"गीता 3:34": अवतरणों में अंतर
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यहाँ < | यहाँ [[अर्जुन]]<ref>[[महाभारत]] के मुख्य पात्र है। वे [[पाण्डु]] एवं [[कुन्ती]] के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। [[द्रोणाचार्य]] के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। [[द्रौपदी]] को [[स्वयंवर]] में भी उन्होंने ही जीता था।</ref> के मन में यह बात आ सकती है कि मैं यह युद्ध रूप घोर कर्म न करके यदि भिक्षावृत्ति से अपना निर्वाह करता हुआ शान्तिमय कर्मों में लगा रहूँ तो सहज ही राग-द्वेष से छूट सकता हूँ, फिर आप मुझे युद्ध करने के लिये आज्ञा क्यों दे रहे हैं ? इस पर भगवान् कहते हैं- | ||
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इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं, मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिये ,क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले | इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं, मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिये ,क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान् शत्रु हैं ।।34।। | ||
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इन्द्रियस्य = इन्द्रिय के; अर्थे = अर्थ में; अर्थात् सभी इन्द्रियों के भोगों में; व्यवस्थितौ = स्थित (जो); रागद्वेषौ = राग और द्वेष हैं; तयो: = उन दोनों के; वशम् = वश में; न = नहीं; आगच्छेत् = होवे; हि; = क्योंकि; अस्य = इसके; तौ = वे दोनों (ही); परिपन्थिनौ = कल्याण मार्ग में विन्ध्र करने वाले | इन्द्रियस्य = इन्द्रिय के; अर्थे = अर्थ में; अर्थात् सभी इन्द्रियों के भोगों में; व्यवस्थितौ = स्थित (जो); रागद्वेषौ = राग और द्वेष हैं; तयो: = उन दोनों के; वशम् = वश में; न = नहीं; आगच्छेत् = होवे; हि; = क्योंकि; अस्य = इसके; तौ = वे दोनों (ही); परिपन्थिनौ = कल्याण मार्ग में विन्ध्र करने वाले महान् शत्रु हैं; | ||
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14:08, 30 जून 2017 के समय का अवतरण
गीता अध्याय-3 श्लोक-34 / Gita Chapter-3 Verse-34
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टीका टिप्पणी और संदर्भसंबंधित लेख |
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