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अलनीनो, एक ऐसी मौसमी दशा है जिसमें भूमध्य रेखा पर प्रशांत महासागर की सतह का तापमान औसत से अधिक हो जाता है। लिहाजा असामान्य वाष्पीकरण और संघनित होकर बने [[बादल]] दक्षिण अमेरिका में भारी वर्षा करते हैं, लेकिन प्रशांत महासागर का दूसरा उष्ण कटिबंधीय छोर इस स्थिति से अछूता रहता है। नतीजन कम बारिश और सूखे की स्थिति बन जाती है। माना जाता है कि यही स्थिति दक्षिण पश्चिमी मानसून को भी प्रभावित करती है।
अलनीनो, एक ऐसी मौसमी दशा है जिसमें भूमध्य रेखा पर प्रशांत महासागर की सतह का तापमान औसत से अधिक हो जाता है। लिहाजा असामान्य वाष्पीकरण और संघनित होकर बने [[बादल]] दक्षिण अमेरिका में भारी वर्षा करते हैं, लेकिन प्रशांत महासागर का दूसरा उष्ण कटिबंधीय छोर इस स्थिति से अछूता रहता है। नतीजन कम बारिश और सूखे की स्थिति बन जाती है। माना जाता है कि यही स्थिति दक्षिण पश्चिमी मानसून को भी प्रभावित करती है।
==उत्पत्ति का कारण==
==उत्पत्ति का कारण==
अल नीनो की उत्पत्ति के कारण का अभी तक कुछ पता नहीं। अल–नीनो घटित होने के संबंध में भी कई सिद्धांत मौजूद है लेकिन कोई भी सिद्धांत या गणितीय मॉडल अल–नीनो के आगमन की सही भविष्यवाणी नहीं कर पाता। आँधी या [[वर्षा]] जैसी घटनाएँ चूँकि अक्सर घटती है इसलिए इसके बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध है और इसके आगमन की भविष्यवाणी भी लगभग पूर्णता के साथ कर ली जाती है किंतु चार–पाँच वर्षों में एकबार आने वाली अल–नीनो के बारे में मौसम विज्ञानी इतना नहीं जानते कि पर्याप्त समय रहते इसके आगमन का अनुमान लगा लिया जाए। एक बार इसके घटित होने का लक्षण मालूम पड़ जाए तो अगले 6–8 महीनों में इसकी स्थिति को आँका जा सकता है। ला–नीना यानी समुद्र तल की ठंडी तापीय स्थिति आमतौर पर अल–नीनो के बाद आती है किंतु यह जरूरी नहीं कि दोनों बारी–बारी से आए ही। एक साथ कई अल–नीनो भी आ सकते हैं। अल–नीनो के पूर्वानुमान के लिए जितने प्रचलित सिद्धांत हैं उनमें एक यह मानता है कि विषुवतीय समुद्र में संचित उष्मा एक निश्चित अवधि के बाद अल–नीनो के रूप में बाहर आती है। इसलिए समुद्री ताप में हुई अभिवृद्धि को मापकर अलनीनो के आगमन की भविष्यवाणी की जा सकती है। यह दावा पहले गलत हो चुका है।  
अल नीनो की उत्पत्ति के कारण का अभी तक कुछ पता नहीं। अल–नीनो घटित होने के संबंध में भी कई सिद्धांत मौजूद है लेकिन कोई भी सिद्धांत या गणितीय मॉडल अल–नीनो के आगमन की सही भविष्यवाणी नहीं कर पाता। आँधी या [[वर्षा]] जैसी घटनाएँ चूँकि अक्सर घटती है इसलिए इसके बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध है और इसके आगमन की भविष्यवाणी भी लगभग पूर्णता के साथ कर ली जाती है किंतु चार–पाँच वर्षों में एकबार आने वाली अल–नीनो के बारे में मौसम विज्ञानी इतना नहीं जानते कि पर्याप्त समय रहते इसके आगमन का अनुमान लगा लिया जाए। एक बार इसके घटित होने का लक्षण मालूम पड़ जाए तो अगले 6–8 महीनों में इसकी स्थिति को आँका जा सकता है। ला–नीना यानी समुद्र तल की ठंडी तापीय स्थिति आमतौर पर अल–नीनो के बाद आती है किंतु यह ज़रूरी नहीं कि दोनों बारी–बारी से आए ही। एक साथ कई अल–नीनो भी आ सकते हैं। अल–नीनो के पूर्वानुमान के लिए जितने प्रचलित सिद्धांत हैं उनमें एक यह मानता है कि विषुवतीय समुद्र में संचित उष्मा एक निश्चित अवधि के बाद अल–नीनो के रूप में बाहर आती है। इसलिए समुद्री ताप में हुई अभिवृद्धि को मापकर अलनीनो के आगमन की भविष्यवाणी की जा सकती है। यह दावा पहले गलत हो चुका है।  


