"गीता 12:3-4": अवतरणों में अंतर

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पूर्व श्लोक में सगुण-साकार परमेश्वर के उपासकों को उत्तम योगवेत्ता बतलाया, इस पर यह जिज्ञासा हो सकती है कि तो क्या निर्गुण निराकार ब्रह्मा के उपासक उत्तम योगवेत्ता नहीं हैं ? इस पर कहते हैं-  
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परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी सच्चिदानन्दघन <balloon link="ब्रह्मा" title="सर्वश्रेष्ठ पौराणिक त्रिदेवों में ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव की गणना होती है। इनमें ब्रह्मा का नाम पहले आता है, क्योंकि वे विश्व के आद्य सृष्टा, प्रजापति, पितामह तथा हिरण्यगर्भ हैं। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">ब्रह्मा</balloon> को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाव वाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं ।।3-4।।
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08:44, 6 जनवरी 2013 का अवतरण

गीता अध्याय-12 श्लोक-3, 4 / Gita Chapter-12 Verse-3, 4

प्रसंग-


पूर्व श्लोक में सगुण-साकार परमेश्वर के उपासकों को उत्तम योगवेत्ता बतलाया, इस पर यह जिज्ञासा हो सकती है कि तो क्या निर्गुण निराकार ब्रह्मा के उपासक उत्तम योगवेत्ता नहीं हैं ? इस पर कहते हैं-


ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते ।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ।।3।।
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धय: ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता: ।।4।।



परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी सच्चिदानन्दघन ब्रह्मा[1] को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाव वाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं ।।3-4।।

Those, however, who fully controlling all their senses and even-minded towards all, and devoted to the welfare of all beings constantly adore as their very self the unthinkable; omnipresent, indestructible indefinable, eternal, immovable, unmanifest and changeless Brahma, they too come to me. (3,4)


तु = और ; ये =जो पुरुष ; इन्द्रियग्रामम् = इन्द्रियों के समुदाय को ; संनियम्य = अच्छी प्रकार वश में करके ; अचिन्त्यम् = मन बुद्धि से परे ; सर्वत्रगम् = सर्वव्यापी ; अनिर्देश्यम् = अकथनीय स्वरूप ; च =और ; कूटस्थम् = सदा एकरस रहने वाले सर्वत्र = सबमें ; समबुद्धय: = समान भाव वाले योगी; ध्रुवम् = नित्य ; अचलम् = अचल ; अव्यक्तम् = निराकार ; अक्षरम् = सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को ; पर्युपासते = भाव से ध्यान करते हुए उपासते हैं ; ते = वे ; सर्वभूतहितेरता: = संपूर्ण भूतों के हित में रत हुए (भी) ; माम् = मेरे को ; एव = ही ; प्राप्नुवन्ति = प्राप्त होते हैं



अध्याय बारह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-12

1 | 2 | 3,4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13, 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सर्वश्रेष्ठ पौराणिक त्रिदेवों में ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव की गणना होती है। इनमें ब्रह्मा का नाम पहले आता है, क्योंकि वे विश्व के आद्य सृष्टा, प्रजापति, पितामह तथा हिरण्यगर्भ हैं।

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