द्रोणाचार्य
महर्षि भारद्वाज का वीर्य किसी द्रोणी (यज्ञकलश अथवा पर्वत की गुफ़ा) में स्खलित होने से जिस पुत्र का जन्म हुआ, उसे द्रोण कहा गया। ऐसा उल्लेख भी मिलता है कि भारद्वाज ने गंगा में स्नान करती घृताची को देखा, आसक्त होने के कारण जो वीर्य स्खलन हुआ, उसे उन्होंने द्रोण (यज्ञकलश) में रख दिया। उससे उत्पन्न बालक द्रोण कहलाया। द्रोणाचार्य भारद्वाज मुनि के पुत्र थे। ये संसार के श्रेष्ठ धनुर्धर थे। द्रोण अपने पिता भारद्वाज मुनि के आश्रम में ही रहते हुये चारों वेदों तथा अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान में पारंगत हो गये थे। द्रोण का जन्म उत्तरांचल की राजधानी देहरादून में बताया जाता है, जिसे हम देहराद्रोण (मिट्टी का सकोरा) भी कहते थे। द्रोण के साथ प्रषत् नामक राजा के पुत्र द्रुपद भी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तथा दोनों में प्रगाढ़ मैत्री हो गई। भारद्वाज मुनि के आश्रम में द्रुपद भी द्रोण के साथ ही विद्याध्ययन करते थे। भारद्वाज मुनि के शरीरान्त होने के बाद द्रोण वहीं रहकर तपस्या करने लगे। वेद-वेदागों में पारंगत तथा तपस्या के धनी द्रोण का यश थोड़े ही समय में चारों ओर फैल गया।
विवाह
द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहिन कृपि से हो गया और उनका अश्वत्थामा नामक पुत्र पैदा हो गया। अत्यन्त शोचनीय आर्थिक स्थिति होने के कारण जब अश्वत्थामा ने अपनी माँ से दूध पीने को माँगा तो कृपि ने अपने पुत्र को पानी में आटा घोलकर दूध बताकर पीने को दे दिया। द्रोणाचार्य को इस बात का पता चलने पर अपार कष्ट हुआ, उन्हें द्रुपद का आधा राज्य देने का वचन याद आया किन्तु द्रुपद ने द्रोणाचार्य को अपनी राज्यसभा में अपमानित किया।
अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान
द्रोणाचार्य कौरव और पांडवो के गुरु थे। कौरवो और पांडवो ने द्रोणाचार्य के आश्रम में ही अस्त्रों और शस्त्रों की शिक्षा पायी थी। अर्जुन द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य थे। वे अर्जुन को विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे। द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य अर्जुन ने अपने गुरु द्रोणाचार्य के अपमान का बदला द्रुपद से लिया।
उस समय शस्त्रास्त्र-विद्याओं में श्रेष्ठ श्री परशुराम जी महेन्द्र पर्वत पर तप करते थे। द्रोण को मालूम पड़ा कि परशुराम अपना समस्त राज्य, धन-वैभव दान कर रहे हैं, अत: वह धन की कामना से परशुराम के पास गया। परशुराम तब तक अपने शरीर तथा अस्त्रों के अतिरिक्त सभी कुछ दान रक चुके थे, अत: उन्होंने अपने समस्त अस्त्र-शस्त्र द्रोण को दे दिये तथा उनके प्रयोग तथा उपसंहार की विधि भी प्रदान कर दी। द्रोणाचार्य ने श्री परशुराम जी से सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया। अस्त्र-शस्त्र की विद्या में पारंगत होकर द्रोणाचार्य अपने मित्र द्रुपद से मिलने गये। द्रुपद उस समय पांचाल नरेश थे। आचार्य द्रोण ने द्रुपद से कहा- 'राजन्! मैं आपका बालसखा द्रोण हूँ। मैं आपसे मिलने के लिये आया हूँ।' द्रुपद उस समय ऐश्वर्य के मद में चूर थे। उन्होंने द्रोण से कहा-
'तुम मूढ़ हो, पुरानी लड़कपन की बातों को अब तक ढो रहे हो, सच तो यह है कि दरिद्र मनुष्य धनवान् का, मूर्ख विद्वान् का तथा कायर शूरवीर का मित्र हो ही नहीं सकता।'
द्रुपद की बातों से अपमानित होकर द्रोणाचार्य वहाँ से उठकर हस्तिनापुर की ओर चल दिये।
धर्नुविद्या की शिक्षा