एक दूसरी मान्यता के अनुसार, मौसम वैज्ञानिक यह मानते हैं कि अल–नीनो एक अनियमित रूप से घटित होने वाली घटना है और इसका पूर्वानुमान नहीं किया जा सकता। जो भी हो, अल–नीनो आगमन की भविष्यवाणी किसान, मछुआरे, सरकार और वैज्ञानिक सभी के लिए चिंता का कारण होता है। उष्ण या उपोष्ण कटिबंध में पड़ने वाले कई देश जैसे– पेरू, [[ब्राज़ील]], [[भारत]], इथियोपिया, [[ऑस्ट्रेलिया]] आदि में कृषि योजना के लिए यहाँ की सरकारें अल–नीनो की भविष्यवाणियों का इस्तेमाल करने लगी हैं। सरकारी तथा गैर–सरकारी बीमा कंपनियाँ भी अल नीनो के चलते होने वाली हानि के आकलन हेतु खर्च के लिए तैयार रहती हैं। पुनरावृति की अवधि के हिसाब से सोचें, तो 1997–98 में आए अल–नीनो के बाद इसके आने की अगली संभावना क़रीब जान पड़ती है।<ref name="इंडिया वाटर पोर्टल"/>
एक दूसरी मान्यता के अनुसार, मौसम वैज्ञानिक यह मानते हैं कि अल–नीनो एक अनियमित रूप से घटित होने वाली घटना है और इसका पूर्वानुमान नहीं किया जा सकता। जो भी हो, अल–नीनो आगमन की भविष्यवाणी किसान, मछुआरे, सरकार और वैज्ञानिक सभी के लिए चिंता का कारण होता है। उष्ण या उपोष्ण कटिबंध में पड़ने वाले कई देश जैसे– पेरू, [[ब्राज़ील]], [[भारत]], इथियोपिया, [[ऑस्ट्रेलिया]] आदि में कृषि योजना के लिए यहाँ की सरकारें अल–नीनो की भविष्यवाणियों का इस्तेमाल करने लगी हैं। सरकारी तथा गैर–सरकारी बीमा कंपनियाँ भी अल नीनो के चलते होने वाली हानि के आकलन हेतु खर्च के लिए तैयार रहती हैं। पुनरावृति की अवधि के हिसाब से सोचें, तो 1997–98 में आए अल–नीनो के बाद इसके आने की अगली संभावना क़रीब जान पड़ती है।<ref name="इंडिया वाटर पोर्टल"/>
==अलनीनो तथा अलनीना==
==अलनीनो तथा अलनीना==
समुद्री जलसतह के ताप–वितरण में अंतर तथा [[सागर]] तल के ऊपर से बहने वाली हवाओं के बीच अंर्तक्रिया का परिणाम ही अलनीनो तथा अलनीना है। पृथ्वी के भूमध्यक्षेत्र में [[सूर्य]] की गर्मी चूँकि सालों भर पड़ती है इसलिए इस भाग में हवाएँ गर्म होकर ऊपर की ओर उठती है। इससे उत्पन्न खाली स्थान को भरने के लिए उपोष्ण क्षेत्र से ठंडी हवाएँ आगे आती है किंतु ‘कोरिएलिस प्रभाव’ के चलते दक्षिणी गोलार्ध की हवाएँ बाँयी ओर और उत्तरी गोलार्ध की हवाएँ दाँयी ओर मुड़ जाती है। प्रशांत महासागर के पूर्वी तथा पश्चिमी भाग के जल–सतह पर तापमान में अंतर होने से उपोष्ण भाग से आने वाली हवाएँ, पूर्व से पश्चिम की ओर विरल वायुदाब क्षेत्र की ओर बढती है। सतत रूप से बहने वाली इन हवाओं को ‘[[व्यापारिक पवन]]’ कहा जाता है। व्यापारिक पवनों के दबाव के चलते ही पेरू तट की तुलना में इन्डोनेशियाई क्षेत्र में समुद्र तल 0.5 मीटर तक ऊँचा उठ जाता है। [[समुद्र]] के विभिन्न हिस्सों में जल–सतह के तापमान में अंतर के चलते समुद्र तल पर से बहने वाली हवाओं प्रभावित होती है किंतु समुद्र तल पर से बहने वाली व्यापारिक पवनें भी सागर तल के ताप वितरण को बदलती रहती है। इन दोनों के बीच “पहले मुर्गी या पहले अंडा” वाली कहावत चरितार्थ है।<ref name="इंडिया वाटर पोर्टल">{{cite web |url=http://hindi.indiawaterportal.org/node/27610 |title= सागर की संतानें अल–नीनो एवं ला–नीना|accessmonthday=14 अप्रॅल |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=इंडिया वाटर पोर्टल |language=हिन्दी }} </ref>
