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उन्नीसवे [[श्लोक]] में भगवान् ने अपनी दिव्य विभूतियों को अनन्त बतलाकर प्रधानता से उनका वर्णन करने की प्रतिज्ञा की थी, उसके अनुसार बीसवें से उनतालीसवें श्लोक तक उनका वर्णन किया। अब पुन: अपनी दिव्य विभूतियों की अनन्तता दिखलाते हुए उनका उपसंहार करते हैं-
 
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हे परंतप<ref>पार्थ, भारत, धनंजय, पृथापुत्र, परन्तप, गुडाकेश, निष्पाप, महाबाहो सभी [[अर्जुन]] के सम्बोधन है।</ref> ! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है, मैंने अपनी विभूतियों का यह विस्तार तो तेरे लिये एकदेश से अर्थात् संक्षेप से कहा है ।।40।।  
  
 
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14:01, 5 जनवरी 2013 के समय का अवतरण

गीता अध्याय-10 श्लोक-40 / Gita Chapter-10 Verse-40

प्रसंग-


उन्नीसवे श्लोक में भगवान् ने अपनी दिव्य विभूतियों को अनन्त बतलाकर प्रधानता से उनका वर्णन करने की प्रतिज्ञा की थी, उसके अनुसार बीसवें से उनतालीसवें श्लोक तक उनका वर्णन किया। अब पुन: अपनी दिव्य विभूतियों की अनन्तता दिखलाते हुए उनका उपसंहार करते हैं-


नान्तोस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप ।
एष तूद्देशत: प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ।।40।।



हे परंतप[1] ! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है, मैंने अपनी विभूतियों का यह विस्तार तो तेरे लिये एकदेश से अर्थात् संक्षेप से कहा है ।।40।।

Arjuna, there is no limit to my divine manifestation. This is only a brief description by Me of the extent of my glory. (40)


परंतप = हे परंतप; मम = मेरी; दिव्यानाम् = दिव्य; विभूतीताम् = विभूतियोंका; अन्त: = अन्त; एष: = यह; तु = तो; मया = मैंने(अपनी); विभूते: = विभूतियों का; विस्तर: = विस्तार(तेरे लिये); उद्देशत: = एक देश से अर्थात् संक्षेप से; प्रोक्त: = कहा है;



अध्याय दस श्लोक संख्या
Verses- Chapter-10

1 | 2 | 3 | 4, 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12, 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पार्थ, भारत, धनंजय, पृथापुत्र, परन्तप, गुडाकेश, निष्पाप, महाबाहो सभी अर्जुन के सम्बोधन है।

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