एक दिन कौरव-पाण्डव कुमार परस्पर गुल्ली-डण्डा खेल रहे थे। अकस्मात् उनकी गुल्ली कुएँ में गिर गयी। आचार्य द्रोण को उधर से जाते हुए देखकर राजकुमारों ने उनसे गुल्ली निकालने की प्रार्थना की। तब एक श्यामवर्ण के ब्राह्मण ने गुल्ली को अभिमंत्रित सींक से बांध डाला। एक सींक को दूसरी से बेंधते हुए उन्होंने सींक का सिरा कुएँ के ऊपर तक पहुँचा दिया, जिसे खींचकर गुल्ली बाहर निकल आयी। उसी प्रकार अँगूठी को कुएँ में फेंककर तीर से बाहर निकाल लिया। उनके विषय में सुनकर भीष्म वहाँ पहुँचे और उन्हें पहचानकर उनसे कौरवों तथा पांडवों का गुरु बनने का आग्रह किया। द्रोणाचार्य मनोयोग से उन सबको शस्त्र-विद्या सिखाने लगे, किंतु अपने पुत्र पर उनका विशेष ध्यान रहता था। वे अन्य सब शिष्यों को कमंडलु देते तथा अश्वत्थामा को चोड़े मुँह का घड़ा। इस प्रकार अश्वत्थामा अन्य सबकी अपेक्षा बहुत जल्दी पानी भरकर ले आते, अत: अन्य शिष्यों के आने से पूर्व वे अश्वत्थामा को अस्त्र-शस्त्र संचालन सिखा देते। अर्जुन ने यह बात भांप ली। वह वरुणास्त्र से तुरंत ही कुंमडलु भरकर प्रस्तुत कर देता। अत: वह अश्वत्थामा से पीछे नहीं रहा।
गुरुदक्षिणा
एक बार भोजन करते समय हवा से दीपक बुझ गया, परंतु अभ्यासवश हाथ बार-बार मुँह तक ही पहुँचता था। इस तथ्य की ओर ध्यान देकर अर्जुन ने रात्रि में भी धनुर्विद्या का अभ्यास प्रारंभ कर दिया। वह द्रोण का अत्यंत प्रिय शिष्य था। द्रोण ने एकलव्य को शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया था क्योंकि वे अर्जुन को धनुर्विद्या में अद्वितीय बनाये रखना चाहते थे। द्रोणाचार्य ने गुरुदक्षिणा के रूप में शिष्यों से राजा द्रुपद को बंदी बना लाने के लिए कहा। ऐसा होने पर उसका आधा राज्य उसे लौटाते हुए द्रोण ने कहा- तुम कहते थे कि राजा ही राजा का मित्र हो सकता है, अत: आज से तुम्हारा आधा राज्य मेरे पास रहेगा और दोनों राजा होने के कारण मित्र भी रहेंगे। द्रुपद अत्यंत लज्जित स्थिति में अपने राज्य की ओर लौटा। द्रोण ने अर्जुन से गुरुदक्षिणा-स्वरूप यह प्रतिज्ञा ली कि यदि द्रोण भी उसके विरोध में खड़े होंगे तो वह युद्ध करेगा।
- निषाद बालक एकलव्य जो कि अद्भुत धर्नुधर बन गया था। वह द्रोणाचार्य को अपना इष्ट गुरु मानता था और उनकी मूर्ति बनाकर उसके सामने अभ्यास कर धर्नुविद्या में पारंगत हो गया था अर्जुन के समकक्ष कोई ना हो जाए इस कारण द्रोणाचार्य ने एकलव्य से गुरु दक्षिणा के रूप में दाहिने हाथ का अँगूठा माँग लिया। एकलव्य ने हँसते हँसते अँगूठा दे दिया।
- द्रोणाचार्य ने कर्ण की प्रतिभा को पहचान लिया था और उसे भी सूतपुत्र बता शिक्षा देने से मनाकर दिया था।
चक्रव्यूह रचना
द्रोणाचार्य यद्यपि कौरवों की ओर से युद्ध कर रहे थे तथापि उनका मोह पांडवों के प्रति था, ऐसा दुर्योधन बार-बार अनुभव करता था। द्रोण के सर्वतोप्रिय शिष्यों में से एक अर्जुन था। उन्होंने समय-समय पर अनेक प्रकार के व्यूहों की रचना की। उनके बनाये व्यूह को तोड़ने में ही अभिमन्यु मारा गया। महाभारत युद्ध में भीष्म पितामह के बाद मुख्य सेनापति का पद द्रोणाचार्य के पास रहा था। अर्जुन ने क्रुद्ध होकर जयद्रथ को मारने की ठानी, क्योंकि उसने पांडवों को व्यूह में प्रवेश नहीं करने दिया था और अनेक रथियों ने अकेले अभिमन्यु को घेरकर मारा था जो कि युद्ध-नियमों के विरुद्ध थां अर्जुन को ज्ञात हुआ तो उसने अगले दिन सायं तक जयद्रथ को मारने अथवा आत्मदाह कर लेने की शपथ लीं अत: द्रोण ने जयद्रथ की सुरक्षा के लिए चक्रशकट व्यूह का निर्माण किया तथापि अर्जुन तथा श्रीकृष्ण ने अगले दिन संध्या से पूर्व जयद्रथ को मार डाला। श्रीकृष्ण ने माया से अंधकार फैला दिया। कौरवगण रात्रि का आगमन समझकर निश्चित हो गये और जयद्रथ को तब तक सुरक्षित देख अर्जुन के आत्मदाह की कल्पना करने लगे, तभी अर्जुन ने जयद्रथ को मार डाला। शोकातुर पांडवों ने रात्रि में भी युद्ध का कार्यक्रम नहीं समेटा तथा सामूहिक रूप से द्रोण पर आक्रमण कर दिया।