समुद्री जलसतह के ताप–वितरण में अंतर तथा [[सागर]] तल के ऊपर से बहने वाली हवाओं के बीच अंर्तक्रिया का परिणाम ही अलनीनो तथा अलनीना है। पृथ्वी के भूमध्यक्षेत्र में [[सूर्य]] की गर्मी चूँकि सालों भर पड़ती है इसलिए इस भाग में हवाएँ गर्म होकर ऊपर की ओर उठती है। इससे उत्पन्न ख़ाली स्थान को भरने के लिए उपोष्ण क्षेत्र से ठंडी हवाएँ आगे आती है किंतु ‘कोरिएलिस प्रभाव’ के चलते दक्षिणी गोलार्ध की हवाएँ बाँयी ओर और उत्तरी गोलार्ध की हवाएँ दाँयी ओर मुड़ जाती है। प्रशांत महासागर के पूर्वी तथा पश्चिमी भाग के जल–सतह पर तापमान में अंतर होने से उपोष्ण भाग से आने वाली हवाएँ, पूर्व से पश्चिम की ओर विरल वायुदाब क्षेत्र की ओर बढती है। सतत रूप से बहने वाली इन हवाओं को ‘[[व्यापारिक पवन]]’ कहा जाता है। व्यापारिक पवनों के दबाव के चलते ही पेरू तट की तुलना में इन्डोनेशियाई क्षेत्र में समुद्र तल 0.5 मीटर तक ऊँचा उठ जाता है। [[समुद्र]] के विभिन्न हिस्सों में जल–सतह के तापमान में अंतर के चलते समुद्र तल पर से बहने वाली हवाओं प्रभावित होती है किंतु समुद्र तल पर से बहने वाली व्यापारिक पवनें भी सागर तल के ताप वितरण को बदलती रहती है। इन दोनों के बीच “पहले मुर्गी या पहले अंडा” वाली कहावत चरितार्थ है।<ref name="इंडिया वाटर पोर्टल">{{cite web |url=http://hindi.indiawaterportal.org/node/27610 |title= सागर की संतानें अल–नीनो एवं ला–नीना|accessmonthday=14 अप्रॅल |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=इंडिया वाटर पोर्टल |language=हिन्दी }} </ref>
==अलनीनो का प्रभाव==
==अलनीनो का प्रभाव==
अलनीनो एक वैश्विक प्रभाव वाली घटना है और इसका प्रभाव क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। स्थानीय तौर पर प्रशांत क्षेत्र में मतस्य उत्पादन से लेकर दुनिया भर के अधिकांश मध्य अक्षांशीय हिस्सों में बाढ, सूखा, वनाग्नि, [[तूफान]] या [[वर्षा]] आदि के रूप में इसका असर सामने आता है। अल–नीनो के प्रभाव के रूप में लिखित तौर पर 1525 ईस्वी में उत्तरी पेरू के मरूस्थलीय क्षेत्र में हुई वर्षा का पहली बार उल्लेख मिलता है। उत्तर की ओर बहने वाली ठंडी पेरू जलधारा, पेरू के समुद्र तटीय हिस्सों में कम वर्षा की स्थिति पैदा करती है लेकिन गहन समुद्री जीवन को बढावा देती है। पिछले कुछ सालों में अल–नीनो के सक्रिय होने पर उलटी स्थिति दर्ज की गयी है। पेरू जलधारा के दक्षिण की ओर खिसकने से तटीय क्षेत्र में आँधी और बाढ के फलस्वरूप मृदाक्षरण की प्रक्रिया में तेजी आती है। सामान्य अवस्था में दक्षिण अमेरिकी तट की ओर से बहने वाली फास्फेट और नाइट्रेट जैसे पोषक तत्वों से भरपूर पेरू जलधारा दक्षिण की ओर बहने वाली छिछली गर्म जलधारा से मिलने पर समुद्री शैवाल के विकसित होने की अनुकूल स्थिति पैदा करती है जो समुद्री मछलियों का सहज भोजन है। अल–नीनो के आने पर, पूर्वी प्रशांत समुद्र में गर्म जल की मोटी परत एक दीवार की तरह काम करती है और प्लांकटन या शैवाल की सही मात्रा विकसित नहीं हो पाती। परिणामस्वरूप मछलियाँ भोजन की खोज में अन्यत्र चली जाती है और मछलियों के उत्पादन पर असर पड़ता है।  
