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यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर पोषण करने के लिये ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को खाते हैं ।।13।।
[[यज्ञ]] से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर पोषण करने के लिये ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को खाते हैं ।।13।।


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10:07, 4 जनवरी 2013 के समय का अवतरण

गीता अध्याय-3 श्लोक-13 / Gita Chapter-3 Verse-13

प्रसंग-


यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि यज्ञ न करने से क्या हानि है ? इस पर सृष्टि चक्र को सुरक्षित रखने के लिये यज्ञ की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हैं-


यज्ञशिष्टाशि: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषै: ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।।13।।



यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर पोषण करने के लिये ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को खाते हैं ।।13।।

The virtuous who partake of what is left over after sacrifice are absolved of all sins. Those sinful ones who cook for the sake of nourishing their body alone eat only sin.(13)


यज्ञशिष्टाशिन: = यज्ञसे शेष बचे हुए अन्न्को खानेवाले ; सन्त: = श्रेष्ठ पुरुष ; सर्वकिल्बिषै: = सब पापोंसे ; मुच्यन्ते = छूटते हैं (और) ; ये = जो ; पापा: = पापीलोग ; आत्मकारणात् = अपने (शरीरपोषणके) लिये ही ; पचन्ति = पकाते हैं ; ते = वे ; तु = तो ; अघम् = पापको ही ; मुझते = खाते हैं ;



अध्याय तीन श्लोक संख्या
Verses- Chapter-3

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14, 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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