परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी सच्चिदानन्दघन ब्रह्मा[1] को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाव वाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं ।।3-4।।
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Those, however, who fully controlling all their senses and even-minded towards all, and devoted to the welfare of all beings constantly adore as their very self the unthinkable; omnipresent, indestructible indefinable, eternal, immovable, unmanifest and changeless Brahma, they too come to me. (3,4)
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