अलनीनो एक वैश्विक प्रभाव वाली घटना है और इसका प्रभाव क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। स्थानीय तौर पर प्रशांत क्षेत्र में मतस्य उत्पादन से लेकर दुनिया भर के अधिकांश मध्य अक्षांशीय हिस्सों में बाढ, सूखा, वनाग्नि, [[तूफान]] या [[वर्षा]] आदि के रूप में इसका असर सामने आता है। अल–नीनो के प्रभाव के रूप में लिखित तौर पर 1525 ईस्वी में उत्तरी पेरू के मरूस्थलीय क्षेत्र में हुई वर्षा का पहली बार उल्लेख मिलता है। उत्तर की ओर बहने वाली ठंडी पेरू जलधारा, पेरू के समुद्र तटीय हिस्सों में कम वर्षा की स्थिति पैदा करती है लेकिन गहन समुद्री जीवन को बढावा देती है। पिछले कुछ सालों में अल–नीनो के सक्रिय होने पर उलटी स्थिति दर्ज की गयी है। पेरू जलधारा के दक्षिण की ओर खिसकने से तटीय क्षेत्र में आँधी और बाढ के फलस्वरूप मृदाक्षरण की प्रक्रिया में तेज़ीआती है। सामान्य अवस्था में दक्षिण अमेरिकी तट की ओर से बहने वाली फास्फेट और नाइट्रेट जैसे पोषक तत्वों से भरपूर पेरू जलधारा दक्षिण की ओर बहने वाली छिछली गर्म जलधारा से मिलने पर समुद्री शैवाल के विकसित होने की अनुकूल स्थिति पैदा करती है जो समुद्री मछलियों का सहज भोजन है। अल–नीनो के आने पर, पूर्वी प्रशांत समुद्र में गर्म जल की मोटी परत एक दीवार की तरह काम करती है और प्लांकटन या शैवाल की सही मात्रा विकसित नहीं हो पाती। परिणामस्वरूप मछलियाँ भोजन की खोज में अन्यत्र चली जाती है और मछलियों के उत्पादन पर असर पड़ता है।  
====भारतीय मानसून पर प्रभाव====
====भारतीय मानसून पर प्रभाव====
भारतीय मानसून भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं रहता। अलनीनो की स्थिति का एक अन्य महत्वपूर्ण प्रभाव पूर्वी प्रशांत के हिस्से में समुद्री जीवन पर पड़ता है। व्यापारिक पवनों का कमजोर बहाव, पश्चिम की ओर के समुद्र में ठंडे और गर्म जल के बीच, ताप विभाजन रेखा की गहराई को बढा देता है। लगभग 150 मीटर गहराई वाली पश्चिमी प्रशांत का गर्म जल, पूरब की ओर ठंडे जल के छिछले परत को ऊपर की धकेलता है। पोषक तत्वों से भरपूर इस जल में समुद्री [[शैवाल]] तथा प्लांकटन और इन पर आश्रित [[मछली|मछलियाँ]] खूब विकास करती है। अलनीनो की स्थिति होने पर पूरब की ओर की ताप विभाजन रेखा नीचे दब जाती हैं और ठंडे जल की गहराई बढने से समुद्री शैवाल आदि नहीं पनपते।<ref name="इंडिया वाटर पोर्टल"/>
भारतीय मानसून भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं रहता। अलनीनो की स्थिति का एक अन्य महत्वपूर्ण प्रभाव पूर्वी प्रशांत के हिस्से में समुद्री जीवन पर पड़ता है। व्यापारिक पवनों का कमज़ोर बहाव, पश्चिम की ओर के समुद्र में ठंडे और गर्म जल के बीच, ताप विभाजन रेखा की गहराई को बढा देता है। लगभग 150 मीटर गहराई वाली पश्चिमी प्रशांत का गर्म जल, पूरब की ओर ठंडे जल के छिछले परत को ऊपर की धकेलता है। पोषक तत्वों से भरपूर इस जल में समुद्री [[शैवाल]] तथा प्लांकटन और इन पर आश्रित [[मछली|मछलियाँ]] खूब विकास करती है। अलनीनो की स्थिति होने पर पूरब की ओर की ताप विभाजन रेखा नीचे दब जाती हैं और ठंडे जल की गहराई बढने से समुद्री शैवाल आदि नहीं पनपते।<ref name="इंडिया वाटर पोर्टल"/>





