"गीता 3:29": अवतरणों में अंतर

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गीता अध्याय-3 श्लोक-29 / Gita Chapter-3 Verse-29

प्रसंग-


इस प्रकार कर्मों की अवश्य-कर्तव्यता का प्रतिपादन करके अब भगवान् अर्जुन[1] की दूसरे श्लोक में की हुई प्रार्थना के अनुसार उसे परम कल्याण की प्राप्ति का ऐकान्तिक और सर्वश्रेष्ठ निश्चित साधन बतलाते हुए युद्ध के लिये आज्ञा देते हैं-


प्रकृतेर्गुणसम्मूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ।।29।।



प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित नहीं होता है ||29||

Bewildered by the modes of material nature, the ignorant fully engage themselves in material activities and become attached. But the wise should not unsettle them, although these duties are inferior due to the performers' lack of knowledge.(29)


प्रकृते: = प्रकृतिके ; गुणसंमूढा: = गुणोंसे मोहित हुए पुरुष ; गुणकर्मसु = गुण और कर्मोंमें ; सज्जन्ते = आसक्त होते हैं ; तान् = उन ; अकृत्स्त्रविद: = अच्छी प्रकार न समझनेवाले ; मन्दान् = मूर्खोंको ; कृत्स्त्रवित् = अच्छी प्रकार जाननेवाला ; (ज्ञानी पुरुष) ; न विचालयेत् = चलायमान न करे ;



अध्याय तीन श्लोक संख्या
Verses- Chapter-3

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14, 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत के मुख्य पात्र है। वे पाण्डु एवं कुन्ती के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। द्रौपदी को स्वयंवर में भी उन्होंने ही जीता था।

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