गीता 15:15

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

गीता अध्याय-15 श्लोक-15 / Gita Chapter-15 Verse-15

प्रसंग-


अब भगवान् अपने सर्वान्तर्यामित्व और सर्वज्ञत्व आदि गुणों से युक्त स्वरूप वर्णन करते हुए सब प्रकार से जानने योग्य अपने को बतलाते हैं-


सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।।15।।



मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामी रूप से स्थित हूँ तथा मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन होता है और सब वेदों[1] द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूँ तथा वेदान्त का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ ।।15।।

It is I who remain seated in the heart of all creatures as the inner controller of all; and it is I who am the source memory, knowledge and the ratiocinative faculty. Again, I am the only object worth knowing through the Vedas; I alone am the father of Vedanta and the knower of the Vedas too. (15)


च = और ; अहम् = मैं (ही) ; सर्वस्य = सब प्राणियों के ; हृदि = हृदय में ; संनिविष्ट: = अन्तर्यामीरूप से स्थित हूं (तथा) ; मत्त: = मेरे से ही ; स्मृति: = स्मृति ; ज्ञानम् = ज्ञान ; वेदान्तकृत् = वेदान्त का कर्ता ; च = और ; वेदवित् = वेदों को जाननेवाला ;च =और ; अपोहनम् = अपोहन ; (भवति) = होता है ; च = और ; सर्वै: = सब ; वेदै: = वेदों द्वारा ; अहम् = मैं ; एव = ही ; वेद्य: = जानने के योग्य हूं (तथा) अहम् = मैं ; एव = ही (हूं) ;



अध्याय पन्द्रह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-15

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वेद हिन्दू धर्म के प्राचीन पवित्र ग्रंथों का नाम है, इससे वैदिक संस्कृति प्रचलित हुई।

संबंधित लेख