछें। युद्ध में हम उन्हीं के बताये उपाय से काम लेंगे। अब पाण्डव लोग श्रीकृष्ण को साथ लेकर पितामह के पास पहुँचे और प्रणाम करके बोले कि आपसे अब तक जिस दृढ़ता से युद्ध किया है। वैसा ही आप करते रहेंगे तो हम लोग विजयी नहीं हो सकते। अतएव ऐसा उपाय बतलाइए कि आपका वध कैसे हो सकता है।

भीष्म ने कहा- मैं जिस समय हाथ मे अस्त्र लेकर युद्ध करता हूँ उस समय मुझे देवता तक जीत नहीं सकते। मेरे हथियार रख देने पर ही वे मुझ पर विजय पा सकते हैं। जिसके पास शस्त्र कवच और ध्वजा नहीं है, जो गिर पड़ा हो, भाग रहा हो अथवा डर गया हो उस पर मैं हाथ नहीं उठाता। इसके सिवा स्त्री-जाति, स्त्री-सदृश- नामधारी, अंगहीन, एकमात्र पुत्र के पिता तथा शरणागत व्यक्ति के साथ भी मैं युद्ध नहीं करता। अमंगल-चिन्ह-युक्त ध्वज को देखकर भी युद्ध न करने का मैंने नियम किया था। तुम्हारी सेना में एक महारथी शिखण्डी है। वह पहले स्त्री था, अब पुरुष बन गया है। उसको आगे करके अर्जुन मेरे ऊपर प्रहार करे। शिखण्डी से मैं युद्ध करूँगा नहीं और अर्जुन की चोटें मेरे ऊपर कारगर हो जाएँगी। बस, विजय-प्राप्ति का यहीं उपाय है।

शिखण्डी और भीष्म

अगले दिन से श्रीकृष्ण ने इसी उपाय का प्रयोग कराया। अर्जुन के ऊपर भीष्म इस डर से प्रहार नहीं करते थे कि कहीं शिखण्डी पर वार न हो जाय और उधर शिखण्डी तथा अर्जुन दोनों ही कसकर चोटें कर रहे थे। इन लोगों की मार से भीष्म की देह में ऐसा दो अंगुल स्थान भी नहीं बचा जहाँ घाव न हो। बेहतर घायल हो जाने पर भीष्म दसवें दिन, दिन डूबने से कुछ पहले, पूर्व की ओर मस्तक करके शरशय्यागत हो गये। इस युद्ध में उन्होंने अवश्य ही शिखण्डी पर शस्त्र नहीं चलाया, किंतु कौरवों के अन्यान्य महारथियों ने उनकी रक्षा करने के यत्न में कुछ कसर नहीं की थी। भीष्म का पतन होने पर स्वर्ग और मर्त्यलोक में हाहाकार होने लगा। भीष्म का पूरा शरीर तो बाणों पर रखा हुआ था, केवल मस्तक-कोई सहारा न रहने से-नीचे की ओर लटक रहा था। इस समय सूर्य को दक्षिणायन में देखकर भीष्म ने उचित अवसर की प्रतीक्षा में प्राणों को रोक लिया। गंगाजी के कहने से मानस-सरोवर-निवासी ऋषि लोग, हंस का रूप धारण करके, इस समय भीष्म के पास आये थे। उनको पितामह ने यहीं उत्तर दिया था कि सूर्य जब तक दक्षिणायन में रहेंगे तब तक मैं शरीर नहीं छोडूँगा, उत्तरायण आने पर ही मैं अपने प्राचीन पद को प्राप्त करूँगा। पिता से मुझे स्वेच्छा-मृत्यु का वरदान मिला है, उसी के प्रभाव से मुझे मृत्यु पर अधिकार मिला हुआ है। मैं जब तक इच्छा न करूँगा, मरने का नहीं। शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म पितामह, योग का अवलम्बन करके, जप करने लगे।

