"गीता 3:16": अवतरणों में अंतर

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पार्थ = हे पार्थ ; य: = जो पुरुष ; इह = इस लोकमें ; एवम् = इस प्रकार ; प्रवर्तितम् = चलाये हुए ; चक्रम् = सृष्टिचक्रके ; न अनुवर्तयति = अनुसार नहीं बर्तता है (अर्थात शास्त्रानुसार कर्मोंको नहीं करता है) ; स: = वह ; इन्द्रियाराम: = इन्द्रियोंके सुखको भोगनेवाला ; अघायु: = पापआयु (पुरुष) ; मोघम् = व्यर्थ ही ; जीवति = जीता है  
पार्थ = हे पार्थ ; य: = जो पुरुष ; इह = इस लोकमें ; एवम् = इस प्रकार ; प्रवर्तितम् = चलाये हुए ; चक्रम् = सृष्टिचक्रके ; न अनुवर्तयति = अनुसार नहीं बर्तता है (अर्थात् शास्त्रानुसार कर्मोंको नहीं करता है) ; स: = वह ; इन्द्रियाराम: = इन्द्रियोंके सुखको भोगनेवाला ; अघायु: = पापआयु (पुरुष) ; मोघम् = व्यर्थ ही ; जीवति = जीता है  
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07:57, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

गीता अध्याय-3 श्लोक-16 / Gita Chapter-3 Verse-16

प्रसंग-


यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि उपर्युक्त प्रकार से सृष्टि-चक्र के अनुसार चलने का दायित्व किस श्रेणी के मनुष्यों पर है ? इस पर परमात्मा को प्राप्त सिद्ध महापुरुष के सिवा इस सृष्टि से सम्बन्ध रखने वाले सभी मनुष्यों पर अपने-अपने कर्तव्य पालन का दायित्व है- यह भाव दिखलाने के लिये दो श्लाकों में ज्ञानी महापुरुष के लिये कर्तव्य अभाव और उसका हेतु बतलाते हैं-


एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य: ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ।।16।।



हे पार्थ[1] ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टि चक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात् अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियाँ के द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है ।।16।।

Arjuna, he who does not follow the wheel of creation thus set going in this world (i.e., does not perform his duties), sinful and sensual, he lives in vain. (16)


पार्थ = हे पार्थ ; य: = जो पुरुष ; इह = इस लोकमें ; एवम् = इस प्रकार ; प्रवर्तितम् = चलाये हुए ; चक्रम् = सृष्टिचक्रके ; न अनुवर्तयति = अनुसार नहीं बर्तता है (अर्थात् शास्त्रानुसार कर्मोंको नहीं करता है) ; स: = वह ; इन्द्रियाराम: = इन्द्रियोंके सुखको भोगनेवाला ; अघायु: = पापआयु (पुरुष) ; मोघम् = व्यर्थ ही ; जीवति = जीता है



अध्याय तीन श्लोक संख्या
Verses- Chapter-3

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14, 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पार्थ, भारत, धनज्जय, पृथापुत्र, परन्तप, गुडाकेश, निष्पाप, महाबाहो सभी अर्जुन के सम्बोधन है।

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