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पूर्व [[श्लोक]] में यह बात कही गयी कि कोई मनुष्य क्षण मात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता, इस पर यह शंका होती है कि [[इन्द्रियाँ|इन्द्रियों]] की क्रियाओं को हठ से रोककर भी तो मनुष्य कर्मों का त्याग कर सकता है। अत: ऊपर इन्द्रियों की क्रियाओं का त्याग कर देना कर्मों का त्याग नहीं हैं, यह भाव दिखलाने के लिये भगवान् कहते हैं-
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09:42, 4 जनवरी 2013 के समय का अवतरण

गीता अध्याय-3 श्लोक-5 / Gita Chapter-3 Verse-5

प्रसंग-


पूर्व श्लोक में यह बात कही गयी कि कोई मनुष्य क्षण मात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता, इस पर यह शंका होती है कि इन्द्रियों की क्रियाओं को हठ से रोककर भी तो मनुष्य कर्मों का त्याग कर सकता है। अत: ऊपर इन्द्रियों की क्रियाओं का त्याग कर देना कर्मों का त्याग नहीं हैं, यह भाव दिखलाने के लिये भगवान् कहते हैं-


न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्रावश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै: ।।5।।



नि:सन्देह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षण मात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता, क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिये बाध्य किया जाता है ।।5।।

Surely none can ever remain inactive even for a moment; for everyone helplessly driven to action by nature-born qualities.(5)


हि = क्योंकि ; कश्र्चित् = कोई भी (पुरुष) ; जातु = किसी कालमें ; क्षणम् = क्षणमात्र ; अपि = भी ; अकर्मकृत् = बिना कर्म किये ; न = नहीं ; तिष्ठति= रहता है ; हि = नि:सन्देह ; सर्व: = सब (ही पुरुष) ; प्रकृतिजै: = प्रकृतिसे उत्पन्न हुए ; गुणै: = गुणोंद्वारा ; अवश: = परवश हुए ; कर्म = कर्म ; कार्यते = करते हैं ;



अध्याय तीन श्लोक संख्या
Verses- Chapter-3

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14, 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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