अंतिम समय

भीष्म के पतन की खबर फैलने पर कौरवों की सेना में हाहाकार मच गया और पाण्डवों के यहाँ खुशी मनाई जाने लगी। दोनों दलों के सैनिक और सेनापति लोग युद्ध करना छोड़कर भीष्म के पास एकत्र हो गये। उनसे, यथायोग्य अभिवादन करके भीष्म ने कहा कि राजन्यगण। मेरा सिर नीचे लटक रहा है। मुझे उपयुक्त तकिया चाहिए। राजन्यगण मूल्यवान तरह-तरह के तकिये ले आये। किंतु भीष्म ने उनमें से एक एक को भी न लेकर, मुस्कुराकर, कहा कि ये तकिये इस वीर शय्या के काम में आने योग्य नहीं हैं। फिर अर्जुन की ओर देखकर कहा कि बेटा, तुम क्षात्रधर्म के जानकार हो। मुझे उपयुक्त तकिया दो। आज्ञा पाते ही अर्जुन ने उनको अभिवादन कर बड़ी तेज़ी से ऐसे तीन बाण मारे जो उनके माथे में छिदकर पृथ्वी में जा लगे। बस, माथे को सहारा मिल गया। इन बाणों का आधार मिल जाने से सिर के लटकते रहने की पीड़ा जाती रही। इससे प्रसन्न होकर भीष्म ने अर्जुन से कहा कि जो तुम तकिया न देते तो मैं क्रुद्ध होकर शाप दे देता। फिर उन्होंने राजाओं से कहा कि उत्तरायण आने तक मैं इसी शरशय्या पर रहूँगा। मेरे चारों ओर खाई खुदवा दो। मैं सूर्य की उपासना करता रहूँगा। अब तुम लोग वैर-विरोध छोड़कर युद्ध बन्द कर दो।

इसी समय, अपना सब सामान लिये हुए, शल्य निकालने वाले चतुर चिकित्सक लोग आ गये। उनको देखकर भीष्म ने दुर्योधन से कहा कि मुझे क्षत्रियों की परम गति मिल चुकी है। अब चिकित्सकों की क्या आवश्यकता? मैं तो इन सब बाणों समेत जलाया जाऊँगा। इन चिकित्सकों को पुरस्कार देकर आदर के साथ विदा कर दो। पितामह की ये बातें सुनकर और उनका धर्मसंगत व्यवहार देखकर राजा लोक उनको प्रणाम और प्रदक्षिणा कर-करके अपनी-अपनी छावनियों में लौट गये।

अगले दिन सबेरा होने पर फिर क्षत्रिय योद्धा लोग आये। उनके साथ-साथ हज़ारों क्षत्रिय-कन्याएँ भी आईं। बाजे बजाने वाले, नट, नर्तक और कारीगर आदि पितामह के पास आये और उनके चारों ओर चुपचाप खड़े हो गये। अस्त्रों की चोटों के कारण भीष्म को बड़ी पीड़ा हो रही थी। उन्होंने राजाओं से पीने के लिए ठण्डा पानी माँगा तो लोग चारों ओर से तरह-तरह की खाने की वस्तुएँ और घड़ों में ठण्डा पानी ले-लेकर दौड़ पड़े। इस पर भीष्म ने कहा- "भूपतियो! शरशय्या पर लेट जाने से अब मैं मनुष्य-लोक से अलग हो चुका। मैं तो केवल सूर्य के परिवर्तन-काल की बाट जोह रहा हूँ। आप लोग मेरे लिए यह क्या ले आये!" अब उन्होंने अर्जुन को देखना चाहा। आज्ञा पाते ही अर्जुन भीष्म के आगे नम्रता के साथ जा खड़े हुए। भीष्म ने उनसे कहा कि तुम्हारे बाणों से छिदा हुआ मेरा शरीर मानो जला जा रहा है। मर्मस्थानों में पीड़ा हो रही है। मुँह सूख रहा है। मैं बहुत व्याकुल हो रहा हूँ। तुम समर्थ हो, मुझे पानी पिलाओ।

अर्जुन ने चटपट रथ पर सवार होकर गाण्डीव के ऊपर प्रत्यंचा चढ़ाई। फिर भीष्म की प्रदक्षिणा करके विधिपूर्वक पर्जन्यास्त्र का प्रयोग किया और भीष्म की दाहिनी ओर पृथ्वी में बाण मारा। बात की बात में वहाँ से अमृत-तुल्य, सुगन्धित, बढ़िया जल की धारा निकलने लगी। उस पानी को पीकर भीष्म तृप्त हो गये। उन्होंने अर्जुन की बहुत प्रशंसा की और दुर्योधन को बार-बार समझाया कि हमारी यह गति देखकर सँभल जाओ। युद्ध बन्द करके वंश की रक्षा कर लो।