अधर्म पर आधारित
पंद्रहवें दिन से पूर्व की रात्रि में द्रोण से युद्ध करते हुए द्रुपद के तीन पौत्र, द्रुपद तथा विराट आदि मारे गये। द्रोण दुर्योधन के वाक्बाणों से क्रुद्ध हो उठे थे, अत: उन्होंने अनेकों पांचाल सैनिकों को नष्ट कर डाला। जो भी रथी सामने आता, द्रोण उसी को नष्ट कर डालते। उन्हें क्षत्रियों का इस प्रकार विनाश करते देख अंगिरा, वसिष्ठ, कश्यप आदि अनेक ऋषि उन्हें ब्रह्मलोक ले चलने के लिए वहाँ पहुँचे। उन्होंने द्रोण से युद्ध छोड़ देने का अनुरोध किया, साथ ही यह भी कहा कि उनका युद्ध अधर्म पर आधारित है। ब्रह्मास्त्र को प्रयोग करने की विधि द्रोणाचार्य ने अपने पुत्र अश्वत्थामा को भी सिखा रखी थी जिसका प्रयोग उसने महाभारत के बाद पाडंवों के वंश का समूल नाश करने हेतु अर्जुन की पुत्रवधू उत्तरा के गर्भ को नष्ट करने के लिए किया था। कृष्ण ने उत्तरा के गर्भ में जाकर अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित की रक्षा की थी क्योंकि सम्पूर्ण कुरुवंश के अन्तिम राजा परीक्षत ही थे। दूसरी ओर श्रीकृष्ण ने पांडवों को कह-सुनकर तैयार कर लिया कि वे द्रोणतक अश्वत्थामा के मर जाने का संदेश पहुँचा दें। भले ही यह असत्य है। इसके अतिरिक्त युद्धधर्म से उन्हें विरक्त करने का कोई अन्य उपाय यनहीं जान पड़ता। कालांतर में भीम ने मालव नरेश इंद्रवर्मा का अश्वत्थामा नामक हाथी मार डाला।
द्रोणाचार्य की मृत्यु
भीम ने द्रोण को 'अश्वत्थामा मार डाला गया है'- यह समाचार दिया। द्रोण अपने बेटे के बल से परिचित थे, अत: उन्होंने धर्मावतार युधिष्ठिर से इस समाचार की पुष्टि करने के लिए कहा। युधिष्ठिर ने ज़ोर से कहा- अश्वत्थामा मारा गया[1] और साथ ही धीरे से यह भी कह दिया 'हाथी का वध हुआ है।' उत्तरांश द्रोण ने नहीं सुना तथा पुत्रशोक से संतप्त हो उनकी चेतना लुप्त होने लगी। वे अनमने से धृष्टद्युम्न से युद्ध कर रहे थे, तब भीम ने पुन: जाकर कहा- तुम अपने एक पुत्र की जीविका के लिए ब्राह्मण होकर भी यह हत्याकांड कर रहे हो, वह पुत्र तो अब रहा भी नहीं। द्रोण आर्तनाद कर उठे तथा कौरवों को पुकारकर कहने लगे कि अब युद्ध का कार्यभार वे लोग स्वयं ही संभाले। सुअवसर देखकर धृष्टद्युम्न तलवार लेकर उनके रथ की ओर लपका। द्रोण ने अस्त्र त्यागकर 'ॐ' का उच्चारण किया तथा उनके ज्योतिर्मय प्राण ब्रह्मलोक की ओर बढ़ते हुए आकाश में अदृश्य हो गये। इस अवस्था में उनके मस्तक के बाल पकड़कर धृष्टद्युम्न ने सबके मना करते हुए भी चार सौ वर्षीय द्रोण के सिर को धड़ से काट गिराया। अर्जुन कहता ही रह गया कि आचार्य को मारो मत, जीवित ही ले जाओ। वास्तव में राजा द्रुपद ने एक महान यज्ञ में देवाराधन करके द्रोणाचार्य का विनाश करने के लिए धृष्टद्युम्न नामक राजकुमार को प्रज्वलित अग्नि से प्राप्त किया था। द्रोण को मृत देख कौरवों के अधिकांश सेनापति ससैन्य युद्धक्षेत्र से भागते हुए दिखलायी पड़ने लगे।
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टीका टिप्पणी और संदंर्भ
- ↑ "अश्वत्थामा हतोहतः नरो वा कुंजरो वा"