08:20, 10 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

अलनीनो अथवा अल–नीनो जलवायु तंत्र की एक ऐसी बड़ी घटना है जो मूल रूप से भूमध्य रेखा के आसपास प्रशांत क्षेत्र में घटती है किंतु पृथ्वी के सभी जलवायवीय चक्र इससे प्रभावित है। इसका रचना संसार लगभग 120 डिग्री पूर्वी देशांतर के आसपास इन्डोनेशियाई द्वीप क्षेत्र से लेकर 80 डिग्री पश्चिमी देशांतर यानी मेक्सिको और दक्षिण अमेरिकी पेरू तट तक, संपूर्ण उष्ण क्षेत्रीय प्रशांत महासागर में फैला है। इन्हें भी देखें: एल नीनो, ला नीनो एवं पर्यावरण और संविधान

परिभाषा

अलनीनो, एक ऐसी मौसमी दशा है जिसमें भूमध्य रेखा पर प्रशांत महासागर की सतह का तापमान औसत से अधिक हो जाता है। लिहाजा असामान्य वाष्पीकरण और संघनित होकर बने बादल दक्षिण अमेरिका में भारी वर्षा करते हैं, लेकिन प्रशांत महासागर का दूसरा उष्ण कटिबंधीय छोर इस स्थिति से अछूता रहता है। नतीजन कम बारिश और सूखे की स्थिति बन जाती है। माना जाता है कि यही स्थिति दक्षिण पश्चिमी मानसून को भी प्रभावित करती है।