अगले दिन पितामह के पास कर्ण गया। उसे भी भीष्म ने युद्ध रोकवा देने की सलाह दी। उसके अस्वीकार करने पर उन्होंने कहा कि यदि तुम वैर-विरोध छोड़ना नहीं चाहते तो सदाचार-परायण होकर, अपने उत्साह और शक्ति के अनुसार, दुर्योधन का काम सँभालो और धर्मयुद्ध करके क्षत्रियों के लोकों को प्राप्त करो। सन्धि कराने की चेष्टा करने में मैंने कुछ उठा नहीं रखा, किंतु मुझे सफलता नहीं मिली।

पितामह से विवाद हो जाने के कारण उनके सेनापतित्व में कर्ण ने यद्यपि एक चींटी को भी नहीं मारा था, फिर भी उन्हें धराशायी देखकर वह विकल हो गया। आश्चर्य नहीं कि उसे झगड़ा कर लेने के लिए पछतावा भी हुआ हो। उसने बार-बार पितामह की शूरता की सराहना की। सच है, वीर का आदर वीर के सिवा और कौन कर सकता है? उसने स्वीकार किया कि आप के बिना हम सबकी शोचनीय दशा हो गई है। अब वह अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित होकर युद्ध करने को तैयार हुआ।

कुरुक्षेत्र के संग्राम में विजयी होने के पश्चात् युधिष्ठिर को इस बात का बड़ा पश्चात्ताप हुआ कि उन्हीं के कारण उनके सगे-संबंधियों और पुत्रों के प्राण गये। इससे उदास हो उन्होंने जीते हुए राज्य को छोड़-छाड़कर संन्यासी होने का विचार कर लिया। पाण्डवों समेत श्रीकृष्ण ने और देवव्यास प्रभृति हितैषियों ने उन्हें तरह-तरह से समझाया। फिर उन्होंने पितामह के पास उपदेश पाने के लिए इन्हें भेजा। भीष्म यद्यपि शरशय्या पर पड़े हुए थे फिर भी उन्होंने-श्रीकृष्ण के कहने से-युधिष्ठिर का शोक दूर करने के लिए राजधर्म, मोक्षधर्म और आपद्धर्म आदि का मूल्यवान उपदेश बड़े विस्तार के साथ दिया। इस उपदेश को सुनने से युधिष्ठिर के मन से ग्लानि दूर हो गई।

सूर्य के उत्तरायण होने पर युधिष्ठिर आदि सगे-संबंधी, पुरोहित और अन्यान्य लोग भीष्म के पास पहुँचे। उन सबसे पितामह ने कहा कि इस शरशय्या पर मुझे अट्ठावन दिन हो गयें। मेरे भाग्य से माघ महीने का शुक्ल पक्ष आ गया। अब मैं शरीर त्यागना चाहता हूँ। इसके पश्चात् उन्होंने सब लोगों से प्रेमपूर्वक विदा माँगकर शरीर छोड़ने के लिए योग क्रिया आरम्भ कर दी। प्राणवायु को रोककर वे उसे जिस-जिस अंग के ऊपर चढ़ाते जाते और घाव भर जाते थे। थोड़ी ही देर में उनके शरीर के सब घाव भर गये और प्राण-वायु ब्रह्मरन्ध्र को फोड़कर निकल गया।

महाभारत युद्ध में शर शैया पर पितामह भीष्म

शरीर का त्याग

अठारह दिनों के युद्ध में दस दिनों तक अकेले घमासान युद्ध करके भीष्म ने पाण्डव पक्ष को व्याकुल कर दिया और अन्त में शिखण्डी के माध्यम से अपनी मृत्यु का उपाय स्वयं बताकर महाभारत के इस अद्भुत योद्धा ने शरशय्या पर शयन किया। शास्त्र और शस्त्र के इस सूर्य को अस्त होते हुए देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने इनके माध्यम से युधिष्ठिर को धर्म के समस्त अंगों का उपदेश दिलवाया। युधिष्ठिर तथा शेष पाण्डवों ने भी शेय्या पर पड़े हुए पितामह भीष्म के चरण-स्पर्श किए। भीष्म ने युधिष्ठिर को तरह-तरह के उपदेश दिए। अगले दिन जब सूर्य 'उत्तरायण' हो गया, उचित समय जानकर युधिष्ठिर सभी भाइयों, धृतराष्ट्र, गांधारी एवं कुंती को साथ लेकर भीष्म के पास पहुँचे। भीष्म ने सबको उपदेश दिया तथा अट्ठावन दिन तक शर-शैय्या पर पड़े रहने के बाद महाप्रयाण किया। सूर्य के उत्तरायण होने पर पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण की छवि को अपनी आँखों में बसाकर महात्मा भीष्म ने अपने नश्वर शरीर का त्याग किया था। सभी लोग भीष्म को याद कर रोने लगे। युधिष्ठिर तथा पांडवों ने पितामह के शरविद्ध शव को चंदन की चिता पर रखा तथा दाह-संस्कार किया।

ऐतिहासिक तथ्य और संदर्भ

श्रीयुत् वैद्य महाश्य ने हिसाब लगाकर बतलाया है कि कुरुक्षेत्र वाले युद्ध में भीष्म डेढ़ सौ वर्ष के थे। फिर भी वे युवकों की भाँति फुर्ती से युद्ध करते थे। इसमें कुछ अचम्भा नहीं है। बुड्ढे हिंडेनबर्ग आदि ने भी तो यहीं कर दिखाया है। सन ईसवी से लगभग 300 वर्ष पहले सिकन्दर ने भारतवर्ष पर आक्रमण किया था। उस समय के यूनानियों को भारत में दो-दो सौ वर्ष की आयुवाले लोग मिले थे। फिर महाभारत-युद्ध के समय भीष्म जैसे बड़ी उम्रवाले लोगों के युद्ध करने में अचम्भा ही क्या रह जाता है? इस युद्ध के समय अर्जुन पचपन वर्ष के थे। वे जिस समय हिमालय से हस्तिनापुर में आये उस समय पाँच वर्ष के माने जाएँ तो मानना पड़ेगा कि पाण्डु चालीस वर्ष की आयु में और उनके पिता विचित्रवीर्य 30 वर्ष की उम्र में मरे होंगे। इस दृष्टि से मालूम पड़ता है कि जिस समय भीष्म को राज-काज सँभालते सत्तर वर्ष हो गये थे अर्थात् उस समय भीष्म सौ वर्ष के थे। उन्होंने कोई एक सौ बीस वर्ष तक निर्लिप्त रहकर राज-काज सँभाला था। इस कारण राजनीति के दाँव-पेंच समझने में उनसे अधिक कुशल और कौन हो सकता था? इसी कारण व्यासजी ने सारी राजनीति का उपदेश भीष्म के मुँह से ही दिलवाया है और सौति ने भी तत्त्वज्ञान का उपदेश उन्हीं से दिलवाना ठीक समझा। एक प्रश्न यह है कि जब दुर्योधन ने भीष्म का उपदेश नहीं माना तब भीष्म ने उसकी ओर से युद्ध क्यों किया। वास्तव में उनका काम राजा को उसकी भूल सुझा देना भर था। अंतिम निर्णय तो राजा ही कर सकता है। राजा को देवता का अंश मानने की धारणा हमारी बहुत पुरानी है। फिर जिसका नमक इतने दिनों खाया था उसको छोड़कर कैसे जा सकते थे? यदि यह कहा जाय कि इन्होंने किसी दूसरे का नमक नहीं खाया, अपना ही खाया था, तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि एक बार जब ये अपना राजगद्दी का अधिकार छोड़ चुके तब इनका प्रभुत्व रह ही कहाँ गया?

यदि यह कहें कि कौरव-पाण्डवों का बँटवारा होते समय नई राजधानी स्थापित होने पर ये पाण्डवों के यहाँ क्यों न चले गये तो इसका उत्तर यह है कि पुराना स्थान छोड़ने की आवश्यकता ही क्या थी? उस समय यहीं कहाँ निश्चय हुआ था कि कौरव लोग ऐसे हठी और अधर्मी हैं? अतएव अकारण पुराने आश्रय को छोड़ नये की खुशामत करने की झंझट कौन मोल लेता? फिर युद्ध तो उन्हें उस ओर से भी करना पड़ता। हाँ, तब यह कहने को होता कि उन्होंने अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध हथियार उठाया।

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