उत्पत्ति का कारण

अल नीनो की उत्पत्ति के कारण का अभी तक कुछ पता नहीं। अल–नीनो घटित होने के संबंध में भी कई सिद्धांत मौजूद है लेकिन कोई भी सिद्धांत या गणितीय मॉडल अल–नीनो के आगमन की सही भविष्यवाणी नहीं कर पाता। आँधी या वर्षा जैसी घटनाएँ चूँकि अक्सर घटती है इसलिए इसके बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध है और इसके आगमन की भविष्यवाणी भी लगभग पूर्णता के साथ कर ली जाती है किंतु चार–पाँच वर्षों में एकबार आने वाली अल–नीनो के बारे में मौसम विज्ञानी इतना नहीं जानते कि पर्याप्त समय रहते इसके आगमन का अनुमान लगा लिया जाए। एक बार इसके घटित होने का लक्षण मालूम पड़ जाए तो अगले 6–8 महीनों में इसकी स्थिति को आँका जा सकता है। ला–नीना यानी समुद्र तल की ठंडी तापीय स्थिति आमतौर पर अल–नीनो के बाद आती है किंतु यह ज़रूरी नहीं कि दोनों बारी–बारी से आए ही। एक साथ कई अल–नीनो भी आ सकते हैं। अल–नीनो के पूर्वानुमान के लिए जितने प्रचलित सिद्धांत हैं उनमें एक यह मानता है कि विषुवतीय समुद्र में संचित उष्मा एक निश्चित अवधि के बाद अल–नीनो के रूप में बाहर आती है। इसलिए समुद्री ताप में हुई अभिवृद्धि को मापकर अलनीनो के आगमन की भविष्यवाणी की जा सकती है। यह दावा पहले गलत हो चुका है।

एक दूसरी मान्यता के अनुसार, मौसम वैज्ञानिक यह मानते हैं कि अल–नीनो एक अनियमित रूप से घटित होने वाली घटना है और इसका पूर्वानुमान नहीं किया जा सकता। जो भी हो, अल–नीनो आगमन की भविष्यवाणी किसान, मछुआरे, सरकार और वैज्ञानिक सभी के लिए चिंता का कारण होता है। उष्ण या उपोष्ण कटिबंध में पड़ने वाले कई देश जैसे– पेरू, ब्राज़ील, भारत, इथियोपिया, ऑस्ट्रेलिया आदि में कृषि योजना के लिए यहाँ की सरकारें अल–नीनो की भविष्यवाणियों का इस्तेमाल करने लगी हैं। सरकारी तथा गैर–सरकारी बीमा कंपनियाँ भी अल नीनो के चलते होने वाली हानि के आकलन हेतु खर्च के लिए तैयार रहती हैं। पुनरावृति की अवधि के हिसाब से सोचें, तो 1997–98 में आए अल–नीनो के बाद इसके आने की अगली संभावना क़रीब जान पड़ती है।[1]

अलनीनो तथा अलनीना

समुद्री जलसतह के ताप–वितरण में अंतर तथा सागर तल के ऊपर से बहने वाली हवाओं के बीच अंर्तक्रिया का परिणाम ही अलनीनो तथा अलनीना है। पृथ्वी के भूमध्यक्षेत्र में सूर्य की गर्मी चूँकि सालों भर पड़ती है इसलिए इस भाग में हवाएँ गर्म होकर ऊपर की ओर उठती है। इससे उत्पन्न ख़ाली स्थान को भरने के लिए उपोष्ण क्षेत्र से ठंडी हवाएँ आगे आती है किंतु ‘कोरिएलिस प्रभाव’ के चलते दक्षिणी गोलार्ध की हवाएँ बाँयी ओर और उत्तरी गोलार्ध की हवाएँ दाँयी ओर मुड़ जाती है। प्रशांत महासागर के पूर्वी तथा पश्चिमी भाग के जल–सतह पर तापमान में अंतर होने से उपोष्ण भाग से आने वाली हवाएँ, पूर्व से पश्चिम की ओर विरल वायुदाब क्षेत्र की ओर बढती है। सतत रूप से बहने वाली इन हवाओं को ‘व्यापारिक पवन’ कहा जाता है। व्यापारिक पवनों के दबाव के चलते ही पेरू तट की तुलना में इन्डोनेशियाई क्षेत्र में समुद्र तल 0.5 मीटर तक ऊँचा उठ जाता है। समुद्र के विभिन्न हिस्सों में जल–सतह के तापमान में अंतर के चलते समुद्र तल पर से बहने वाली हवाओं प्रभावित होती है किंतु समुद्र तल पर से बहने वाली व्यापारिक पवनें भी सागर तल के ताप वितरण को बदलती रहती है। इन दोनों के बीच “पहले मुर्गी या पहले अंडा” वाली कहावत चरितार्थ है।[1]

अलनीनो का प्रभाव

अलनीनो एक वैश्विक प्रभाव वाली घटना है और इसका प्रभाव क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। स्थानीय तौर पर प्रशांत क्षेत्र में मतस्य उत्पादन से लेकर दुनिया भर के अधिकांश मध्य अक्षांशीय हिस्सों में बाढ, सूखा, वनाग्नि, तूफान या वर्षा आदि के रूप में इसका असर सामने आता है। अल–नीनो के प्रभाव के रूप में लिखित तौर पर 1525 ईस्वी में उत्तरी पेरू के मरूस्थलीय क्षेत्र में हुई वर्षा का पहली बार उल्लेख मिलता है। उत्तर की ओर बहने वाली ठंडी पेरू जलधारा, पेरू के समुद्र तटीय हिस्सों में कम वर्षा की स्थिति पैदा करती है लेकिन गहन समुद्री जीवन को बढावा देती है। पिछले कुछ सालों में अल–नीनो के सक्रिय होने पर उलटी स्थिति दर्ज की गयी है। पेरू जलधारा के दक्षिण की ओर खिसकने से तटीय क्षेत्र में आँधी और बाढ के फलस्वरूप मृदाक्षरण की प्रक्रिया में तेज़ीआती है। सामान्य अवस्था में दक्षिण अमेरिकी तट की ओर से बहने वाली फास्फेट और नाइट्रेट जैसे पोषक तत्वों से भरपूर पेरू जलधारा दक्षिण की ओर बहने वाली छिछली गर्म जलधारा से मिलने पर समुद्री शैवाल के विकसित होने की अनुकूल स्थिति पैदा करती है जो समुद्री मछलियों का सहज भोजन है। अल–नीनो के आने पर, पूर्वी प्रशांत समुद्र में गर्म जल की मोटी परत एक दीवार की तरह काम करती है और प्लांकटन या शैवाल की सही मात्रा विकसित नहीं हो पाती। परिणामस्वरूप मछलियाँ भोजन की खोज में अन्यत्र चली जाती है और मछलियों के उत्पादन पर असर पड़ता है।

भारतीय मानसून पर प्रभाव

भारतीय मानसून भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं रहता। अलनीनो की स्थिति का एक अन्य महत्वपूर्ण प्रभाव पूर्वी प्रशांत के हिस्से में समुद्री जीवन पर पड़ता है। व्यापारिक पवनों का कमज़ोर बहाव, पश्चिम की ओर के समुद्र में ठंडे और गर्म जल के बीच, ताप विभाजन रेखा की गहराई को बढा देता है। लगभग 150 मीटर गहराई वाली पश्चिमी प्रशांत का गर्म जल, पूरब की ओर ठंडे जल के छिछले परत को ऊपर की धकेलता है। पोषक तत्वों से भरपूर इस जल में समुद्री शैवाल तथा प्लांकटन और इन पर आश्रित मछलियाँ खूब विकास करती है। अलनीनो की स्थिति होने पर पूरब की ओर की ताप विभाजन रेखा नीचे दब जाती हैं और ठंडे जल की गहराई बढने से समुद्री शैवाल आदि नहीं पनपते।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 सागर की संतानें अल–नीनो एवं ला–नीना (हिन्दी) इंडिया वाटर पोर्टल। अभिगमन तिथि: 14 अप्रॅल, 2015।

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